
साहित्य को समाज का दर्पण और व्यक्ति के विचारों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम कहा गया है |
यह शब्द , अर्थ और भावों की त्रिवेणी है जो व्यक्ति को सामाजिक सरोकारों से जोड़कर. उसे दायित्वबोध
कराते हुए, उसकी रचनात्मक प्रतिभा को सार्थक करती है | वैसे भी आज जो लिखा जा रहा है वह आने वाले कल का इतिहास है | आने वाली पीढियां शब्दों के माध्यम से आज का अवलोकन करेंगी | क्योंकि संसार में कुछ भी स्थायी नहीं |समय निरंतर परिवर्तनशील है इसलिए साहित्य इस परिवर्तन के समानांतर चलते हुए शब्दों द्वारा इनका अवलोकन और विश्लेषण करता है | किसी समय साहित्यार्जन में रचनाकार को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ता था | बहुधा बहुत प्रतिभाशाली लोगों का लेखन डायरी तक सीमित रह जाता था और पाठकों तक ना पहुँचने की दशा में वह यूँ ही नष्ट जाता था | पर आज के सूचनाक्रांति के युग में प्रतिभाशाली व्यक्तियों के लिए , रचनात्मक प्रतिभा के विस्तार के लिए किसी मंच की कोई कमी नहीं | सोशल मीडिया के जरिये अनगिन लोग अपनी अभिरुचियों को संवार रहे हैं, जिससे उन्हें अभूतपूर्व पहचान मिली हैं |ब्लॉग भी इन मंचों में से एक सशक्त मंच हैं | लेखन में रूचि रखने वाले लोग , बड़े उत्साह से इसका प्रयोग कर , अपनी प्रतिभा को अनगिन लोगों तक पहुँचाने में सफल हुए हैं |सबसे बड़ी सुविधा है कि उन्हें किसी अन्य सशक्त मंच की राह देखनी नहीं पडती | वे अपने प्रकाशक और प्रचारक खुद हैं | आज हजारों लोग ब्लॉग लेखन के जरिये साहित्य भण्डार को समृद्ध कर रहे हैं , जिसके माध्यम से बहुत सारे सशक्त रचनाकार सामने आये हैं | यूँ तो आजकल स्थापित लेखकों के भी ब्लॉग हैं पर मुझे लगता है , ब्लॉग लेखन असल में उन लोगों के लिए ज्यादा सार्थक है जिनकी पत्र - पत्रिकाओं तक पहुँच नहीं है और उनके भीतरत मिल जता है | ब्लॉग लेखन - रचनाकार की प्रतिभा को निखारते हुए उसे एक विद्यार्थी की तरह दिनोंदिन सीखाता है | रचनायात्रा के इसी क्रम में किसी ब्लॉगर के लिए वह दिन बहुत ही अविस्मरनीय होता है जब उसका लेखन पुस्तक रूप में पाठकों के सामने आता है | | पिछले दिनों मुझे देश के प्रमुख दस ब्लॉगरों की की सांझा पुस्तक ;; सबरंग क्षितिज - विधा संगम पढने का सौभाग्य प्राप्त हुआ |
जैसा कि नाम से विदित होता है , इसमें दस रचनाकारों की उल्लेखनीय रचनाएँ संकलित की गयी हैं जिसमें गद्य और पद्य दोनों प्रकार की रचनाएँ शामिल हैं |सबरंग क्षितिज के सूत्रधार जाने -माने ब्लॉगर और साहित्य साधक रवीन्द्र सिंह यादव जी हैं , तो संयोजक दूसरे अतिउत्साही ब्लॉगर और शब्दसाधक ध्रुव सिंह ' एकलव्य 'हैं , जिनके मिले जुले प्रयासों से यह सुंदर पुस्तक अस्तित्व में आई है |पुस्तक में गद्य और पद्य दोनों विधाओं को स्थान दिया गया है | कविता में हाइकू , गीत , ग़ज़ल , क्षणिकाएं इत्यादि शामिल हैं तो गद्य प्रकल्प में लेख और कहानियों को स्थान मिला है |
इस पुस्तक के वरिष्ठ संपादक के रूप में ब्लॉगर और साहित्यकार विश्वमोहन जी ने रचनाकार के रूप में अपना अतुलनीय सहयोग दिया ही है , इसके साथ पुस्तक की रचनाओं को अपनी समीक्षक दृष्टि से परख बहुत ही विद्वतापूर्ण भूमिका पाठकों के समक्ष रखी है | इस समीक्षा में उन्होंने अपनी साहित्यिक समझ और सूक्ष्म विश्लेषण क्षमता का भरपूर उपयोग किया है | समग्र साहित्यिक विशेषताओं की दृष्टि से आंकते हुए प्रायः सभी रचनाकारों की रचनाओं पर उनका गहन चिंतन - उनके भीतर के गंभीर पाठक से परिचय कराता है | भूमिका में रचनाओं की समीक्षा के साथ साथ समूचे साहित्यलेखन पर उनका चिंतन पाठकों के ज्ञान में वृद्धि करता है |उन्होंने सृजनात्मक चिंतन को परिभाषित करते हुए लिखा है,
'' यह चेतना की तुरीय अवस्था है जहाँ आत्मा का परमात्मा में विलय हो जाता है , अपने पराये के भेद मिट जाते हैं और भाव के स्तर पर ' आत्म '' सर्वात्म ' हो उठता है |प्रकृति का प्रत्येक परमाणु प्राणवंत हो जाता है |फिर आत्मा सृजन के श्रृंगार में सज जाती है | दुःख दूसरों के और आँखें हमारी और अश्रुनीर भी हमारे |''
