
हिंदी साहित्य में कबीर भक्ति काल के प्रतिनिधि कवि के रूप में जाने जाते हैं | इसके अलावा वे भारत वर्ष के सांस्कृतिक और अध्यात्मिक जीवन को ऊर्जा देने वाले प्रखर प्रणेता हैं | उनकी ओजमयी फक्कड वाणी आज भी प्रासंगिक है | कौन है जो कबीर के नाम से अपरिचित होगा | मन में थोड़ा सा भी अध्यात्मिक भाव रखने वाले लोग कबीर की वाणी से भली भांति परिचित हैं, चाहे वे किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय से हों | | उन्हें कबीर दास एवं संत कबीर इत्यादि नामो से भी जाना जाता है || उन्होंने धर्म के नाम पर पाखंड और समाज में व्याप्त अनेक अंधविश्वासों का विरोध करके ईश्वर के निर्गुण रूप को मानने का आह्वान किया | भक्ति अथवा उपासना में ईश्वर की भक्ति दो रूपों में करने का प्रावधान किया गया है | जिनमे एक है सगुण अथवा साकार उपासना और दूसरी को निर्गुण अथवा निराकार कह पुकारा गया अर्थात एक उपासना को हम लौकिक उपासना कह सकते हैं तो दूसरी को आलौकिक || सगुण पूजा का सीधा अर्थ है कि हम ईश्वर को एक आकार अथवा मूर्त रूप में देखते हैं | अपनी कल्पना के अनुसार मूर्ति रूप में विभिन्न देवताओं और अवतारों की पूजा सगुण उपासना का ही रूप है | इस उपासना में भी जब हम ईश्वर को दृष्टिगत आधार पर देखते हैं ये तमोगुणी उपासना है तो मन के स्तर की पूजा रजोगुणी कही जाती है पर जो पूजा आत्मा के धरातल पर की जाती है उसे सतोगुणी कहा गया है | निर्गुण पूजा में ब्रह्म का विस्तार अनंत माना गया है | उसका कोई शरीर नहीं अपितु वह निराकार और अनंत है | वह एक ऐसी परम सता है जिसका कोई भी ओर-छोर नही है |वह ब्रह्माण्ड के कण - कण में प्याप्त है | यत्र -वत्र सर्वत्र उसकी ही माया है - हर प्राणी उसका ही रूप है | इसी निर्गुणंवाद को कबीर ने बखूबी परिभाषित किया है और माना भी है | सच तो ये है कि इस विचारधारा को उन्होंने खुद जिया तभी वे इसका मूल्याङ्कन भली भांति कर पाए | हिंदी साहित्य में निर्गुणवाद की दो शाखाएं मानी जाती हैं ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी | कबीर को ज्ञानाश्रयी शाखा का प्रवर्तक माना जाता है |
जीवन परिचय ----- कबीर जी का जन्म के बारे में अनेक मत और किंवदंतियाँ प्रचलित हैं | कबीर पंथी लोग मानते हैं की कबीर जी का जन्म काशी जी के लहरतारा नामक तालाब में कमल के ऊपर शिशु रूप में हुआ || उनके जन्म के विषय में कबीरपंथियों में यह पद्य प्रसिद्ध है ---
चौदह सौ पचपन साल गये , चन्दवार एक ठाठ गये |
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रकट भये ||
घन गरजें दामिनी दमकैं बूंदें बरसैं जहर लाग गये -
लहर तलाब में कमल खिले - कबीर भानु प्रगट भये ||
पर आम तौर पर सबसे ज्यादा माने जाने वाला मत है कि उनका जन्म काशी जी में सन 1398 में जेठ माह की पूर्णिमा के दिन -एक विधवा ब्राह्मणी के घर हुआ था , जिसे उनके गुरु रामानंद ने गलती से पुत्रवती होने का वरदान दे दिया था | उस वरदान के फलीभूत होने, पर उसने लोकलाज के भय से अपने नवजात शिशु को काशी जी में लहरतारा नाम के तालाब के किनारे फेंक दिया था, जहाँ से एक निः संतान जुलाहा दम्पति नीमा और नीरू ने इस शिशु को उठाकर बड़े प्रेम से इसका लालन पालन किया | उनके गुरु तत्वदर्शी समकालीन संत रामानंद जी माने जाते हैं |वैसे कहा जाता है कि