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गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

श्रमिक दिवस ------ श्रम का उपासना पर्व --- लेख

श्रमिक  दिवस ------ श्रम का  उपासना  पर्व   ---
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का आधार श्रमिक है | प्रत्येक युग और काल में अपने श्रम के बूते पर श्रमिक ने दुनिया की प्रगति और उत्थान 
में अभूतपूर्व योगदान दिया है | सड़क हो या घर , सुई हो या हवाई 
जहाज सबके निर्माण में श्रमिक के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता | भाखड़ा डैम हो या ताजमहल , चाहे पर्वत के सीने को चाक कर निकलने वाली सुरंगे हो ,धरती माँ के भरे खेत खलिहान -- या फिर विशाल जलधारा से भरी नदियों पर पुल निर्माण ! कहाँ एक मेहनतकश इंसान ने अपनी श्रम की शौर्यगाथा नहीं लिखी ? भले ही इतिहास पुस्तिकाओं में उसकी मेहनत की कहानियाँ दर्ज नहीं की गई पर उस की बनाई कृतियों में --- चाहे वे रिहाइशी महल , किले अथवा हवेलियां हो या मंदिर , मस्जिद गुरूद्वारे या फिर पत्थरों पर उकेरी गई कलाकृतियाँ हर - जगह श्रमिक का समर्पण और श्रम मुंह चढ़कर बोलता है | आज की कंक्रीट की जंगलनुमा आधुनिक सभ्यता को नई शक्ल देने में तो श्रमिक ने कहीं अधिक पसीना बहाया है | कारखानों की निर्माण इकाइयां हो या हस्तकला उद्योग हर जगह मजदूरों और कारीगरों ने अपनी मेहनत और हुनर से निर्माण और कलाजगत में चार चाँद लगाये है | 

देश में धर्मनिरपेक्षता की सबसे सुन्दर मिसाल यदि कोई है तो वह है श्रमिक - वर्ग , जिसने जाति धर्म या नस्ली भेदभाव के बिना श्रम को अपना ईश्वर मान हर जगह मेहनत कर्म को प्राथमिकता दी है | वह हिन्दू के लिए काम करता हो या मुस्लिम अथवा सिख ,ईसाई के लिए , श्रम में निष्ठा उसका परम कर्तव्य और धर्म है | पर श्रमदाता की खुद की स्थिति किसी भी युग में संतोषजनक नहीं रही | मजदूरों को अनथक मेहनत के बावजूद ना कभी पेट भर अन्न मिल पाया ना उसके बच्चों और महिलाओं को अच्छा स्वास्थ्य और सुरक्षित जीवन | श्रमिकों की पीढ़ियां सड़को और उद्योंगों के निर्माण में रत रहकर भी सड़कों तक ही सीमित रही| जीवन की  वीपरीत परिस्थितियों से जूझते और घोर विपन्नता से दो चार होते हुए एक ढंग की छत तक उन्हें कभी मुहैया नहीं हो सकी | उद्योगपतियों को शिखर पर बिठाने वाले उनकी फौलादी हाथ हमेशा अर्थ सुख से वंचित रहे | युगों से शोषित श्रमिक अपने स्वामियों और देश के भाग्यनिर्माताओं द्वारा सदैव छला गया | स्वार्थ में रत तंत्र ने कभी उसके कल्याण और बेहतर जीवन के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया | शायद इसी लिए स्वाभिमानी श्रमिक वर्ग ने स्वयं ही अपने और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए सोचना शुरू कर दिया, क्योंकि मजदूरों की मजदूरी की अवधि कभी नियत नहीं रही | पर शिकागो में मई 1886 में मजदूर यूनियनों ने कामगारों के काम की अवधि को 8 घंटे तक निश्चित करने के लिए हड़ताल की शुरुआत की | इस हड़ताल में शिकागो की मार्किट में हुए बम धमाके का आरोप मजदूरों पर लगा जिसके फलस्वरूप पुलिस ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए उन पर गोली चला दी , जिसमे सात मजदूरों की मौत हो गयी थी | इसी आंदोलन की स्मृति को श्रमिकों के लिए समर्पित कर इसे मजदुर दिवस या मई दिवस कहकर पुकारा गया | इस दिन को श्रमिक वर्ग को महत्व देने का दिन माना गया | असल में यह दिन मजदूरों की निष्ठां और अनथक मेहनत की वंदना का दिन है |

गांधी जी ने भी इस वर्ग को देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक प्रणाली की रीढ़ की हड्डी की संज्ञा देते हुए प्रशासन से इनकी बेहतरी की दिशा में काम करने की तथा उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा के प्रति सचेत रहने की अपेक्षा की थी , जिससे वे किसी भी मसले अथवा झगडे का शिकार हुए बिना अपना काम ठीक ढंग से कर सकें | भारत में मई दिवस की शरुआत 1923 में चेन्नई से हुई | भारत समेत  लगभग 80 देशों में इस दिन को मजदुर  दिवस   या   लेबर डे के रूप में मनाया जाता है | आज तकनीकी युग में श्रमिको के लिए काम के अवसर कम से कमतर होते जा रहे हैं | भले ही देश के सविधान ने एक मजदूर को भी हर देश वासी की तरह समान अधिकार दिए हैं , पर उसे उन अधिकारों का लाभ ज्यादातर नहीं मिल पाया है| भले ही आज मजदूरों की औसत दशा पहले से थोड़ी ठीक है -- पर फिर भी श्रम दिवस पर नए संकल्पों और नए विचारों की जरुरत हैं , जिससे मजदुर वर्ग और उसकी आने वाली पीढियां एक अच्छा सुरक्षित और स्वच्छ जीवन जीने योग्य बन सकें | इसके लिए उनके बच्चों की शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये तो वही श्रमिक वर्ग को नई तकनीक का ज्ञान मुहैया करवाना सरकार की प्रमुख कोशिश होनी चाहिए ताकि रोटी , कपड़ा और मकान जैसी जरूरतों के लिए उन्हें सदियों से प्रचलित शारीरिक और  मानसिक  शौषण और प्रताड़ना से ना गुजरना पड़े | 

मजदुर दिवस श्रम के लौहपुरुष श्रमिक बंधुओं के प्रति अनुग्रह व्यक्त करने का दिवस है , श्रम के स्वाभिमान की उपासना और वंदन का दिन है | यह समाज और राष्ट्र के प्रति उनकी दी निस्वार्थ और निष्कलुष सेवाओं के प्रति आभार व्यक्त करने का पर्व है | क्योंकि श्रम में ही किसी सभ्यता का स्वर्णिम भविष्य छिपा होता है जबकि अकर्मण्य समाज का पतन निश्चित होता है | 
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श्रमवीर को समर्पित मेरी रचना 'मैं श्रमिक '  मेरे ब्लॉग ' क्षितिज' से --
इंसान हूँ मेहनतकश मैं -
नहीं लाचार या बेबस मैं 
किस्मत हाथ की रेखा मेरी  -
रखता मुट्ठी में कस मैं !!