कविता को बहुत ही भावपूर्ण शब्दों में परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं ,'' कि सूक्ष्म की व्यथा के इस विराट में प्रसार की वेदना प्रसव पीड़ा से भी अधिक मर्मान्तक होती है |और इसी पीड़ा की कोख से कविता का जन्म होता है | ''
सच है पीड़ा से जन्मी कविता के भीतर से ही मानवता का उदय और पोषण होता है |दूसरे शब्दों में हम कहें ,कविता ही साहसिक ढंग से सच्चाई को, दुनिया के आगे रखने का जोखिम उठाती है | | काव्य की इन्हीं विशेषताओ से युक्त सार्थक , सरस कविताओं को इस पुस्तक में स्थान मिला है |
पद्य खंड --
सबरंग क्षितिज के पहले खंड में काव्य रचनाओं को स्थानं मिला है , जिनमें काव्य की हाइकू ,गीत , ग़ज़ल , मुक्त छंद , छंदात्मक इत्यादि विधाएँ हैं |
दिवंगत पिता के जीवन के अंतिम पलों में पक्षाघात से जूझते हुए , उनकी असहायता और मौन दैहिकभाष्य को एक बेटी ने आत्मा की अतल गहराइयों के अनुभव किया और उस अनकही पीड़ा को शब्द देते हुए, "अनीता लांगुरी '' ने एक अत्यंत मर्मान्तक काव्य चित्र रच डाला जिसके हर शब्द में दैहिक ,मानसिक अवशता से जूझ रहे व्यक्ति की वेदना समाहित है | | मानों वे कह रहे हो -
कैसा जीवन है,
धत्त !जीवन भर पैसे-पैसे की दौड़ लगाई//
रिश्ते-नाते तमाम उम् //उलझा रहा इसी झंझावात में आज मर रहा हूँ ... अकेला ////एक दूसरी कविता में कवियित्री अंतरंग प्रेम की मधुर यादों को संजोकर प्रिय से मानों साथ का अनुबंध करना चाहती है ,पर समय ऐसानहीं चाहता |क्योंकि हर काम व्यक्ति की इच्छानुसार होना नामुमकिन है | फिर भी यादों को संजोना मन की शाश्वत प्रवृति है --
धीरे - धीरे तुम्हारी छवि, / धूमिल होने लगी है ---! //पर तुम्हारी यादें नहीं /जानती हूँ तुम साथ नहीं हो /पर जब भी ये घने जंगलों के साये मुझे डरायेंगे ---!/तुम उस वक्त मेरे पास रहोगे मेरी परछाई बनकर ---!//
स्वेटर की बुनाई में , एक- एक फंदे के साथ प्यार भी बुना जाता है | पर समय के साथ जब प्रेम का रंग बदरंग होने लगता है ,
तो पुराना हो चुका गुलाबी स्वेटर प्यार की उसी गर्माहट को याद दिला ही देता है --
तो पुराना हो चुका गुलाबी स्वेटर प्यार की उसी गर्माहट को याद दिला ही देता है --
याद आती वह बातें तुम्हारी //तुम बुनती रहीं रिश्तों के महीन धाग//और मैं बुद्धू // अब तक उन रिश्तों में /// तुम्हें ढूंढतारहा//
अपर्णा वाजपेयी जी की कवितायेँ अपने भीतर अलग तरह की वेदना समेटे है | देश , समाज में मिट रहे नैतिक मूल्य उनकी रचनाओं का मूल स्वर हैं जो पाठक को झझकोर देता है |विचारणीय मर्मान्तक मुद्दों पर हो रही निम्न स्तर की राजनीति कवियित्री को भीतर तक आहत करती है | संपन्न लोगो के हाथों विपन्नता से घिरे मजलूमों के शोषण का पर्दाफाश करती सशक्त दीर्घ कविता में वे लिखती हैं --हम चौराहे पर निर्वस्त्र औरतों के शरीर का / मांस तोलरहे हैं ,/ना जाने कब देह का दाम बढ़ जाए !/खरीद बिक्री जोरों पर है ,/बच्चों की पुतलियों का दाम बढ़ रहा है लगातार /और देह !/उसके खरी दार लाइन में लगे हैं ,/करोड़ों फेंक रहे हैं ------/गर्भ का बोझ धो रही हैं विधवाएं ,/ना जाने कब ---/बच्चा जनने लायक ना रहें , /कर दी जाएँ मंदी से बाहर |/सूना है बनकर ख़रीदे बेचे जा रहे हैं ----/हो कहीं परमाणु हमला /तो बच सकें अमीर---/
तो वहीँ उनकी कलम, अपने वैभव में खोये इंसानों को खान मजदूरों का शोक गीत सुनाती है , जिनके पुनर्वास के नाम पर अनगिन योजनायें सुनने में आती हैं , पर उनका नसीब ज्यों का त्यों है | वे लिखती हैं -
कोयला खदानों में काम करते मजदूर, /गाते हैं शोकगीत,/कि टपक पड़ती है उनके माथे से /प्रतिकूल परिस्थितियों की पीड़ा,/उनके फेफड़ों में भरी कार्बन डाई आक्साइड/सड़ा देती है उनका स्वास्थ । /धरती के ऊपर भी, नीम अंधेरा /तारी रहता है उनके मष्तिष्क पर./अँधेरे के बादल बरसते है,/सुख का सूरज उन्हें दिखाई नहीं देता। ///
वहीँ शहरीकरण की चकाचौंध के बीच भी गाँव की माटी के में पगे संस्कारों को अपने अंतस में संजोये आग्रह करती हैं ----जब भी आना गाँव की माटी लिए आना /हो सके तो दूब की बाती लिए आना //