रामानन्द जी ने उन्हें औपचारिक रूप से गुरुज्ञान नहीं दिया था ,क्योकि वे एक ऐसी जाति से सम्बन्ध रखते थे जिसे उन दिनों गुरु दीक्षा का अधिकार नहीं था | कहते हैं कबीर जी एक बार एक पहर रात रहते ही पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े जहा से गुरु रामानन्द जी गंगा स्नान के लिए सीढियां उतर रहे थे कि उनका पैर कबीर जी के शरीर पर पड़ गया और उनके मुंह से '' राम - राम शब्द निकल पडा जिसे कबीर जी ने गुरु मन्त्र के रूप में स्वीकार कर लिया और रामानन्द जी को अपने आराध्य गुरु के रूप में | हालाँकि कहा जाता है कि बाद में उनके ज्ञान और समर्पण को देख उन्होंने उन्हें अपना सबसे योग्य शिष्य मान लिया | स्वयं कबीर जी के शब्दों में --
हम कासी में प्रगट भये हैं -
रामानन्द चेताये हैं |
असली मत चाहे जो भी हो कबीरदास जी का अवतरण संसार में एक महत्वपूर्ण आलौकिक घटना जैसा है क्योकि उनके विचारों और मार्गदर्शन ने जन -जीवन को गहराई तक प्रभावित किया और सदियों बाद भी उनकी विचारधारा की छाप अमिट है | |
हिंदी साहित्य के प्रखर समीक्षक आदरणीय हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने कबीर जी को बिरला व्यक्तित्व करार दिया है |उन्होंने माना महिमा में केवल तुलसीदास उनके समकक्ष टिकते है ,पर उनकी साहित्यगत विशेषताएँ और विचारधारा भिन्न है | वे एक गृहस्थ साधू कहे जाते हैं जिनकी पत्नी का नाम 'लोई ' और संतान रूप में 'कमाल -- क्माली' नाम के पुत्र -पुत्री बताये जाते हैं | उनके जीवन का सबसे प्रेरक तथ्य है कि उन्होंने साधू जीवन को भिक्षा पर आधारित होने के मिथक को तोड़ ,स्वाभिमान से जुलाहा कर्म करते हुए साधुता को जिया |और लोगों का मार्ग प्रशस्त किया | उन्होंने मूर्ति पूजा की तुलना में जीवन यापन -कर्म को सर्वोपरि माना | उनके एक दोहे में कहागया है -
पत्थर पूजे हरी मिले - तो मैं पूजूं पहाड़ -
ताते ये चाकी भली पीस खाए संसार --
अर्थात - यदि पत्थर पूजने से हरी मिलते तो मैं पहाड़ को पूजता | उस [ निरर्थक ]पूजा से तो ये चक्की भली जिसेमें [अन्न ] पीसने से संसार पेट तो भर सकता है |
साहित्यिक भाषा और शैली --- कबीर दास कहते हैं ''कि मसि कागद छूवो नहीं , कलम गहि नही हाथ '' अर्थात उन्होंने कागज ,मसि , कलम को छुआ तक नहीं | वे अनपढ़ होते हुए भी भाषा पर जबरदस्त पकड़ रखते थे | वे जो भी बोलते उनके शिष्य उसे शब्द बद्ध कर लेते | उनकी भाषा
आम बोल चाल की भाषा थी इसमें उन्होंने जो कहना चाहा वही कहा , वो भी बड़ी ही रोचक और मनभावन अंदाज में | उनकी ओजमयी वाणी के आगे बड़े बड़े विद्वान भरते थे || उनके समकालीनो से लेकर आज भी काव्य - रसिक उनकी वाणी के फक्कड अंदाज में डूब से जाते हैं |उनकी वाणी एक ऐसे आत्म वैरागी व्यक्तित्व को साकार करती है जो आत्म बोध में लींन अदृश्य से सीधा तादाम्य स्थापित करने में सक्षम है | |उन्होंने पाखंडी पंडितों ,मुल्ला मौलवियों को बिलकुल भी नही बख्शा और अपने मारक व्यंग से उनकी पाखंडी और प्रपंची विचारधारा को धराशायी कर समाज और जनमानस में नये चेतना और आडम्बर विरोधी मानसिकता का प्रादुर्भाव किया |अपने एक दोहे में वे कहते हैं -----
कांकर पाथर जोरि के - मस्जिद लई बनाय -
ता चढ़ मुल्ला बांग दे -- बहरा हुआ खुदाय -
तो दूसरे में कहते हैं -------