बड़े गर्व से खींचता
  जीवन का ठेला ,
संतोषी मन देख रहा-
अजब दुनिया का खेला !!

गाँधी सा सरल चिंतन -
मैले कपडे उजला मन ,
श्रम ही स्वाभिमान मेरा -
हर लेता पैरों का कम्पन !

भीतर मेरे गांव बसा
है कर्मभूमि नगर मेरी ,
हौंसले कम नहीं  हैं  -
कठिन भले ही डगर मेरी !!!!!!!!!
चित्र गूगल से  साभार -------
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बुधवार, 25 अप्रैल 2018

प्रेम और करुणा के बुद्ध ------- लेख --


प्रेम और  करुणा  के  बुद्ध
ढाई हजार साल पूर्व - ईशा पूर्व की छठी सदी में  धरा पर महात्मा बुद्ध का अवतरण मानव सभ्यता की सबसे कौतुहलपूर्ण घटना है | बुद्ध की जीवन गाथा कदम - कदम पर नए आयाम रचती है | बुद्ध के जीवन में कहाँ रहस्य नहीं है -- कहाँ कौतूहल नहीं है ? कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन का पुत्र , एक राजकुमार सिद्धार्थ जिसके बारे में जन्म के समय ही त्रिकालदर्शी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी कर दी थी , कि यह बालक बड़ा होकर यदि घर पर रहा तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा - अगर घर से निकल गया तो फिर सन्यासी होगा जो संसार के दुःखोंका नाश कर मानवता को नयी राह दिखायेगा | जब यह बताया कि सन्यासी बनने के पीछे जीवन के दुःख और मानवता के संताप होगें तो अपने उत्तराधिकारी के अनिश्चित भविष्य से भयभीत राजा शुद्धोधन ने उसे जीवन के दुखों से बचाने का हर संभव प्रयास किया | उसके आमोद - प्रमोद के सारे साधन जुटाए ताकि वह उनमे लिप्त हो जीवन के दुःख -संताप से दूर रहे | पर क्या ऐसा होना संभव था --? नहीं एक न एक दिन सिद्धार्थ का जीवन के दुखों से सामना होना ही था क्योकि शायद यही उनकी नियति और प्रारब्ध था और पिता का अक्षुण डर इस की पहली सीढ़ी बना | विलासी व्यवस्था से उपजी ऊब ने शायद सिद्धार्थ को जीवन के प्रश्नों की तरफ मोड़ दिया होगा| उन्होंने इन भोगों को अनित्य जानकर इनमे आसक्त होना स्वीकार नहीं किया | 
यद्यपि यशोधरा के साथ विवाह - बंधन में बांधने पर वे संसार के सभी भौतिक सुखों से परिचित हो गए | पर नश्वर जीवन के स्थायी दुखों से सामना अभी शेष था ! ! क्योकि कबीर भी कहते हैं --देह धारण कर इस दंड अर्थात देह के क्षय से कोई बच नहीं सकता ! अतंतः देह का धर्म गलना ही तो है |    जब जीवन के इन नित्य दुखों से सिद्धार्थ का सामना हुआ तो वे स्तब्ध रह गए ! यूँ तो हर प्राणी हर रोज इन दुखों को देखता है और इनका अभ्यस्त हो जीता रहता है , क्योकि उनसे ये सत्य छुपाये नहीं जाते | पर सिद्धार्थ ने जब एक बीमार को देखा -- फिर वृद्ध को देखा अंत में निर्जीव देह से साक्षात्कार किया तो मन में विकलता क्यों ना होती ? क्योकि स्वयं से छिपाये गए इन सत्यों को वास्तव में पूरे विवेक से केवल  सिद्धार्थ  ने ही  देखा था , जो उनके लिए नए प्रश्न लेकर आया कि यदि जीवन इस अनिश्चितता का नाम है ये जीवन गौरवशाली क्यों और इस जीने से क्या लाभ ? शायद इसी विकलता के अप्रितम चिंतन ने सिद्धार्थ को बुद्ध बनने की दिशा में मोड़ दिया होगा !   बुद्ध तो जन्मजात बुद्ध थे |भले ही उन्हें सांसारिक बन्धनों में बंधने का  हर प्रयास किया गया पर  अततः  उनकी जिज्ञासा का बांध  सब  बंधन तोड़  बह निकला ! तमाम एश्वेर्य और साथ में अपने सुखद गृहस्थ जीवन - जिसमे प्रेमिका से पत्नी बनी यशोधरा और अबोध पुत्र राहुल के साथ माता - पिता सहित पूरा परिवार था --को त्याग कर वे एक अनिश्चित दिशा में निकल पड़े -- जीवन के सत्य को खोज में ! ! वर्षों तन -- मन की अनेक यंत्रणाओं से गुजर कर अंत में बोधगया में बोधिसत्व    के रूप में एक वृक्ष के नीचे सत्य से उनका साक्षात्कार हुआ और वे बुद्ध  या  महात्मा  बुद्ध कहलाये और   इतिहास के उन अमर पलों का साक्षी ये वृक्ष बोधिवृक्ष कहलाया जो सदियों के बाद आज भी अपने स्वर्णिम इतिहास के साथ अपनी अमरता  को धारण किये  एक तीर्थ बनकर अक्षुण खड़ा है जिसे निहारकर लोग अपना भाग्य सराहते है और बुद्ध के अस्तित्व के अंश को उसमे अनुभव करते हैं ||  
 बुद्ध मानवता के लिए एक मसीहा बनकर आये | धर्म के आडम्बरपूर्ण आचरण से त्रस्त लोगों को उन्होंने सरल राह दिखाई --और एक नया जीवन दर्शन दिया   बुद्ध ने मध्य मार्ग चुना और इसी पर मानव मात्र को चलने का आग्रह किया | ये वो मार्ग था जो अहम की परिधि से बाहर था जहाँ भोग विलास नहीं अपितु जिज्ञासा और सत्य का आग्रह था | उन्होंने चरैवेति -- चरैवेति का शंखनाद किया और सीमाओं में बंधने का प्रबल विरोध किया | उन्होंने चेतना को मान कर शरीर को आकार और चेतना का संयोग मात्र माना और माना चेतना सतत गतिमान रहती है -- नित नए रंग रूप में ढलकर | बुद्धत्व को अष्टागिक मार्ग द्वारा परिभाषित किया गया अर्थात -- सम्यक दृष्टि , सम्यक वाणी , सम्यक कर्मात , सम्यक स्मृति , सम्यक आजीविका , सम्यक व्यायाम सम्यक संकल्प के साथ सम्यक समाधि -- जिनका सार मानव मात्र के प्रति करुणा और प्रेम है  | दूसरे शब्दों में किसी को हानि न पहुँचाना , ऐसी बात ना बोलना जो किसी का ह्रदय विदीर्ण कर दे , ऐसे कार्य ना करना जो किसी को दुःख  पहुंचाए  , ऐसा जीवन जीना जिससे लेशमात्र भी दूसरा प्रभावित ना हो या फिर निरंतर स्वयं को सुधारने का प्रयास और किसी जीव को हानि पहुंचने वाले व्यवसाय ना करना जैसी व्यवहारिक शिक्षाएं दी | उन्होंने ईश्वर को अज्ञात और अज्ञेय माना | बुद्ध ने माना - मन का होना दुःख का कारण नहीं बल्कि अनंत और निर्बाध कामनाओं का होना दुख का मूल है | बुद्ध ने जीव के प्रति जीव को करुणा की राह दिखाई और उन्हें बुद्ध बनने के लिए प्रेरित किया बौद्ध बनने के लिए नहीं | | उन्होंने बुद्धत्व को आत्मबोध  की स्थायी स्थिति बताया   |
हम सब जीवन में - जीवन के ही दुखों , अनंत मोह और अभिलाषाओं से ग्रस्त हो कर कभी ना कभी बुद्ध अवश्य बनते है पर बुद्ध बनकर रहते नहीं है और कुछ देर बाद पूर्ववत जीवन में लौट आते है और उन्ही अनंत  लिप्साओं और कामनाओं में  पूर्ववत खो जाते हैं  | सदियों से प्रत्येक 
काल - खंड में बुद्ध प्रासंगिक है और आने वाली सदियों तक रहेंगे | जरुरत है उनके करुणा और प्रेम के आग्रह से भरे मार्ग का अनुसरण करने की | बुद्ध पूर्णिमा ऐसे ही पुरातन और चिरंतन संकल्पों को धारण करने का दिन है | बुद्ध के सन्दर्भ में ये और भी महत्वपूर्ण है , क्योंकि बैशाख मास की इसी पूर्णिमा के दिन बुद्ध धरा पर अवतरित हुए , इसी पूर्णिमा का दिन उन्हें मिले अंतर्ज्ञान   का साक्षी रहा और इसी पूर्णिमा के दिन अपनी शिक्षाओं और सिद्धांतों के रूप में नव बीजारोपण कर बुद्ध की चेतना अनंत में विलीन हो गई थी |