पुस्तक में संकलित कविताओं में नीतू ठाकुर के लेखन से सघन भावनाएं अनायास छलकती हैं | यहाँ वीतरागी मन के जीवन से शिकवे भी हैं और नारी मन की अनकही वेदना भी |दिवंगत माँ की ममता की सघन छाँव की अनुभूति, उनके ना रहने की स्थिति में भी कभी कम नहीं होती , क्योंकि माँ- बेटी का नाता अटूट है --जीवन के साथ भी और उसके बाद भी | वे उनकी दुआओं पर अगाध विश्वास करते हुए- किस्मत को ललकारती दिखती हैं --जब कभी आते ही तूफ़ान घेरने दिल को मेरे /लडती है तूफानों से आंचल में छुपाते है मुझे //बनके परछाई वो हर पल साथ -साथ चलती है /अब जुदा करके दिखा किस्मत मेरी माँ से मुझे //
काव्य की आकार में बहुत छोटी विधा ' हाइकु ' में नीतू जीने बहुत प्रभावी हाइकु लिखे हैं --सबसे अच्छा- एकतरफा प्यार - ना जीत ना हार //-------टूटते घर -आसूं थे बेअसर -हुए बेघर //----पंछी परदेशी - पहनावा था देशी - सोच पुरानी//
एक अन्य कविता में नारी की अखंड महिमा दर्शाती रचना में वे लिखती हैं --एक अन्य कविता में नारी की अखंड महिमा दर्शाती रचना में वे लिखती हैं--
है ब्रह्म ज्ञान सी नारी भी , उस जैसा कोई महान नही/
जो समझ सके उसके मन को इस काबिल ये इन्सान नहीं ///////
पम्मी जी का मखमली उर्दू - हिंदी लेखन बरबस मन को छूता है |
हाइकू विधा में सृजन की उनकी परिभाषा ही निराली है ---
सृजनता का- पहलाकदम है - बिखर जाना //////
किसी बहुत अपने के आकस्मिक विछोह से स्तब्ध और उनकी स्मृतियों से सामना करते हुए भावातिरेक में लरज़ते शब्दों की लार्ज़िश सहज ही महसूस की जा सकती है
सुधा सिंह; व्याघ्र ' जी की रचनाएँ युवा मन की भावनाओं को मार्मिकता से प्रस्तुत करते प्रश्न खड़े करती हैं | बेरोजगार युवा काम ना होने पर भी व्यस्त क्यों हैं अपनी रचना ' व्यस्त हूँ मैं '' में वे लिखती हैं --
इस पुस्तक की भूमिका- लेखन के दायित्व का निर्वाह करते हुए विश्वमोहन जी ने अपनी रचनाओं को परखने का भार अपने पाठकों को सौंपा है | सुघढ़ अलंकारिक शिल्प में ढली उनकी कवितायेँ भाव और कला पक्ष से बहुत समृद्ध हैं , जिनका शब्द -चयन पाठकों को विस्मित कर देता है | अलंकार की टूटती सांसों में उनके प्रयोग संजीवनी बनकर घुल रहे हैं |आज जहाँ कविता मेंअंलकार देखने को भी नहीं मिलते वहीँ चमत्कृत रूप से अनुप्रास को नवजीवन देती ,उनकी कवितायेँ साहित्य में अतुलनीय योगदान दे रही हैं | यहाँ प्रेम लौकिक नहीं | उसका सीधा सम्बन्ध आत्मा - परमात्मा से है ---- अंलकार से सुसज्जित पंक्तियों का भाव पक्ष मुग्ध करता है --
अमरावती की अमर वेळ तू /मदन प्रेमघन मधुर मेल तू /तरुण कुञ्ज तरु लता पाश / वृंदा वन वनिता विलास,/ कान्हाकी मुरली के अधर / हे प्रेम पिक के कोकिल स्वर!///
प्रतिष्ठित अयन प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक का कवर पेज बहुत आकर्षक और मजबूत है ,जिसकी साज - सज्जा अत्यंत मनमोहक है । इस पुस्तक के सभी सहभागी रचनाकारों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं और रवीन्द्र जी को उनके भागीरथ प्रयास के लिए साधुवाद | आशा है सामूहिक रचना यात्रा का ये क्रम भविष्य में भी जारी रहेगा |
पम्मी जी का मखमली उर्दू - हिंदी लेखन बरबस मन को छूता है |
हाइकू विधा में सृजन की उनकी परिभाषा ही निराली है ---
सृजनता का- पहलाकदम है - बिखर जाना //////
इक परिंदा - शज़र की है चाह - गर्म पहर //- उड़ने भी दो --परिंदों को फिजा में--- पंख फैलाए
किसी बहुत अपने के आकस्मिक विछोह से स्तब्ध और उनकी स्मृतियों से सामना करते हुए भावातिरेक में लरज़ते शब्दों की लार्ज़िश सहज ही महसूस की जा सकती है
उलझ रही हूँ-/सजदों के लिए,/लर्जिश है /हर शब्दों में क्योंकि / कभी दुआ नहीं माँगी थी /आप के होते हुए... ///////
जब दर्द की अतिशयता में अधर मौन हो जाते हैं तो आँखें उस दर्द को चुपचाप ब्यान कर देती हैं | इसी स्थिति को बड़ी कोमलता से शब्दों में पिरो कवियित्री लिखती हैं -