माला फेरत जुग गया फिरा ना मनका फेर -
करका मनका डारि दे -- मन का मनका फेर |
कबीर की भाषा 'अरबी , फ़ारसी , पंजाबी , बुंदेलखंडी , खड़ी बोली इत्यादि कई भाषाओँ के शब्द मिलते हैं|
साहित्य में उनकी भाषा को सधुक्कड़ी कहकर सम्मान दिया गया है और भाव शैली इत्यादि के आधार पर उसका ऊंचा मूल्याकंन किया गया है | भले ही कोई उनकी विचार धारा और चिंतन से सहमत ना हो पर उनके काव्य रस में आकंठ ना डूब जाए - ऐसा कभी नहीं होता | एक अनपढ़ व्यक्ति की भाषा का ओज हर मन से प्रवाहित हो अध्यात्म की गंगा प्रवाहित किये बिना नहीं रहता | ये भाषा ऐसे संसार से साक्षात्कार कराती है जहाँ कोई धर्म विशेष नही , जाति विशेष नहीं , कोई ऊँच नही , नीच नहीं | समभाव को प्रेरित करती कबीरवाणी अपने आप में विस्मयबोधक है | उनकी भाषा आध्यात्मिकता के उजास में मानवता को जीने की नयी राह दिखाने में सक्षम है |
जीवन दर्शन ---कबीर के जीवन काल में समाज अनेक बाहरी आडम्बरों और पाखंडों का शिकार था जिस से बाहर निकलने के लोगों को एक यथार्थवादी मानसिकता की और प्रेरित करने की जरूरत थी | इसके लिए कबीर दास के जीवन दर्शन ने बहुत बड़ी भूमिका अदा की , जबकि उनका जीवन दर्शन किसी धर्म विशेष से प्रेरित नहीं था -- वे स्वयं को भी हिंदू -मुसलमान कहाने की बजाय एक इंसान मानते थे | | उन्होंने एक ईश्वर को मानने और जानने पर बल दिया || ईश्वर को उन्होंने विश्वास को ईश्वर प्राप्ति का साधन माना | आपके एक पद में वे कहते हैं --
मोको कहाँ ढूंढे से बंदे मैं तो तेरे पास में -
ना तीर्थ में ना मूर्त में ना एकांत निवास में -
ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलाश में | |
ना मैं जप में ना मैं तप में ना व्रत उपवास में |
ना मैं क्रिया -क्रम में रहता - ना ही योग सन्यास में | |
न ही प्राण में -ना पिंड में - ना ब्रह्मांड आकाश में |
ना मैं त्रिकुटी भवर में , सब स्वांसों के साँस में | |
खोजी होए तुरत मिल जाऊं - एक पल की तलाश में -
कहे कबीर सुनो भाई साधो - मैं तो हूँ विश्वास में !!!!!
कबीर की रचनाओं में रहस्यवाद और मार्मिकता है | ये हिन्दुओं के अद्वैतवाद को दर्शाता है तो दूसरी ओर मुस्लिम सूफी मत को छूता दिखाई पड़ता है | अद्वैतवाद में आत्मा - परमात्मा को एक मान एक दूसरेका पूरक माना गया है जिसे सांसारिक माया ने अपने आवरण से आच्छादित कर अलग - अलग कर दिया है | पर ज्ञान और विश्वास से ये आवरण उतार कर आत्मा - परमात्मा एक हो जाते हैं -- वे लिखते हैं --
जल में कुम्भ - कुम्भ में जल है - बाहर भीतर पानी
फूटा जल - जल ही समाना यह तत कथो मियानी
जीवन की क्षणभंगुरता को भूल जीवन प्रपंच में खोये मानव को चेताते हैं
उड़ जाएगा हंस अकेला - जग दर्शन का मेला !!!!!
उन्होंने आत्मा को चादर की संज्ञा दी और मानव से इसे मैली ना करने का आह्वान किया -पर जब ये आत्मा सांसारिक राग द्वेष और माया मोह से मलिन हो गयी तो वे कह उठे --
लागा चुनरी में दाग छुड़ाऊँ कैसे ?
इसी तरह वे कह उठे --
चदरिया झीनी रे झीनी -
राम नाम रस भीनी -
चदरिया झीनी रे झीनी ||
अष्ट-कमल का चरखा बनाया,
पांच तत्व की पूनी ।
नौ-दस मास बुनन को लागे,
मूरख मैली किन्ही ॥
चदरिया झीनी रे झीनी...
जब मोरी चादर बन घर आई,
रंगरेज को दीन्हि ।
ऐसा रंग रंगा रंगरे ने,
के लालो लाल कर दीन्हि ॥
चदरिया झीनी रे झीनी..