चित्र ---गूगल से साभार --
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  • गूगल  से साभार अनमोल टिप्पणी --
  • Harsh Wardhan Jog's profile photo
    बढ़िया लेख. इसी जीवन में दुःख से मोक्ष का सही रास्ता बताया बुद्ध ने.

    ( बुद्ध होने से पहले जो व्यक्ति खोज में लगा हो वह बोधिसत्व कहलाता है और ज्ञान प्राप्त होने पर बुद्ध. सिद्धार्थ गौतम भी पहले बोधिसत्व थे फिर बुद्ध हुए.)
    REPLY
    42w
  • Renu's profile photo
    Renu+1
    आदरणीय हर्ष जी------ आभारी हूँ कि आपने अपने कीमती समय स कुछ पल निकाल मेरे लेख को पढ़ कर अपनी राय दी | बहुत ही महत्व पूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाया आपने | मैंने तो यही पढ़ा था कि बुद्धत्व के समस्त नियमों का कठोरता से पालन करने वालों को बोधिसत्व की संज्ञा दी जाती है | पर आपने सही बात बताई | सादर आभार |
    REPLY

बुधवार, 11 अप्रैल 2018

सांस्कृतिक चेतना का पर्व -- बैशाखी --


सांस्कृतिक  चेतना का  पर्व --  बैशाखी

जीवन में इन्सान हर रोज़  अनेक प्रकार   के संघर्ष , पीड़ा  , कुंठा  , बेबसी  और अभाव आदि से रु  - ब- रु   होता है | भले ही  वह बाहर से कितना भी  प्रसन्न और सुखी क्यों ना दिखाई  देता हो , एक उदासी  किसी ना किसी   कारण  से उसके भीतर पसरी रहती है | पर साल  भर यदा -कदा मनाये जाने वाले  उत्सव   हमारी  उदास  और नीरस ज़िन्दगी में  रंग भरने  का काम बखूबी करते हैं | ये पर्व हमारे बाहर - भीतर दोनों में  आनंद और उल्लास भर देते हैं | बैशाखी ऐसा ही  रंगीला सांस्कृतिक  उत्सव है  , जो जब  भी  आता है समाज की  जड़ता को छिन्न- बिन्न करता हुआ इसमें नयी चेतना जगाता है | उत्तर भारत विशेषकर पंजाब , हरियाणा  में मनाये   जाने वाले इस पर्व से  पूरा भारतवर्ष परिचित है | लोक रंगों से सजा ये त्यौहार  हर वर्ष  अप्रैल महीने की  13 या  14 तारीख को मनाया जाता है| इसी दिन   सूर्य भी मेष राशी में प्रवेश करता है    और मेष संक्रांति  भी इसी दिन मनाई जाती है | सिख धर्म में नये साल का शुभारम्भ  भी इसी दिन से होता है | इस उपलक्ष्य में लोग  एक दूसरे को बधाइयाँ  और शुभकामनायें देते हैं |   ये समय  रबी  फसलों की कटाई की शुरुआत का भी होता है | छह महीने की  अथक मेहनत के बाद  लहलहाती पकी सुनहरी  फसलों को निहार कर किसान का मन आनंद  से भर जाता है  और  उसका मन उमंग में भर  गा उठता है |वह अपने मन की इस उमंग को ढोल  की थाप  पर भंगड़ा  डाल और गाकर प्रदर्शित करता है |सच  तो ये है कि ये  पर्व  धरतीपुत्र किसान के श्रम और अदम्य संघर्ष को समर्पित है | अन्न उपजाने को सृष्टि का सर्वोत्तम कर्म  माना  गया है क्योकि किसान  का अन्न उपजाना   उसकी आजीविका  मात्र नहीं , इसी अन्न से  अनगिन भूखे  पेट अपनी भूख शांत कर  कर्म की और  अग्रसर  होते हैं | सदियों से  किसान -कर्म इतना  आसान  भी कहाँ  रहा है ? आज के किसान के पास तो   तकनीकी  सुख - साधन  मौजूद हैं पर   अनंत काल तक किसान ने प्राणी मात्र की उदर - पूर्ति के लिए  साधन विहीन रहकर भी हर मौसम  की मार झेलकर  और अनेक प्रकार के शारीरिक , मानसिक और आर्थिक संकट  सह और खूब पसीना बहा कर    अन्न उपजाया है |   अन्न  अमूल्य है |सदियों  से  अन्नदाता   का सृष्टि पर  ऋण और उपकार है | यही कृतज्ञता का भाव बैशाखी के उत्सव   सजाता है और हर दिशा ढोल की थाप और भावपूर्ण गीतों से सक्रिय हो आनंदोत्सव   में डूब जाती है |यही भाव इस पर्व को प्रकृति से जोड़ता है |
पंजाब  में अनेक गीत  और लोक गीत  इस अनूठे उत्सव को समर्पित है जिनमे जीवन   की अनेक खुशियों और उनके समानांतर  ही जीवन की अनकही पीड़ा को भी भावभीने रंगों में पिरोया गया है | यहाँ के लोगों ने  बदलते समय में  भी अपनी सांस्कृतिक और लोक विरासत  को बखूबी संभाल कर रखा है | वे अपनी ख़ुशी  को जताने का एक भी   मौक़ा हाथ  से नहीं जाने  देते |जब लोग  अपने  सुंदर सजीले वस्त्रों में सज - धज कर  चलते हैं तो  समाज में  नया लोक वैभव  दिखाई पड़ता है | अनेक जगहों पर लोक मेलों का भी आयोजन किया जाता है || हालाँकि  परिवर्तन के दौर में    त्यौहारों   में पहले जैसी बात नहीं रही पर अलग रूप में ही सही  ये अपनी छटा बिखेरते जरुर हैं |सिख धर्म  में  यह त्यौहार अध्यात्मिक और धार्मिक  महत्व को भी दर्शाता है  |मुगलों की गुलामी से  त्रस्त लोगों के लिए ये त्यौहार  नयी आशाओं का साक्षी बनकर आया जैसाकि शेख फरीद  ने भी  परतन्त्रता को अभिशाप मानकर लिखा है -----