जो तनहा, नहीं सरगोशियाँ थीं,/ कई मंजरो की,तमाम गुजरे,/ पलों के फ़साने दफ़्न कर../ लफ्ज़ों ने उन लम्हों से शिकायत की./ जिंदगी की राहों से जो गुज़री हो// जो ज़मीन न तलाश कर सकी /,मसाइलों की क्या बात करें.../ये उम्र के हर दौर से गुज़रती है/////
घरवालों को किया हुआ वादा/भी पूरा नहीं कर पाता हूँ !/देर शाम जब घर की /दहलीज पर पहुंचता हूँ तो /उनके मुख पर एक प्रश्नचिह्न पाता हूँ !/एक मूकप्रतीक बन/स्तब्धता से खड़ा रह जाता हूँ !/और सिर झुकाकर अपनी /लाचारी का परिचय देता हूँ !/मेरे पास किसी को देने के लिए/कुछ भी नहीं है, जवाब भी नहीं है! /इसलिए कि व्यस्त हूँ मैं .///
वहीँ दूसरी रचना में वे समय की तेज रफ़्तार से , पल - पल समाप्त होते जीवन और नजदीक आती मौत की प्रतीक्षा में उलझे मन की दशा को बखूबी शब्दों में लिखते हुए कहती हैं --उम्र की साँझ ढलने को है, /कितना कुछ छूट गया पीछे,/खड़ा हूँ,/ अतीत के पन्नों को पलटता हुआ,/भूतकाल की सीढ़ियों से गुजरता हुआ!/पुरानी यादों के कुछ लम्हे,/खुशियों और गम में बंटे हुए!/खोकर कुछ पाया था !/पाकर कुछ खोया था ///
बहुत कुछ पाने के बाद भी बची ख्वाहिशों को पाने की जिद में वे जिदंगी से मनुहार करती हैं ---जिंदगी /तेरा हसीन रूप ही अच्छा है।/तू हमें किसी जंजाल में उलझाया न कर।/तू दोस्त बनकर आती है तो सबके मन को भाती है।/यूँ हमें अपनी सपनीली दुनिया से दूर न कर।/भूलना मत../मेरी फरमाइशें अभी बाकी है ।/कई ख्वाहिशें अब भी बाकी हैं/////
पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी की कविता प्रकृति से संवाद करते हुए ऐसे प्रश्न करती हैं, जिनमें जीवन का सार छुपा है | निर्झर से बहते भाव कविता को सहजता से सरस प्रवाह देते हैं |अकेले प्रेम की कल्पना करते हुए कवि प्रकृति को अपनी इच्छानुसार अलग कलेवर में रंगना चाहता है जिसमें विरह - वेदना की छाया तक ना हो -- सृष्टि में सब आह्लाद भरा हो -- ---
कोशिशें अनवरत करता हूँ कि,/कंटक-विहीन खिल जाएँ गुलाब की डाली,/बेली चम्पा के हों ऊंचे से घनेरे वृक्ष,/बिन मौसम खिलकर मदमाए इनकी डाली,/इक इक शाख लहरा कर गाएँ प्रेम,/न हो कोई भी बाधा, न हो कोई सीमा प्रेम की...../यूँ जारी है मेरी कोशिशें, अकेले ही प्रेम लिखने की ///
उम्र से अधूरी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए कवि मन उसे अपनी रफ्तार धीमी करने का आग्रह करता है -----
ऐ उम्र, तूने उड़ान यह कैसी भरी ?/पल में ही सदियाँ ये गुजर गयी /ख्वाहिश जीने की थी अभी अभी /फिर क्यों , तुझे जाने की है ऐसी जल्दी ?/
किसी अपने के बहुत दूर जाने की वेदना में वे ईश्वर से भी प्रश्न करने से नहीं चूकते --
टटोलती हर पल हृदय के तार सदा तुम पास रहे मेरे,/पर क्यों विधाता को न आई ये रास,/ क्यूं छोड़ गए तुम साथ,/ईश्वर से पूछूँगा जीवन के उस पार तुम क्यूं साथ नहीं हो मेरे?////
'श्वेता सिन्हा ' जी ने भावों की तूलिका से शब्दों में रंग भरते हुए अपनी रचनाओं को संवारा है | पुस्तक में संकलित उनकी क्षणिकाएं थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कह जाती हैं --
ब्रह्मांड के कण कण /में निहित।/अभिव्यक्ति/होठों से कानों तक/सीमित नहीं,/अंतर्मन केविचारों के चिरस्थायी शोर में/मौन कोई नहीं हो सकता है।///----------
बंधन /हृदय को जोड़ता /अदृश्य मर्यादा की डोर है। /प्रकृति के नियम को /संतुलित और संयमित /रखने के लिए।/////
जब शब्द मौन जाते है तो भाव आँखों से अनायास छलक जाते हैं | एक भावपूर्ण गीत में वे लिखती है - --
शब्द हो गये मौन सारे -- भाव नयन से लगे टपकने /अस्थिर चित्त बेजान देह में - मन पंछी बन लगा भटकने ///साँझ क्षितिज पर रोती किरणें / रेत पे बिखरी मीन प्यासी ,/कुछ सुने ना ह्रदय है बेकल /धुंधली राह ना टोहजरा सी ////
जीवन की आपाधापी में हम वह सब खो देते हैं ,जिसकी हमें सबसे ज्यादा चाह होती है | इन्हीं मर्मातक भावों को खूबसूरती से हृदयस्पर्शी रचना में समेटती वे लिखती हैं -----
जद्दोज़हद में जीने की, हम तो जीना भूल गये /मधु भरे थे ढेरों प्याले, लेकिन पीना भूल गये।।/बचपन अल्हड़पन में बीता, औ यौवन मदहोशी में /सपने चुनते आया बुढ़ापा, वक्त ढला खामाशी में।/ढूँढते रह गये रेत पे सीपी, मोती नगीना भूल गये /मधु भरे थे ढेरों प्याले, लेकिन पीना भूल गये।////