चादर ओढ़ शंका मत करियो,
ये दो दिन तुमको दीन्हि ।
मूरख लोग भेद नहीं जाने,
दिन-दिन मैली कीन्हि ॥
चदरिया झीनी रे झीनी...
ध्रुव-प्रह्लाद सुदामा ने ओढ़ी चदरिया,
शुकदे में निर्मल कीन्हि ।
दास कबीर ने ऐसी ओढ़ी,
ज्यूँ की त्यूं धर दीन्हि ॥
के राम नाम रस भीनी,
चदरिया झीनी रे झीनी ।-
ये दो दिन तुमको दीन्हि ।
मूरख लोग भेद नहीं जाने,
दिन-दिन मैली कीन्हि ॥
चदरिया झीनी रे झीनी...
ध्रुव-प्रह्लाद सुदामा ने ओढ़ी चदरिया,
शुकदे में निर्मल कीन्हि ।
दास कबीर ने ऐसी ओढ़ी,
ज्यूँ की त्यूं धर दीन्हि ॥
के राम नाम रस भीनी,
चदरिया झीनी रे झीनी ।-
आत्मज्ञानी कबीर ने पाखंडी ज्ञानियों को खरी खरी सुनाते हुए कहा --
कि तू कहता कागद की लेखी --
मैं कहता अँखियाँ की देखि !!!!!
अहम् भाव और ईश्वर प्राप्ति को एक दूसरे का विरोधी मानते वे कहते हैं -
जब मैं था तब हरि नही -- अब हरि हैं मैं नाहि-
प्रेम गली अति सांकरी-- ता में दो ना समाहि !!!!!!!!!
उन की विचारों से अनेक लोगों ने प्रेरणा ली और उन्हें अपने जीवन में अपनाया | सिख धर्म के सबसे बड़े ग्रन्थ ''श्री गुरु ग्रन्थ साहिब '' में भी कबीर जी के दो सौ से ऊपर दोहों को लिया गया है |इसके अलावा आम जीवन में उनकी अनेक - उक्तियाँ अत्यंत प्रसिद्ध हैं |
'
रचनाये----कबीरकी रचनाये ' बीजक ' नमक ग्रन्थ में संग्रहित हैं |इसके तीन भाग हैं -
'
रचनाये----कबीरकी रचनाये ' बीजक ' नमक ग्रन्थ में संग्रहित हैं |इसके तीन भाग हैं -
रमैनी , शब्द और साखी|- जिनमे रचना की दोहा , सोरठा , पद उलटबांसी इत्यादि विधाएं हैं |
अवसान -- कहते हैं सन 1518 मगहर उत्तर प्रदेश में कबीर दास जी ने देह त्याग दी | तब उनके शिष्यों में उनके अंतिम संस्कार को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया | पर इसी बीच जब उनके शव से कपड़ा हटाया गया तो उनके शव की जगह फूलों का ढेर मिला , जिसे दोनों धर्मों के लोगों ने आधा- आधा बाँट लिया और अपने अपने रीति- रिवाज के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया |
संक्षेप में कबीर हर कालखंड में प्रासंगिक है | आज के समय में जब धर्म एक अत्यंत संवेदनशील दौर से गुजर रहा है और इसके नाम पर अनेक लोग पाखंड और व्यभिचार का बाजार सजाये बैठे हैं ,कबीर के यथार्थवादी विचारों से सीखने की जरूरत है | गुरु की महिमा को खंडित करते अनेक कथित ' गुरु ' आज अपनी भ्रामक और पाखंडी गुरुता के साथ हर शहर -हर गाँव , में फैले हैं | कबीर की रचनाये इन्हें सच्चाई का आईना दिखाती हैं |
कबीर के कालजयी दोहे जो आम जीवन में लोकोक्तियों की तरह प्रयोग किये जाते हैं
चित्र -- गूगल से साभार -------------------------------------------
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
धन्यवाद शब्दनगरी
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- पाठकों के लिए विशेष ------संगीत शिरोमणि आदरणीय कुमार गन्धर्व जी द्वारा गया कबीर दास जी का भावपूर्ण भजन | मेरा आग्रह है कि पाठक इसे जरुर सुने --
अवसान -- कहते हैं सन 1518 मगहर उत्तर प्रदेश में कबीर दास जी ने देह त्याग दी | तब उनके शिष्यों में उनके अंतिम संस्कार को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया | पर इसी बीच जब उनके शव से कपड़ा हटाया गया तो उनके शव की जगह फूलों का ढेर मिला , जिसे दोनों धर्मों के लोगों ने आधा- आधा बाँट लिया और अपने अपने रीति- रिवाज के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया |
संक्षेप में कबीर हर कालखंड में प्रासंगिक है | आज के समय में जब धर्म एक अत्यंत संवेदनशील दौर से गुजर रहा है और इसके नाम पर अनेक लोग पाखंड और व्यभिचार का बाजार सजाये बैठे हैं ,कबीर के यथार्थवादी विचारों से सीखने की जरूरत है | गुरु की महिमा को खंडित करते अनेक कथित ' गुरु ' आज अपनी भ्रामक और पाखंडी गुरुता के साथ हर शहर -हर गाँव , में फैले हैं | कबीर की रचनाये इन्हें सच्चाई का आईना दिखाती हैं |
कबीर के कालजयी दोहे जो आम जीवन में लोकोक्तियों की तरह प्रयोग किये जाते हैं
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर
आशा, तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर
दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमिरन करें, दुख काहे को होय
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय
जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय
जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में परलय होएगी, बहुरी करोगे कब
पल में परलय होएगी, बहुरी करोगे कब
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होए
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होए
धीरे-धीरे रे मन, धीरे सब-कुछ होए
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए
साईं इतनी दीजिए, जा में कुटुंब समाए
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए
जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग
पोथि पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए
ढाई आखर प्रेम के, पढ़ा सो पंडित होए
ढाई आखर प्रेम के, पढ़ा सो पंडित होए
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए
वैद बिचारा क्या करे, कहां तक दवा लगाए
वैद बिचारा क्या करे, कहां तक दवा लगाए
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
धन्यवाद शब्दनगरी
रेणु जी बधाई हो!,
आपका लेख - (संत कबीर लेख ---------- कबीर जयंती पर विशेष ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है |
वाह!!प्रिय बहन रेनू जी ,बहुत ही सुंदर लेख । कबीर दास जी के बारे में विस्तृत जानकारी के साथ श्री कुमार गंधर्व जी का इतना खूबसूरत भजन पेश करने के लिए बहुत धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंप्रिय शुभा बहन --आपको लेखन पसंद आया मेरा लिखना सार्थक हुआ | और लेख से कहीं अधिक ख़ुशी मुझे आपके भजन सुनने पर हुई | आपसे अनुरोध है कि आप भी इस भजन को अपनी मधुर आवाज में गायें |और कुमार गन्धर्व जी संगीत के शिरोमणि गायक थे | उनका इस तरह के भजना गाना अपने आप में उनकी विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है | मेरी ओर से स्नेह भरा आभार |
हटाएंकबीर के बिंदास बोल वो भी सरल सी भाषा में कमाल का प्रभाव डालते हैं. 'कबीरा खड़ा बाज़ार में सबकी माँगे खैर, ना क़ाहू से दोस्ती ना क़ाबू से बैर' सरल सी भाषा और थोड़े से शब्दों में जीवन दर्शन समाया हुआ है.
जवाब देंहटाएंजीवनी की जानकारी नहीं थी उसके लिए धन्यवाद.
गाना भी आपने अच्छा चुना.