फरीदा बारि पराये  बैसणा---- साईं  मुझे ना  देहि--
जो तू ऐवे  रखसी  जिऊ   शरीरिहूँ  लेहि ---
अर्थात--  हे प्रभु !पराये  लोगों  में मुझे कभी मत बसाना ,यदि [ किसी कारण से ]  तुम ऐसा करोगे तो मेरे प्राण  मेरे शरीर से  हर  लेना अर्थात अलग कर देना | दूसरे  शब्दों  में  गुलामी  का जीवन उन्हें किसी भी रूप में स्वीकार्य नही  था  | इसी कर्म में सिख धर्म के सभी गुरुओं ने सामाजिक उत्थान में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया |और लोगों को चैतन्य से भर उन्हें  अपने कल्याण का  मार्ग दिखाया |सबसे बड़ी बात  गुरु नानकदेव जी ने तो सामाजिक रूप से उपेक्षित लोगों को गले लगाया और खुद को भी उन्ही में से एक जताकर  बराबरी का दर्जा दिया |वे   अनायास  कह उठे --- 
 '' नीचां अन्दर नीच जात -- निचिहूँ  अति नीचूं  ''
इस तरह से  समाज में  एकता का आह्वान  करते हुए  दलित  को बहुत ऊँचा स्थान दिया और अपने आपको उन्ही के  बराबर  जताकर  उनका आत्मविश्वास  बढाया |  अनेक मत्वपूर्ण घटनाओं का गवाह  बैशाखी पर्व बना |इसी दिन गुरु गोविन्द सिंह जी ने  चिरंतन  काल तक जीवन की कामना  रखने वाले  जड़ -बुद्धि  लोगों को ललकारा था कि यदि  वे जीना चाहते हैं तो उन्हें मरने की कला  सीखनी होगी | उन्होंने अपनी कर्मठता और आत्मविश्वास  से अकेले ही  मानसिक दासता के बंधन तोड़ने के लिए  लोगों  को जीवन मुक्त होने का आग्रह करते हुए आह्वान किया था क्योकि  मुग़ल शासकों के अत्याचारों से पीड़ित लोगों के लिए मुक्ति का एकमात्र यही साधन है  | उन्होंने सन  1669 में  इसी दिन खालसा  पंथ की स्थापना के साथ पांच प्यारों को मानवता के लिए सर्वोच्च बलिदान देने के लिए प्रेरित किया था और स्वयं की  भुजाओं और मन  की शक्ति पहचानने  को  कहा--- वे सूंघ की भांति दहाड़  उठे ----------
ये तो है घर प्रेम का --  खाला का घर नाहि--
शीश उतारे भूईं  धरे -तब  बैठे इह माहि ||
 गुरु जी  की  इस पुकार पर  दयाराम  नाम के नवयुवक ने अपने आपको सबसे पहले गुरु जी  को समर्पित किया इसके बाद चार और युवक आये ,जिन्हें गुरु जी ने पांच प्यारों की संज्ञा दी | इन पांचों के आत्मोत्सर्ग की भावना से  हजारों लोगों को  बलिदान  की प्रेरणा मिली और वे  गुरु जी के साथ मानवता के लयं की इस यात्रा में शामिल हो गये  | इस प्रकार बैशाखी  पर गुरु गोविन्द  सिंह  जी ने उत्साही लोगों को  एकत्र कर उनमे नई चेतना का संचार किया | आज भी  उन्ही दिनों की  गौरवशाली  यादों को जीते हुए  गुरुद्वारों  में विशेष  भजन कीर्तन और लंगर का आयोजन किया जाता है जिसमे लोग  जाती और धर्म का भेद भाव भुलाकर  बड़ी हे श्रद्धा से शामिल होते हैं | भारत की आजादी के इतिहास में भी ये दिन  एक अहम घटना  का गवाह बना | इसी दिन जलियांवाले  बाग़ में एकत्र  लोगों पर अंग्रेजी  जनरल डायर  में  गोली चलाने का आदेश दिया जिसमे अनेक निर्दोष निहत्थे  लोगों  को अपनी   जान गवानी  पड़ी | पर उनका ये बलिदान व्यर्थ नहीं गया | इसी निर्मम घटना ने भारत में अंग्रेजी हुकूमत   के  खात्मे की नींव रखी और उन्हें यहाँ से बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा | 
सच तो ये है कि बैशाखी  आम पर्व नहीं    बल्कि सामाजिक और   सांस्कृतिक  चेतना का प्रमुख त्यौहार है जिसने पंजाब  को    ही नहीं बल्कि उत्तर  भारत को समस्त विश्व  में अलग पहचान दिलाई है |
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पाठकों के लिए  विशेष ----- पंजाब की सांस्कृतिक और  ऐतहासिक  विरासत को समर्पित  एक सुंदर पंजाबी गीत |  
 गीत का भावार्थ ---
रंगले पंजाब की महिमा सुनाता हूँ -
जहाँ रब जैसी माएं होती हैं  ,
धरती पांच दरियाओं की रानी  -
जिसका शर्बत जैसा पानी  -अमृत जैसा पानी |
लगते   अखाड़े छिन्दा मेले -
 लगते तियां [तीज ] त्रिजण  ,तवेले |
 बहते थुहे  [पानी के ]दौडती गाड़ियाँ [बैल ]
कितने सुंदर गभरू [युवा ]मैदान में आते -
सावन आये रंग ले आये -  जट कभी आई बैशाखी  गाये - 
चरखे की तार ने पींगे पाई-मेले चली ननद भरजाई [भाभी ]
पंजाबी माँ के पुत्र पंजाबी -जग से अलग शान नवाबी   ;
 ये   शान  को दाग नहीं लगाते- यारी लगाके अटूट निभाते -
उधम , भगत सिंह जैसे शुरे ]वीर ] जाने वार के हो गये  सामने -   
पापी को ऐसा सबक सिखाये -के  गोरे  राह  लन्दन की  भगाए -
 सीख लो नाचना , खेलना ,गाना -- यहाँ बार बार नहीं आना -
जग   चीमे   चार दिन का खेला यारा बिछड़   जाये  वो मेला -
 रंगला  पंजाब मेरा रंगला पंजाब ,बसता रहे मेरा पंजाब , नाचता रहे मेरा पंजाब !!!!!!वन आये रंग  