ध्रुव सिंह 'एकलव्य ' जी की एक मात्र काव्य रचना 'आह्वान ' पुस्तक में आई है | आशा भरे इस सरस , मधुर गीत में जीवन में सकारात्मकता का आह्वान किया गया है | सरल शब्दों में गुंथे भाव सहज ही मन को स्पर्श करते हुए भीतर नवआशा का संचार करते हैं --
झिलमिल -झिलमिल / पंखों वाली /नाचे बगिया / डाली- डाली /तू दूर देश से आयी है / लेकर सपने रंगीन बहुत /पंखों में तेरे रत्न जड़े /चमकें जैसे हों फूल खिले /लिया क्या रंगों की समझाऊँ ,मिलते जैसे हों अलख जगे / झिलमिल -झिलमिल / पंखों वाली /नाचे बगिया / डाली- डाली ////"रवीन्द्र सिंह यादव जी ने अपनी एक दीर्घ कविता और हाइकुओं के रूप में अपने दो रचनाओं के रूप में , पुस्तक में योगदान दिया है |
उनके हाइकु 'हाइकु ' विधा पर खरे उतरते हैं| सभी हाइकू बसंत के मौसम पर हैं , जिनमें बसंत विभिन्न भावों में शब्दों में जीवंत होता है --
छाया बसंत -है बसंत बहार -मुदित जिया //बौराए आम -फूली पीली सरसों -हँसे किसान /// ढ़ाक पलाश -सुर्ख- हुआ जंगल - महके फूल / सूनी है साँझ -चंदा चुपचाप क्यों , रोया चकोर -//// बुझते दिए - मायूसियों के साये , आ जाओ पिया///////
प्रकृति कभी स्वार्थी नहीं होती चाहे हम उसके साथ जो भी व्यवहार करें | इसी भाव को रवीन्द्र जी की एक दीर्घ कविता में , एक पेड़ की व्यथा- कथा माध्यम से , बहुत प्रेरक ढंग से लिखा गया है |जिसमें
सूखे पेड़ की छाल का एक टुकडा जो एक आँधी के झोंके से गिर पड़ता है| हालांकि, उसके गिरने से किसी का कोई नुकसान नहीं होता , फिर भी स्वार्थी लोग उसके विशालकाय शरीर से डरते हुए , उसके फल , फूल , छाँव इत्यादि सब उपकार बिसराकर उसे मिटाने को उद्दत हो उठते हैं और यहीं से उसे कटवाने की धुन में ना जाने कितने स्वांग शुरू हो जाते हैं | अपने यौवन की मधुर स्मृतियों को संजोते वृक्ष को कहीं ना कहीं उन स्वार्थी लोगों से एक आस रहती है जिनके जीवन में उसका अहम् योगदान रहा है | नाजाने कितनी ही जीवंत अनुभूतियों का साक्षी रहा व्यथित पेड़ बस सोचता ही रह जाता है ---
मैं गवाह हूँ बहुतेरे खट्टे मीठे कसैले किस्सों का ////मेरे साये में बैठकर / कितनी मौलिक कहानियां कही गयी /प्यार और दर्द के अनसुने अफसाने सुने //वेदना से कराहते लोगोंकी आहें - चीखें -// सोचो !मुझसे कैसे सही गयी ---!
अपने यौवन में बहार के विभिन्न रंग की यादें उसके मन को वेदना से भर जाती हैं |पर उसकी छाँव में , अपने जीवन के अनगिन अंतरंग क्षण जीने वाले लोगों को उसके उपकार जरा भी याद नहीं आते ||इन्हीं सपनों से बाहर आकर उसे जब अपने मिटते अस्तित्व का आभास होता है तो वह ईश्वर से-- भगवान् ईसा मसीह की तरह यही प्रार्थना करता है-----
कि हे परमात्मा |/सुनो मेरी निदा /सुनो मेरी जुस्तजू / नादान मनुष्य को // माफ़ करना ---!///////
इस पुस्तक की भूमिका- लेखन के दायित्व का निर्वाह करते हुए विश्वमोहन जी ने अपनी रचनाओं को परखने का भार अपने पाठकों को सौंपा है | सुघढ़ अलंकारिक शिल्प में ढली उनकी कवितायेँ भाव और कला पक्ष से बहुत समृद्ध हैं , जिनका शब्द -चयन पाठकों को विस्मित कर देता है | अलंकार की टूटती सांसों में उनके प्रयोग संजीवनी बनकर घुल रहे हैं |आज जहाँ कविता मेंअंलकार देखने को भी नहीं मिलते वहीँ चमत्कृत रूप से अनुप्रास को नवजीवन देती ,उनकी कवितायेँ साहित्य में अतुलनीय योगदान दे रही हैं | यहाँ प्रेम लौकिक नहीं | उसका सीधा सम्बन्ध आत्मा - परमात्मा से है ---- अंलकार से सुसज्जित पंक्तियों का भाव पक्ष मुग्ध करता है --
अमरावती की अमर वेळ तू /मदन प्रेमघन मधुर मेल तू /तरुण कुञ्ज तरु लता पाश / वृंदा वन वनिता विलास,/ कान्हाकी मुरली के अधर / हे प्रेम पिक के कोकिल स्वर!///
किस ग्रन्थ गह्वर के राग छंद ये गाई, /लय, लास, लोल, लावण्य घोल तू लाई /मन मंदिर में तू, मंद मंद मुस्काई /प्राणोंमें प्रेयसी, प्रीत प्राण भर लाई ////
आलौकिक प्रेम से सराबोर और दिव्य भावों से सजी रचना में माधुर्य की बानगी ----