आदरणीय हर्ष जी -- आप स्वयम भी अध्यात्मिक विषयों के जानकार हैं |कबीर तो जन मांस में छाये हैं | आपके सार्थक शब्द अनमोल हैं मेरे ब्लॉग के लिए | सादर आभार --
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ जून २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
प्रिय श्वेता -- पञ्च लिंकों में जब भी रचना जाती है खुद पर गर्व अनुभव होता है |मंच की सदा आभारी रहूंगी |
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-06-2018) को "हम लेखनी से अपनी मशहूर हो रहे हैं" (चर्चा अंक-3016) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय सर -सादर आभार और नमन |
हटाएंबहुत दिनों बाद कबीर जी के बारे में पढ़ना बेहद अच्छा लगा । इतनी बढ़िया जानकारी लेख में प्रस्तुत कर आपने सराहनीय कार्य किया है ।सुन्दर लेखन के लिए बहुत बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंप्रिय मीना बहन -- आपके सार्थक शब्दों के लिए आभारी हूँ | आपको लेख पसंद आया मेरा सौभाग्य !!!!आप जैसे सुधि पाठक मेरे ब्लॉग के लिए अनमोल हैं | सस्नेह --
हटाएंबहुत उम्दा लेख
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंआदरणीय लोकेश जी -- आपकी ब्लॉग पर निरंतर उपस्थिति मेरा उत्साहवर्धन करती है | सादर आभार आपका |
हटाएंज्ञान की निर्गुण गंगा बहा दी रेणू बहन कबीर जी मेरे पंसदीदा कवि उपासक और आदर्श हैं, बहुत सुंदर और विस्तृत जानकारी के साथ सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद बहन ।
जीवन की नश्वरता को उन्होंने बखूबी बयान किया है ।
चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच मे साबित बचा न कोय।
माली आवत देख कर कलियन करी
पूकार फूले फूले बिन लिये काल हमारी बार।
रिय कुसुम बहन -- आपके विषय को विस्तार देते शब्द बहुत ही अनमोल हैं | सचमुच कबीर हर साहित्य प्रेमी के मन में बसे हैं | जीवन की नश्वरता से लेकर पाखंडी गुरुओं की पोल खोल -- हर विषय को उन्होंने बड़ी ही सहजता और निर्भीकता से उठाया है | | आपके उत्साहवर्धन करते शब्दों के लिए आभारी हूँ |
हटाएंसुन्दर आलेख।
जवाब देंहटाएंआदरणीय सुशील जी -- ब्लॉग पर आपके आने से बहुत ख़ुशी हुई | सादर आभार आपका |
हटाएंजी रेणु दी बहुत अच्छा लगा संत कबीर पर विस्तार से पढ़ । मैं काशी क्षेत्र से हूं। अतः जब छात्र था, तो कबीर मठ में जाया करता था। "साहेब" यह संबोधित शब्द जो बाद में बहुजन समाज पार्टी में शिष्टाचार
जवाब देंहटाएंप्रदर्शन का हिस्सा हो गया। सर्वप्रथम यही सुनने को मुझे मिला। कबीर की वाणी के प्रति मेरा बचपन से आकर्षक है। जो ब्लॉग पर मैंने लिखा भी हूं। पर अजीब सी स्थिति यह है कि जो संत निरंकार राम की बात करते थें,उनके नाम पर मठ और आश्रम बना अनुयायी उस समय झगड़ते दिखें।तब बनारस के अनेक मठों में मैंने ऐसा कुछ देखा। बुद्ध जो ज्ञान प्राप्ति के बाद से निर्वाण तक चलते ही रहें। उन्हें भी मठ बना कर उसमें स्थापित कर दिया गया। महावीर स्वामी की मूर्ति पर भी भक्त अपने वैभव का प्रदर्शन कर रहे हैं। शिरडी के सांईबाबा जो कुटिया में रहते थें, वे भी वैभव युक्त मंदिर में हैं। इससे मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं कि जीवित अवस्था में जो संत, उपदेशक सादगी को ही सर्वोत्तम समझते थें, अब ऐसे महलों में क्यों हैं ?
जी रेणु दी बहुत अच्छा लगा संत कबीर पर विस्तार से पढ़ । मैं काशी क्षेत्र से हूं। अतः जब छात्र था, तो कबीर मठ में जाया करता था। "साहेब" यह संबोधित शब्द जो बाद में बहुजन समाज पार्टी में शिष्टाचार
जवाब देंहटाएंप्रदर्शन का हिस्सा हो गया। सर्वप्रथम यही सुनने को मुझे मिला। कबीर की वाणी के प्रति मेरा बचपन से आकर्षक है। जो ब्लॉग पर मैंने लिखा भी हूं। पर अजीब सी स्थिति यह है कि जो संत निरंकार राम की बात करते थें,उनके नाम पर मठ और आश्रम बना अनुयायी उस समय झगड़ते दिखें।तब बनारस के अनेक मठों में मैंने ऐसा कुछ देखा। बुद्ध जो ज्ञान प्राप्ति के बाद से निर्वाण तक चलते ही रहें। उन्हें भी मठ बना कर उसमें स्थापित कर दिया गया। महावीर स्वामी की मूर्ति पर भी भक्त अपने वैभव का प्रदर्शन कर रहे हैं। शिरडी के सांईबाबा जो कुटिया में रहते थें, वे भी वैभव युक्त मंदिर में हैं। इससे मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं कि जीवित अवस्था में जो संत, उपदेशक सादगी को ही सर्वोत्तम समझते थें, अब ऐसे महलों में क्यों हैं ?