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

पुस्तक समीक्षा - प्रिज़्म से निकले रंग (ई-बुक) ---------कवि - रवीन्द्र सिंह यादव -

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पुस्तक- प्रिज़्म से निकले रंग (ई-बुक) 
विधा - काव्य संग्रह 
कवि - रवीन्द्र सिंह यादव 
ISBN : 978-93-86352-79-8
प्रकाशक - ऑनलाइन गाथा, लखनऊ   
मूल्य - 50 रुपये 


               तकनीकी युग में सोशल  मीडिया  अभिव्यक्ति का एक बेहतरीन  माध्यम बन कर उभरा है | यहाँ अनेक मंच हैं जिन पर आप अपनी बात सरलता और शीघ्रता से कह  इससे  जुड़े लोगों तक पहुंचा सकते हैं |  इनमें ब्लॉग  अभियक्ति का सशक्त मंच है| एक तरह से ब्लॉग हमारे विचारों  का वो सदन है जहाँ हम अपने  मौलिक विचारों का आदान-प्रदान बड़ी सरलता से कर सकते हैं | ब्लॉग हमारे चिंतन और मंथन को विस्तार दे हमें अपने जैसे अनेक लोगों से जोड़ता है,  जो  हमें  प्रोत्साहित कर हमारी रचनात्मकता को विस्तार देता है |                       पिछले साल जनवरी  में  मैंने  जब  शब्द नगरी से लेखन की शुरुआत की तो मेरे पहले ही लेख को जिन लोगों ने  पढ़कर  उस पर  अपने अनमोल शब्द  लिखकर मेरा  मनोबल  बढ़ाया उनमें  आदरणीय रवीन्द्र  सिंह यादव जी भी थे |  वहां  रवीन्द्र जी की कई रचनाओं को  मैंने  पढ़ा | पर  जुलाई में जब मैंने अपना ब्लॉग बनाया तो  रवीन्द्र जी के  ब्लॉग से भी परिचय हुआ और वहां उनकी अन्य प्रतिनिधि रचनाएँ पढ़ीं| एक   सहयोगी रचनाकार  के रूप में मैंने रवीन्द्र जी को बेहद शालीन और साहित्यिक शिष्टाचार से भरपूर पाया | यही बात उनके लेखन में भी झलकती है जिसमें  अनावश्यक ताम-झाम  नहीं है और  न ही किसी  सरल विषय को दुरुहता से प्रस्तुत करने का प्रयास | उनकी रचनाएँ चिर-परिचित  मौलिक शैली में अपना सन्देश दे देती हैं |   कविता लेखन में   रवीन्द्र जी  का अपना ही शिल्प है जो उन्हें अन्य रचनाकारों से अलग पहचान दिलाता है  | हर रचनाकार का  यह  सपना  होता है  कि उसकी रचनायें  संग्रहित हो पुस्तक रूप में  परिणत हों |  पिछले दिनों पता चला  कि आदरणीय  रवीन्द्र सिंह जी की  रचनाओं का पहला संग्रह     ''प्रिज्म से निकले रंग '' के  नाम से  आया है |  मुझे भी  इसे पढ़ने का अवसर मिला तो  पाठक के रूप में मुझे इन्हें पढ़कर बहुत  अच्छा  लगा और  आदरणीय रवीन्द्र जी के लेखन पर बहुत गर्व भी हुआ | जैसा  कि नाम  से  ही  पता चल  जाता है, संग्रह  में भावों और कल्पनाओं के इन्द्रधनुषी रंगो  को विस्तार मिला है | अलग-अलग  विषयों पर  रचनाएँ अपनी  कहानी आप कहती हैं | इन रचनाओं में समाज, नारी, प्रेम, राष्ट्र, प्रकृति, इतिहास और जीवन में   अहम्  भूमिका  अदा करने वाले करुण-पात्रों  को  बहुत ही सार्थकता से प्रस्तुत किया गया है।   एक पाठिका के रूप  में  इस संग्रह को पढ़ने का अनुभव  मैं  दूसरे  साहित्य प्रेमियों  के  साथ बांटना चाहती हूँ |
          पुस्तक में  34  रचनाएँ हैं  जिन्हें सर्वप्रथम  कृति के रूप में पाठकों को सौपने से पहले आदरणीय रवीन्द्र जी ने एक सुयोग्य पुत्र  की भूमिका निभाते हुए इन्हें  अपने स्वर्गीय  माता-पिता जी और भाभी जी को सादर समर्पित किया है | साहित्य में पुस्तक लेखन में  मंगलाचरण  के  रूप  में सर्वप्रथम  माँ सरस्वती   की वंदना की सुदीर्घ परम्परा रही है | इसी परम्परा का   निर्वहन   करते हुए कवि ने पहली रचना माँ सरस्वती की अभ्यर्थना के रूप में   लिखी है, जो मुझे अन्य सरस्वती वन्दनाओं से बहुत अलग लगी | यह वंदना बहुत ही ह्रदयस्पर्शी है और  बहुजन हिताय  की भावना  को प्रेरित करती  है  साथ ही  एक सार्थक सन्देश  भी देती है  | शारदा माँ से  लोक कल्याण  के लिए  प्रार्थना करते वे कहते हैं --
       हे माँ !
भटके हुए  जीव जगत को
सुरमई गीत सुनाकर उजियारा पथ दिखा देना
जीवन संगीत का
दिव्य बसंती राग सिखा देना !!