बनूँ जुगनू जागूं जगमग कर,/रासूं राका संग सुहाग भर./राग झूमर सोहर झुमकाऊँ,/आज जो जोगन गीत वो गाऊं////
प्रेम सखा संग प्रीत समाधि कीकल्पना पाठकों को चकित कर देती है --------
प्रीत समाधि में उतरेंगे,/प्रेम पंथ के पाथेय हम।/कर स्वाहा सर्वस्व विसर्जन,द्वितीयोनास्ति, एकोअहम।//
प्रकृति और पुरुष सृष्टि में एक दूजे के पूरक हैं -- उनके एक दूजे के अहम् का क्षय ही जीवन में चिरानुराग का अक्षय अमिय भरता है --जहाँ प्रेंम , शून्य से समाधि तक की यात्रा तय करते हुए , उत्सर्ग उत्सव मनाता है | रचनाओं में अनुराग के दिव्य भाव पाठकों को माधुर्य के आलौकिक संसार में ले जाते हैं || -
डूबते यूँ जाएँ हम,//न तू-तू मै-मै और ख़ुशी गम.//दूर क्यों होना है गुम,/आ, हो समाहित हममें तुम//हो आहुति मेरे ' मैं ' की,//और तुम्हारे ' तू ' का क्षय./आत्म का उत्सर्ग उत्सव,चिर समाधि अमिय अक्षय//
इस तरह से नवरस के विधान में रचा सबरंग क्षितिज का सम्पूर्ण काव्य संसार अलग -अलग विषयों पर गैर परम्परागत लेखन का सुंदर प्रयास है | सम्मिलित रचनाकारों मे कई रचनात्मकता के पथ के नव पथिक हैं | फिर भी उनका प्रयास सराहनीय है |
गद्य खंड
साहित्य की गद्य विधा में कहानी सबसे लोकप्रिय है | कहानी के उद्भव और विकास का कोई ठोस आधार नहीं | संभवतः यह मानव की सहज जिज्ञासु प्रवृति से उत्पन्न है | इस स्वतंत्र विधा का विकास लोककथा या नीतिकथा जैसे प्राचीन कथा रूपों से हुआ। या यूँ कहें कहानी जीवन के किसी एक अथवा युगल घटनाक्रमों को शब्दों में जीवंत करने की कला है | जिसके स्वरूप को साहित्य के पुरोधाओं ने अपने -अपने विचारानुसार परिभाषित किया है |जैसे "मुंशी प्रेमचन्द ''जी ने कहानी को एक ऐसी रचना माना है जिसका उद्देश्य जीवन के एक अंग अथवा मनोभाव को प्रभावित करना है |तो "डॉक्टर श्याम सुंदर सेन'' कहानी को निश्चित लक्ष्य या प्रभाव का नाटकीय आख्यान मानते हैं |
सबरंग क्षितिज की भूमिका में विश्वमोहन जी ने अत्यंत सरल , सुंदर शब्दों में कथा को यूं परिभाषित किया है
'' मेरा मानना है कि किसी क्षेत्र में उपजने वाली कहानी की उस माटी की कुदरती पैदाइश है और वहां का समस्त सामाजिक परिवेश , सांस्कृतिक ताना - बाना आबोहवा , पर्यावास , हैबिटेट , सभ्यता , तीज - त्यौहार , चिरई - चिरगुन , खेती बाडी , रहन - सहन , रीति- रिवाज , इतिहास भूगोल, जीवन दर्शन , राजनैतिक व्यवस्था , बोली , मुहावरे . लोकोक्ति , बाहर की दुनिया से आकर्षण और विकर्षण , आदि -आदि से लेकर ' अत्यंत सूक्ष्म से ले कर स्थूल ' तंतु और तत्व उसकी परवरिश करते हैं |''
कविता जहाँ भाव रस के चिरंतन प्रभाव से काव्य रसिकों को अद्भुत आनन्द प्रदान करती है ,वहीँ कथा स्वतंत्र रूप से किसी चरित्र विशेष को पूर्णरूपेण विस्तार देती है | मानवीय संवेदनाओं को झझकोरना इसका प्रमुख लक्ष्य है |'सबरंग क्षितिज में' कुल मिलाकर पांच कहानियाँ शामिल की गयी हैं | जीवन के विभिन्न संदर्भ इन कहानियों में जीवंत हो , मन में करूणा का प्रादुर्भाव करते हैं | मानवीय सरोकार आधारभूत चिंतन को प्रेरित करते हुए कथानक से आत्मीयता का सम्बन्ध जोड़ते हैं | बेटी और बहु में अंतर को लेकर ,दोहरी मानसिकता का पर्दाफ़ाश करती कहानी में ' सुधा सिंह ' व्याघ्र '' जी ने नारी जीवन की आधारभूत विसंगतियों को उभारा है , जहाँ सास - ससुर का मिथ्याभिमान और दोहरा आचरण एक सुसंस्कृत बेटे - बहु को घर छोड़ने पर मजबूर करता है | 'श्वेता सिन्हा'जी की कथा 'मन्नू 'जहाँ एक लड़की और बच्चे के मध्य निस्वार्थ रिश्ते को इंगित करती है, तो नायिका की सजगता से बच्चाचोर गिरोह का भंडाफोड़ कर समाज की स्याह हकीकत से रूबरू कराती है | इसी तरह 'अपर्णा वाजपेयी ' की कहानी ' तीन शब्दों का कहर ' तीन बार तलाक- तलाक कहकर शादी जैसे पवित्र बंधन की मर्यादा से खिलवाड़ करते पात्रों की मनमानी और भुगतभोगी के अवसाद से लेकर अवसान की व्यथा- कथा है | वहीँ "कैंसर तुम मुझे हरा नहीं सकते ' कैंसर जैसी बीमारी के साथ तन और मन की पीड़ा झेल रही नायिका की कहानी है ,जिसे ;अनीता लांगुरी' ' जी ने लिखा है | बीमारी के कारण , आजीवन साथ निभाने का दम भरने वाले , अवसरवादी प्रेमी के आँखें फेर लेने के बाद जीवन में आई रिक्तता को, कैसे कोई दूसरा आकर, अपने निर्मल प्रेम से भरता है यही कहानी का मार्मिक सत्य है |