प्रिय शशि भैया -- आपक ब्लॉग पर आये और लेख पढ़कर अपना अनुभव सांझा किया ये बात बहुत महत्वपूर्ण है मेरे लिए |आपने मेरे लेख के बहाने उस व्यवस्था की पोल खोली जो समाज के लिए आज नासूर बन चुकी है |ये बात बहुत ही अचम्भित करने वाली है कि जो फकीर थे जन के प्रिय थे साथ में मूर्ति पूजा और पाखंडों के खिलाफ जीते जी लड़ते ही रहे , उन्हें कैसे मूर्ति के रूप में सजा उनके भव्य मंदिर बना दिए गये ? नित नये घोटालों के लिए प्रसिद्ध होते ये स्थान उन विचारों और आचरण को ठेस पहुंचा रहे हैं जिन्हें ये महापुरुष अभावों में जीवन जी हँसते हंसते बड़ी सादगी से जी गये | आपकी लेखनी एक प्रखर पत्रकार की लेखनी है जिसमे निर्भीकता है और गलत होने की पीड़ा भी | अभिभूत हूँ आपके इस अतुलनीय अनुभव को शेयर से |
हटाएंप्रिय अमित -- रचना पर आपके विस्तृत चिंतन पर अभिभूत हूँ | अपना अनमोल समय देकर आपने विषय को विस्तार तो दिया ही साथ में अपने सरस्वती उपासक होने का अनन्य परिचय ही दिया | मेरे भाई -- साई इतना दीजिये जामे कुटुंब समाय -- ही में तो कबीर बसते हैं आप इन शब्दों और आचरण में कबीर को जी रहे हैं ना कि उनका अनुसरण कर रहे हैं |संतोष ही तो सुख का मूल है और अनंत अभिलाषाएं और लिप्साएं अनेक व्यभिचारों और अपराधों का मूल | कबीर स्वयम एक कर्मशील साधू थे न कि उपदेश गाकर आजीविका बटोरने वाले अकर्मण्य संत | संतोष ना होता तो उनकी तृप्त वाणी से से सृजन की शीतल और मधुर निर्झरी कैसे प्रवाहित होती ? उन्होंने अपने सुघड़ हाथों से चादर बुनी और साथ में जीवन की अनमोल सच्चाईयां रचनाओं में गुंथी | और कितना ही बटोर लें - विश्व विजेता सिकन्दर जैसे भी खाली हाथ संसार से विदा होते हैं | मेरे ब्लॉग की शोभा में चार चाँद लगाती आपकी इस अनमोल काव्यात्मक और विस्तृत टिप्पणी के लिए कोई आभार नही बस मेरा हार्दिक स्नेह आपके लिए |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लेख लिखा कबीर जी के बारे इतने विस्तार से जानने को मिला धन्यवाद आपका
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लेख लिखा संत कबीर जी की इतनी विस्तार से जानकारी दी आपने
जवाब देंहटाएंप्रिय अनुराधा जी -- सबसे पहले आपका मेरे ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत है |आपको लेख पसंद आया मैं आभारी हूँ |हार्दिक धन्यवाद आपका |
हटाएंरेणु दी
जवाब देंहटाएंआपका प्रत्येक लेख, इसलिये सुंदर होता है कि उसके माध्यम से किसी भी व्यक्ति अथवा स्थान विशेष की सम्पूर्ण जानकारी मिल जाती है। और रही बात मेरी पत्रकारिता की तो इस छोटे से मीरजापुर में ही मुझे पत्रकार,अधिकारी और नेता कहांं पचा पाते हैं। कोई बेचारा समझता है, तो कोई बावला , कोई इसलिए ईष्या रखता है, क्यों कि आमजन में मेरा सम्मान अधिक है, तो कोई इसी कारण मेरे विरुद्ध षड़यंत्र रचता है, क्यों कि मैं जाने-अनजाने में उसके नकाब पर से पर्दा हटा देता हूं। खैर,सही मार्ग पर हूं। सो, आप सभी का स्नेह मुझ पर बरस रहा है।
प्रिय भैया --- दुनिया में सच्चाई के समानांतर विवाद चलते हैं | आपको कोई कुछ भी कहे आप सही हैं तो मस्त रहिये |और आम जनों में लोकप्रिय होना ही आपके नैतिक आचरण की सार्थकता है | अपने नये ब्लॉग समाज में खुश रहिये --
हटाएंधन्यवाद रेणु दी
हटाएंसंत कबीर एक समाज सुधारक अपनी धुन के पक्के ... सही मायनों में धर्म जाती से ऊपर उठे दरवेश थे ... आडम्बर हीन जीवन और सही अर्थों में इश्वर को समर्पित जीव ही ऐसा उत्तम विचार रख सकते हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत लाजवाब और गज़ब का जीवन दर्शन लिखा है आपने संत कबीर का ... विस्तृत और रोचक आलेख ...