           आदरणीय रवीन्द्र जी  की  नारी विषयक रचनाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया है | नारी  के सम्मान में             आदरणीय रवीन्द्र जी  की  नारी विषयक रचनाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया है | नारी  के सम्मान में  उनकी रचना में प्रश्न  उठाया गया हैं  कि--
 '' नारी के सम्मान में एक दिन -- शेष दिन ?
           इस विषय में उन्होंने कविता के साथ  एक लेख भी  संलग्न  किया है जिसमें  नारी की वैदिक काल से आज तक की  दशा पर चिंतन किया गया है जिसमें  समाज  के संकुचित दृष्टिकोण  को नकारते हुए नारियों  के अनथक  संघर्ष के लिए उन्हें नमन करते हुए  उनसे  शिक्षित हो जागने  का आह्वान किया गया है जिससे वे समाज में अपना खोया सम्मान और गरिमा  प्राप्त कर  सकें   क्योंकि  वे मानते हैं शिक्षा ही वह हथियार है जो उन्हें उत्पीडन और  शोषण से मुक्ति दिला सकता है | लेख में नारी के  अधिकारों   के प्रति न्यायप्रणाली   के अनेक प्रावधानों पर प्रकाश डाला गया है |  बेटियों को  समर्पित  दूसरी  रचना में वर्तमान  की बेटी के   आत्मकथ्य को  बड़े ही जोशीले शब्दों में उकेरा गया है | आज की बेटी  को एक ओर अपने इतिहास पर गर्व है तो उसे व्यर्थ के बंधन तोड़ अपना आकाश छूने की प्रबल आकांक्षा भी  है।  कवि ने बड़ी ही निर्भीकता से उसका संकल्प बड़े ही मनमोहक शब्दों में  पिरोया  है --
बंधन -भाव की नाज़ुक कड़ियाँ
अब तोड़ दूँगी मैं ,
बहती धारा मोड़ दूँगी मैं ,
मूल्यों की नई इबारत रच डालूँगी मैं,
माँ के चरणों में आकाश झुका दूँगी ,
पिता का सर फ़ख़्र से ऊँचा उठा दूँगी,!!!!!!
          कोई भी संवेदनशील  कवि समाज  में घट रही घटनाओं से अछूता  नहीं रह सकता | सम्यक दृष्टि  से उनकी विवेचना कर प्रखर कवि  अपना कविधर्म निभाते हैं |  इसी  क्रम में समसामयिक घटनाओं पर  पैनी दृष्टि रखते हुए  घटना का मर्म  प्रस्तुत कर  अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए रवीन्द्र जी ने अनेक रचनाएँ लिखी हैं  | पीछे  ऐसी ही एक मर्मान्तक घटना हुई जिसमें  सेवा कर्म  से जुड़ी  एक नर्स  ने मात्र  तीन सौ रुपयों की खातिर एक नवजात शिशु को  गर्म हीटर के पास सुला दिया जिससे उसका चेहरा झुलस गया |  नारी को ममता और वात्सल्य  की देवी माना गया है पर  जब वह अपने स्त्री-धर्म से मुंह मोड़  जाती है तो यह  ममता के लिए बड़ी अशुभ घड़ी होती है  जिसके लिए उसे कभी माफ़ नहीं किया जा सकता |  इसी घटना से आहत  कवि  का संवेदनशील मन प्रश्न करता है कि-------- उनकी रचना में प्रश्न  उठाया गया हैं  कि--

एक दिन जब वह समझदार बनेगा 
तब परिजन निर्मम दास्तान ज़रूर सुनाएंगे
अपना झुलसा हुआ चेहरा देख 
क्षमा करेगा उस नर्स को ?
जो सिर्फ  तीन सौ रुपये के लिए 
स्त्री-सुलभ ममत्व को तिलांजलि दे बैठी  --------
             इसी तरह  एक बार मीडिया पर जब भारतीय सैनिकों  की जली रोटियों का वीडियो वायरल हुआ तो  सारे  देश  में  देश के वीर जवानों  को परोसी गयीं  जली रोटियों के लिए देशभर में सरकार और सेना की ख़ूब  भर्त्सना हुई  पर '' जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि ''  को चरितार्थ करते हुए  कवि  अपनी अंतरदृष्टि   से इन जली रोटियों के लिए सैनिकों को  विवेक और संयम की  हिदायत  देते हुए समझाया है कि  राष्र्टीय एकता और अखंडता के  विरोधियों को मौक़ा मिल जाएगा और वह जली रोटियां खाने वाली सेना को कमज़ोर समझ देश को  भी कमज़ोर समझेगा | इसलिए  'जो मिले चुपचाप खाना'  और 'देश के लिए  बलिदान को तत्पर रहना ही' एक सैनिक का परम कर्तव्य है | क्योंकि ------

सर-ज़मीं   क़ुर्बानी    माँगती    है,
सैनिक   के   ख़ून    में  रवानी   माँगती  है,
दूसरों   का  हक़   मारने   वाले   बेनक़ाब   होंगे!
हम  बुलंद  हौसलों   के  साथ    क़ामयाब    होंगे!!