इन सबसे इतर'' ध्रुव सिंह एकलव्य ' जी की कहानी साहित्य के पुरोधाओं की कहानियों से होड़ लेती नजर आती है | 'लालटेन महतो का ' आंचलिक जीवन के उस मर्मान्तक पक्ष से अवगत कराती है, जो विपन्नता में जीवनयापन कर रहे लोगों का कडवा सच है | जहाँ आनंदी महतो अपनी जीवन संगिनी को एक अदद लालटेन देने में , खुद को प्रायः असमर्थ पाता है | आनंदी और फुलबारिया का प्रेम उनकी सुखी गृहस्थी की नींव था | शायद फुलबरिया भी पति की क्षमता से वाकिफ थी , तभी उसकी इच्छा मात्र एक लालटेन तक सीमित थी | पर जब लालटेन आती है , तो पत्नी को दिखाने से पहले ही अन्धेरा और कुएं का पानी . पत्नी फुलबरिया का जीवन लील लेता है | जीवन के पैंतालिस साल धधकते पश्चाताप में जलता आनंदी इसी वेदना के साथ दुनिया से विदा हो जाता है , कि वह अपनी पत्नी ' फुलबरिया ' को लालटेन ना दिखा सका | वह लालटेन फिर कभी जलाई नहींगयी | उसके जीवन के साथ ही लालटेन भी बिखर जाती है | ये एक साधनविहीन व्यक्ति के जीवन का शोकगीत है , जो अंत में असीम करुणा और वेदना के साथ , पाठक को स्तब्ध कर कर देता है | अपनी कसी विषय वस्तु और कथानक के कारण ये कथा समकालीन हिंदी कहानी की प्रतिनिधि कहानी मानी जाए ,तो कोई अतिश्योक्ति ना होगी
आज हिंदी में सबसे ज्यादा जो विधा उपेक्षित है , वह निबंध ही है। क्योंकि लेख नीरस विधा मानी जाती है जिसे गंभीर वर्ग के पाठक ही पढ़ते हैं।वैसे भी निबंध नितांत शोध और चिंतन का विषय होते हैं ।दूसरे लेखन में गांभीर्य होना नितांत अनिवार्य है ।निबन्ध लेखन प्राय अवरुद्ध -सा है। यदि कुछेक निबंध लिखे भी जा रहे हैं , उनमें मौलिकता और विषयात्मक मंथन -चिंतन का अभाव पाया जाता है ।इस विधा के मापदंडों पर खरा उतरने वाले नितांत मौलिक दो लेख " सबरंग क्षितिज का हिस्सा बने हैं ,जो 'विश्वमोहन जी' द्वारा लिखे गये हैं लेखों की रोचक शैली पाठक
को शुरू से अंत तक बांधे रखने में सक्षम है | ' ताड़ना के अधिकारी ' लेख गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखी गयी एक चौपाई को नवदृष्टि से आंकने का सार्थक प्रयास है | गोस्वामी जी की, " ढ़ोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी !!!" चौपाई प्रायः बुद्धिजीवियों और नारी समाज के निशाने पर रही है | यहाँ ढोल , गंवार और शुद्र के समकक्ष नारी को प्रताड़ना के अधिकारी बताये जाने पर यदा - कदा विद्वानों की टेढ़ी नजर इस चौपाई पर तनी रहती है | आखिर इतने सुसंस्कारी गोस्वामी जी ने कुछ कथित असहाय वर्गों के प्रति ये संकीर्णता की भावना क्यों रखी ? ना जाने कब से इस यक्ष प्रश्न का उत्तर नदारद है , पर विश्वमोहन जी ने अपने चिंतन - मंथन और बौद्धिक चातुर्य से इस प्रसंग को आंकने का प्रयास कर एक मौलिक चिंतन से साहित्य प्रेमियों को रूबरू कराया है | ' ताड़ना 'शब्द की व्यापकता को उन्होंने एक नए अर्थ में प्रस्तुत कर ताड़ना और प्रताड़ना के अंतर को समझाकर गोस्वामी जी को सदियों के कोप से मुक्त करवाया है | सुधि पाठकों के लिए ऐसे ललित निबन्ध पढ़ना सौभाग्य है और ताड़ना शब्द की नितांत मौलिक व्याख्या जानना अत्यंत रोचक भी | |एक दूसरे लेख''चेतना , पदार्थ और ऊर्जा ' के जरिये , उन्होंने ये बताने का प्रयास किया है कि चेतना आत्मा का विषय है , तो पदार्थ और ऊर्जा भौतिकता का | इस निबन्ध में भी उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस विषय पर बहुत रोचक चिंतन किया है जिसे जानना पाठकों के लिए बहुत दिलचस्प रहेगा | उनकी विद्वतापूर्ण शैली पाठकों के ज्ञानवर्धन में पूर्णतः सक्षम है |