आदरणीय दिगम्बर जी -- ऐसा कोई साहित्य प्रेमी या फिर आम आदमी नहीं होगा, जो कबीर से प्रभावित ना रहा हो | आप जैसे विद्वान के सराहनीय शब्दों से मुझे अत्यंत ख़ुशी हुई | मेरे साधारण लेख को ब्लॉग पर , आप लोगों की उपस्थिति ने खास बना दिया | सादर आभार और नमन |
हटाएंसंत कबीर पर आपने बहुत ही विस्तृत व् जानकारीयुक्त लेख लिखा है | अंत कबीर के दोहे आज भी जीवन की तमाम गुत्थियों को सुलझाने में सहायक हैं | इस लेख के लिए बधाई
जवाब देंहटाएंआदरणीय वन्दना जी -- लेख पसंद करने के लिए सादर आभार आपका |
हटाएंआदरणीया रेणु जी हिंदी साहित्य की प्राचीन कडी़ से जुड़ जो संत कबीर को आपने महत्व दिया वह लाजवाब और तारीफे काबिल हैं। आपका यह लेख उत्कृष्ट विचारों तथा यथार्थता के धरातल पर दौड़ता हुआ सद्ज्ञाान और प्नरेरणादायक लगा हैं। आपके लेख को पढ़ आनंद मिला हैं। नमन एवं उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएँ !
जवाब देंहटाएंआदरणीय सर , मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है | लेख आपको पसंद आया मेरा सौभाग्य है | सादर आभार |
हटाएंकिसी भी अशांत मन को शांत करने की अद्भुत क्षमता है इस लेख में!!!!
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार आपका |
हटाएंकबीर के जीवन पर बेहतरीन और ज्ञानवर्धक लेख सखी
जवाब देंहटाएंप्रिय सखी कामिनी -- सस्नेह आभार |
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें रेणु जी! सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में इसके चयन के लिए विशेष बधाई!
जवाब देंहटाएंआदरणीय सर --सबसे पहले मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है | लेख पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार |
हटाएंबहुत ही शानदार
जवाब देंहटाएंआदरणीय लोकेश जी -- सादर आभार \
हटाएंबहुत बहुत सुंदर रेणु बहन ।
जवाब देंहटाएंकबीर जी के बारे में कुछ कहना सूरज को दीप दिखाना है ,पर आपने बहुत सुंदरता से उनकेे बारे में जानकारी दी।
सस्नेह।
बहुत आभारी हूँ कुसुम बहन कि आपने दुबारा पढ़कर इस लेख पर स्नेहिल प्रतिक्रिया दी |आपको लेख पसंद आया , मेरा लिखना सार्थक हुआ |
हटाएंकबीर दास जी के बारे में बहुत सुना पढ़ा पर आपकी लेखनी की बात ही निराली है...
जवाब देंहटाएंउनके जन्म से लेकर मृत्यु तक के हर पहलू पर प्रकाश डालते हुए उनकी रचनाओं के साथ लेख को बहुत ही रोचक एवं ज्ञानवर्धक बना दिया है
सराहनीह लेख हेतु बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं आपको।
प्रिय सुधा जी , आपकी स्नेहिल , विस्तृत प्रतिक्रिया से लेख सार्थक हुआ | हार्दिक आभार ब्लॉग पर आपकी उपस्थिति का |
हटाएंकबीर जी पर उत्कृष्ट लेखन
जवाब देंहटाएंप्रिय भारती जी , ब्लॉग पर आपकी उपस्थिति से अपार हर्ष हुआ | हार्दिक आभार आपका |
हटाएंप्रिय रेणु ,
जवाब देंहटाएंआज ये लेख पढ़ कर 50 साल पहले के समय में चले गए ।
विस्तृत रूप से बहुत अच्छा लिखा है । कबीर को फक्कड़ कहा गया और इनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ी ।
अपने अनुभव और विचार ही सबसे साझा करते थे । बेहतरीन लेख । 👌👌👌👌
प्रिय दीदी , ब्लॉग मीमांसा पर आपकी उपस्थिति सकारात्मक ऊर्जा देती है | हार्दिक आभार आपके प्रेरक शब्दों का |
जवाब देंहटाएंवाह रेणुबाला जी !
जवाब देंहटाएंकबीरदास पर सुन्दर और ज्ञानवर्धक आलेख !