         इस प्रकार इस अलग तेवर और चिंतन की रचना ने मुझे बहुत प्रभावित किया | क्योंकि  सब  कुछ सहकर  मातृभूमि के लिए  जान तक न्योछावर करना हमारे सैनिकों की सुदीर्घ परम्परा रही है | यह  वही देश है जहाँ मातृभूमि के लिए महाराणा प्रताप ने घास तक की रोटियां  खायी थीं | 
           श्रवणकुमार की पुण्य-धरा पर एक कलयुगी बेटे ने जब सर्द रात में  पिता को घर के बाहर सुला दिया तो समाज में खंडित होते नैतिक मूल्यों  पर विकल कवि ने उस  बेटे को सार्थक रचना के माध्यम से खरी-खोटी  सुनाई है।  साथ में पिता का निस्वार्थ प्रेम याद दिलाते हुए खानाबदोश लोगों के संस्कारों का उदाहरण  दिया है जो कम साधनों में भी  सम्बन्धों  की नई परिभाषा  गढ़ते हैं -
इस पर कवि ने लिखा है ----
किसी खानाबदोश परिवार को देखो -
कैसे सह-अस्तित्व की परिभाषा गढ़ते हैं वे  ..
अपने मूल्यों के सिक्कों की खनक-चमक से -
 चौंधियाते  रहते हैं !!!!!!! 
           भारत के सबसे चहेते नेता जी सुभाष चन्द्र बोस  के लिए लिखी रचना संकलन की  प्रभावी  रचनाओं  में से एक है जिसमें  उनकी रहस्यमयी  मौत पर सवाल उठाते हुए  कवि ने   उन्हें नम आँखों  से याद करते हुए भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी है और साथ ही  सरकार की उस मंशा  पर  सवाल उठाये हैं जो इतने सालों बाद भी जाँच के अनेक प्रपंच रचकर   उनकी मौत की गुत्थी को सुलझा न सकी।  क्योंकि  बकौल कवि -------

दुनिया विश्वास ना कर सकी 
सुभाष के  परलोक जाने का ,
सरकारें करती रहीं  जासूसी -
भय था जिन्हें सुभाष के प्रकट हो जाने का |
        कविताओं के अलग-अलग  रंग निहारते हुए मुझे  एक और रचना बहुत खास लगी जिसमें  कवि ने  प्रेम का प्रतीक  माने  जाने वाले ताजमहल की यात्रा के दौरान  आगरा के लाल किले  से  बादशाह शाहजहाँ  की पीड़ा को अनुभव किया और उसे अपने शब्द देने का सफल प्रयास किया |  कवि के मन में बड़े मार्मिक प्रश्न कौंधते  हैं  कि ख़ुद  बादशाह बनकर तीस साल तक  वक़्त  की आती-जाती रौनकों को जीने वाले शंहशाह  शाहजहाँ ने न जाने कैसे अपनी मौत से पहले साढ़े सात साल  अकेले गुज़ारे होंगे ?  जिस  ताजमहल को अपनी प्रेयसी की याद में बनवाया था उसे निहारते हुए बादशाह के अंतस को टटोलती  मार्मिक रचना में उसके मन की  पीड़ा बड़े ही प्रभावी शब्दों में मुखर हुयी है | उसे दुनिया के छल  और अपने अकेलेपन पर शिकायत है तो अपनी इस कलाकृति यानि  ताजमहल पर बड़ा नाज़  भी है | वह उसे प्रेम की अमर निशानी  और बेहतरीन कलाकृति मान  कर कहता है -----


मेरे  जज़्बे   को  सलाम  आयेंगे 

सराहेंगे   क़द्र-दान    शिल्पकारों  को,

प्यार   नफ़रत   से  बड़ा  होता  है 

कहेगा अफ़साना उनसे जो नहीं आज  वहाँ ।  

मुंतज़िर  है   कोई  

सुनने         को        मेरे      अल्फ़ाज़   वहाँ ।


कवि दृष्टि पड़ जाने से कोई भी छोटी-सी घटना बड़ी बन जाती है तो छोटी-सी बात मर्मान्तक आघात | नन्ही  बच्ची के ओस  पर बालसुलभ उत्तर को कवि ने गम्भीरता से लेते हुए रचना  ''ओस '' में  'ओस ' पर पड़ी संस्कारहीनता और  जड़ता की ओस  को  बड़ी ही मार्मिकता  के साथ शब्दबद्ध किया है क्योंकि ओस-कण प्रकृति के सबसे कोमल मोती हैं  जिसे  कवियों और  साहित्यकारों  ने सदैव  कौतूहल  से देखा और महत्व दिया है पर भावी पीढ़ी को ये जलकण वीडियो में दिखाकर पहचान करायी जाती है यो इससे दुखद  और क्या हो सकता है  ? साथ में   प्राकृतिक ओस कण  उपेक्षित  ही रह जाते हैं  | दूसरी  तरफ एक सडक का नाम क्रूर बादशाह औरंगजेब  के नाम से  बदलकर शांति और प्रेम के मसीहा डॉक्टर ए  पी जे  अब्दुल  कलाम के नाम पर कर देने पर   कवि मन आह्लादित है | वे इस बात  को  भावी पीढ़ी के लिए  सर्वोत्तम सन्देश मानकर लिखते हैं 
भावी पीढियां अमन और प्रेम के धागे  बुन सकें 
                कुछ  ऐसा लिखें  हम समय की स्लेट पर _____________
              अनेक पड़ावों से गुज़रता अपनी काव्य यात्रा में कवि जीवन के अनेक रंग अपनी रचनाओं में उकेरता  आगे बढ़ता  है | अनेक प्रसंगों को देखने की कवि  की अपनी ही दृष्टि   और उसे शब्दों  में सवांरने की अपनी ही कला ! इसी  तरह      भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है दूब जिसे जिसे शुभता  और मंगल का प्रतीक तो समझा जाता ही है साथ में विनम्रता और चिर हरियाली का पर्याय भी माना जाता है | उसी की महिमा को विस्तार देते   'दूब' नामक रचना  में कवि ने   धरा के सीने पर लिपटकर रहने को उसकी विन्रमता  बताते हुए उसकी  लघुता  को नमन  किया   है  | उन्नत  और उद्दण्ड वृक्षों से कहीं महान बताते हुए  उसे  मानवीय संवेदनाओं के साथ जोड़कर बहुत ही सुंदर सार्थक सृजन करते उसके लिखा है -
छाँव न भी दे सके तो क्या -
घात-प्रतिघात की ,
रेतीली पगडंडी पर ,
घाम की तीव्र -तपिश से, 
तपे पीड़ा के पाँव ,
मुझ पर विश्राम पाएंगे ,
 दूब को प्यार से सहलाएंगे |
 रोज़मर्रा  जीवन  के करुण पात्रों  पर कवि का संवेदनात्मक चिंतन बहुत  हृदयस्पर्शी है |  मदारी , मज़दूर,लकड़हारा आदि पर  बहुत संवेदनशील रचनाएँ  अस्तित्व  में आई हैं |  बहरूपिया ' रचना में  बहरूपिये के अलग-अलग  मनमोहक रूपों से मुग्ध बच्चों को बड़ों की अनुपम सीख मिली है --