को शुरू से अंत तक बांधे रखने में सक्षम है | ' ताड़ना के अधिकारी ' लेख गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखी गयी एक चौपाई को नवदृष्टि से आंकने का सार्थक प्रयास है | गोस्वामी जी की, " ढ़ोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी !!!" चौपाई प्रायः बुद्धिजीवियों और नारी समाज के निशाने पर रही है | यहाँ ढोल , गंवार और शुद्र के समकक्ष नारी को प्रताड़ना के अधिकारी बताये जाने पर यदा - कदा विद्वानों की टेढ़ी नजर इस चौपाई पर तनी रहती है | आखिर इतने सुसंस्कारी गोस्वामी जी ने कुछ कथित असहाय वर्गों के प्रति ये संकीर्णता की भावना क्यों रखी ? ना जाने कब से इस यक्ष प्रश्न का उत्तर नदारद है , पर विश्वमोहन जी ने अपने चिंतन - मंथन और बौद्धिक चातुर्य से इस प्रसंग को आंकने का प्रयास कर एक मौलिक चिंतन से साहित्य प्रेमियों को रूबरू कराया है | ' ताड़ना 'शब्द की व्यापकता को उन्होंने एक नए अर्थ में प्रस्तुत कर ताड़ना और प्रताड़ना के अंतर को समझाकर गोस्वामी जी को सदियों के कोप से मुक्त करवाया है | सुधि पाठकों के लिए ऐसे ललित निबन्ध पढ़ना सौभाग्य है और ताड़ना शब्द की नितांत मौलिक व्याख्या जानना अत्यंत रोचक भी | |एक दूसरे लेख''चेतना , पदार्थ और ऊर्जा ' के जरिये , उन्होंने ये बताने का प्रयास किया है कि चेतना आत्मा का विषय है , तो पदार्थ और ऊर्जा भौतिकता का | इस निबन्ध में भी उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस विषय पर बहुत रोचक चिंतन किया है जिसे जानना पाठकों के लिए बहुत दिलचस्प रहेगा | उनकी विद्वतापूर्ण शैली पाठकों के ज्ञानवर्धन में पूर्णतः सक्षम है |
माननीय जनों के पुस्तक पर कुछ अनमोल उदगार --
पुस्तक के विषय में कुछ अनुभवी और वरिष्ठ साहित्यकारों ने अपने अनमोल उद्गार शुभकामना स्वरूप दिए हैं , जिन्हें सगर्व पुस्तक के कवर पृष्ठ पर दिया गया है | इनमें सबसे पहला नाम साहित्य और ब्लॉग जगत के अत्यंत अनुभवी और सुदक्ष रचनाकार 'श्री गोपेश मोहन जैसवाल जी 'का है , जिन्होंने पुस्तक के विषय में लिखा है , ''सबरंग क्षितिज - विधा संगम '' की सभी रचनाएँ स्तरीय हैं | उनमें विविधता है , रोचकता है , मौलिकता है और पाठकों के साथ तादात्मय स्थापित करने की विशिष्ठता है | मुझे आशा है और पूर्ण विश्वास भी कि साहित्य जगत में ' सबरंग क्षितिज 'सांझा पुस्तक , स्वयं को स्तरीय तथा मौलिक साहित्य के एक प्रतिष्ठित मंच के रूप में स्थापित करेगी | ''
आदरणीया डॉक्टर कल्याणी कुसुम सिंह जी ने पुस्तक को सराहते हुए लिखा है , '' कि सबरंग विधा संगम की रचनाएँ विविधता से परिपूर्ण हैं | रचनाओं की विविधता , पुस्तक की खूबसूरती है |कुछ रचनाएँ वैयक्तिक सामाजिक अनुभवों की कवितामय अभिव्यक्ति है | सभी रचनाओं में कल्पना की उड़ान , सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार के साथ परिवर्तित युग की आहट है |प्रत्येक कवि - कवियित्री की अपनी अपनी शैली होती है , जो सबरंग क्षितिज पर बिखरने में कामयाब हुई है | ''
अंत में प्रसिद्ध उपन्यासकार डॉक्टर फख़रे आलम खान जी ने लिखा है , कि पुस्तक में लेखकों के समूह को एकत्र करके , साहित्य के लिए नया मार्ग खोला है , जिससे नए व पुराने साहित्यकार , एक दूसरे के निकट आकर , एक दूसरे का साहित्य पढने के बाद , साहित्य संसार में नयी गति आएगी | ''
अंत में -----
यही कहना चाहूंगी | गद्य और पद्य से सजा नवरचनाकारों का संस्कार विधा का ये सामूहिक संगम , ब्लॉग जगत में अपनी तरह का नितांत सार्थक प्रयोग है , जिसके पीछे रवीन्द्र सिंह यादव' जी की अनथक मेहनत और साधना है , जो इस सुंदर पुस्तक के रूप में फलीभूत हुई है | उन्होंने निस्वार्थ भाव से नए रचनाकारों केलिए जो श्रम किया ,वह मुक्त कंठ से सराहने योग्य है |उनके कुशल संपादन में पुस्तक त्रुटिहीन रूप में नज़र आती है |जिस में सभी सहभागी रचनाकारों ने अलग -अलग दायित्व निभाते हुए अपना सम्पूर्ण सहयोग दिया है |प्रतिष्ठित अयन प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक का कवर पेज बहुत आकर्षक और मजबूत है ,जिसकी साज - सज्जा अत्यंत मनमोहक है । इस पुस्तक के सभी सहभागी रचनाकारों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं और रवीन्द्र जी को उनके भागीरथ प्रयास के लिए साधुवाद | आशा है सामूहिक रचना यात्रा का ये क्रम भविष्य में भी जारी रहेगा |