 यह शख़्स  है केवल  मनोरंजन के लिए --------!
इतने रूप अनापेक्षित हैं  एक जीवन के लिए -----------!!

               इसके साथ  अतीत के एक अहम्  सामाजिक पात्र लकड़हारे  का  स्मरण बड़ा ही मर्मस्पर्शी है क्योंकि   कुछ दशक पहले  लकड़ी के गट्ठर को सर पर लादे  संतोष  से पेट भरने के लिए  यह  श्रमजीवी जीवन की गलियों में भटकता अक्सर नज़र आ जाता था | आज न  उस लकड़ी के खरीददार रहे न  लकड़ी  बेचकर जीवनयापन करने वाला लकड़हारा |  पर  उसके खो जाने की पीड़ा  कवि    के इन शब्दों में व्यक्त हुई है --
आधुनिकता के अंधड़ में -
अब लकडहारा  कहीं  बिला गया है !!!!!
            वैदिक साहित्य में जलंधर नामक राक्षस को  अहंकार,अराजकता और दुराचार  के  प्रतीक  के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसने  महाशिव की अर्धांगिनी पार्वती जो  बड़ी ही कुत्सित दृष्टि से निहारकर  उन्हें  पाने की मिथ्या  कामना धारण  की थी  उसके  अस्तित्व को मिटाने के लिए विष्णु जी को  भी छद्म लीला  रचनी  पड़ी थी जिसके फलस्वरूप  जलंधर  की पत्नी वृंदा  के शाप  से वे  पत्थर रूप में  परिणित हो गये और आज भी शालिग्राम रूप में पूजे जाते हैं | उसी जलंधर पर बहुत ही चिंतनपरक रचना  है जिसमे कवि की विद्वता अलग रंग में  झलकती है ,क्योकि आज भी जलंधर  फिर  से नये रूप और नई भूमिका में सक्रिय है  |ये रचना  एक सार्थक  सन्देश भी देती है --
उन्मादी माहौल में दबकर -
कुछ ऐसे भी न्याय हुए 
मानवता को रौंद डालने 
शरू नये अध्याय हुए 
अहंकार के  अंधकार  में
 कोई आये दीप जलाने को 
आज जलंधर  फिर आया है 
हाहाकार मचाने को !!!!!!
जीवन के सांस्कृतिक रंगों को कवि में बहुत उल्लास और उत्साहवर्धक शैली में प्रस्तुत किया है  |इनमे होली पर   अनुपम रचना है तो प्रकृति के उत्सव बसंत पर    सुकोमल सृजन !!  अपने रचनाकर्म के माध्यम से कविने  अपने
भीतर की नैसर्गिकता   को  बचाने का आह्वान किया है क्योकि ये नैसर्गिकता  ही सही अर्थों में एक इंसान को इंसान  बनाती है और  भीतर  के अपनत्व  को मुरझाने नहीं देती | इसी अपनत्व को सर्वोपरि  मानते हुए जीवन में आशा  की नई  सुबह की कल्पना की है | प्रेम को बड़े ही  उद्दात और परम्परागत रूप  में   स्वीकार करते हुए अपनी  रचनाओं में जगह दी है तो   सत्ता- पक्ष के पूंजीवादी रवैये से आहत हो  उसे फटकार  -  समसामयिक  मुद्दों पर एक सजग नागरिक की भूमिका अदा की है |

 अंत  में कहना चाहूंगी  कि'' प्रिज्म से निकले रंग '' प्रबुद्ध, सुधि   पाठकों को जरुर पसंद आयेंगे | क्योकि  ये एक आम आदमी का चिंतन  भी है और  एक सजग कवि की  भावपूर्ण अंतर्यात्रा  भी  !! अपने  काम के साथ अपनी रचनात्मकता को नये आयाम देते हुए रवीन्द्र जी ने शब्द -शब्द   सम्पदा से अपने रचना संसार को समृद्ध किया | ये काव्य -संग्रह उसका मूर्त रूप है | संग्रह की सबसे बड़ी खूबी  इसकी   मौलिक शैली है  |मैं इस बहुरंगी प्रस्तुति के लिए आदरणीय रविन्द्र जी को  हार्दिक बधाई और शुभकामनायें  देती हूँ और  आशा करती हूँ कि उनका ये संग्रह  पाठकों के लिए एक नया अनुभव लेकर आयेगा और उनकी रचना यात्रा  नए आयामों की और निरंतर अग्रसर रहेगी | 

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ब्लॉगिंग का एक साल ---------आभार लेख

 निरंतर  प्रवाहमान होते अपने अनेक पड़ावों से गुजरता - जीवन में अनेक खट्टी -   समय निरंतर प्रवहमान होते हुए अपने अनेक पड़ावों से गुजरता हुआ - ...