श्री राम भारत की संस्कृति का अभिन्न अंग है और तुलसीदास श्री राम के अनन्य उपासक और श्री रामके चरित्र के अद्भुत गायक कवि हैं -- जिन्हें भक्तिकाल के कवियों में शीर्ष स्थान प्राप्त है | श्री रांम के जीवन का अद्भुत आख्यान ''रामचरितमानस '' न केवल श्री राम के आदर्श रूप को दिखाता है बल्कि इसमें तत्कालीन संस्कृति के विराट दर्शन होते है | मानस की प्रस्तावना में तुलसीदास जी ने खुद को निपट गंवार दर्शा कर अपनी रचनात्मकता का पूरा श्रेय अपने गुरु को दिया है -- पर प्रस्तावना के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में लिखे गए संस्कृत के सात श्लोक और उनमे अपने आराध्यों के प्रति माधुर्य से भरपूर विनम्र प्रार्थनाएँ उनके संस्कृत के कुशल ज्ञाता होने की तरफ इंगित करती हैं -- | इन शलोको के अलावा भी तुलसीदास जी ने पूरी प्रस्तावना में स्वयं को दीन - हीन और निपट अशिक्षित जता कर सारा श्रेय अपने गुरुजनों और दैवीय शक्तियों को देकर अपनी विनम्रता का अनन्य परिचय दिया है |वे अपने बारे में लिखते हैं -------------
मतिअति नीचऊँच रूचिआछी-चहीयअमियजग जुरै ना छौछि--
क्षमहि सज्जन मोरढिठाई-सुनहि बाल वचन मनलाई ||
अर्थात अपने ज्ञानको बहुत छोटा बताते हुए वे कहते हैं की ''मेरी बुद्धि तो बहुत तुच्छ है और आकांक्षा बहुत बड़ी | मेरी इच्छा तो अमृत की है और संसार में छाछ भी दुर्लभ है | फिर भी सज्जन पुरुष मेरी इस ठीठता को क्षमा करते हुए मुझ बालक के वचन मन लगा कर सुनेंगे |
प्रस्तावना में उन्होंने रामायण के सारे पात्रों का का सूक्ष्म चरित्रण किया है और उन्हें गुणों की खान बता कर अपनी अप्रितम श्रद्धा उनके श्री चरणों में उड़ेल दी है | सच ये है कि मानस की प्रस्तावना में से हमें लघु रामायण के दर्शन हो जाते है | भगवान राम भारतीय संस्कृति में प्राण स्वरूप है | उनके उल्लेख के बिना ये नितांत प्राणहीन और श्री हीन है | श्री राम जी के बारे में अनेक कथाएं और किवदंतियां प्रचलित हैं | पर प्रमुख रूप से आदि कवि बाल्मीकि जी के संस्कृत रामायण के साथ उन्ही से प्रेरित गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ''रामचरितमानस '' को राम कथा का शिरोमणि ग्रन्थ माना जाता है | गोस्वामी तुलसीदास जी भक्ति काल के शिरोमणि कहे जाते हैं |'अवधी ' भाषा में लिखा उनका महाकाव्य हिंदी साहित्य की अनमोल रचना है जिसमे श्री राम जी को विष्णु जी के त्रेता युगीन अवतार के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम बताया गया है | गोस्वामी जी ने कथा को सरस और सरल बनाने में कोई कसर नहीं छोडी है | भाषा में अलंकारों का चमत्कृत शैली में प्रयोग किया गया है विशेषकर ' अनुप्रास ' में उनका कोई सानी नहीं है |
तुलसी दास जी ने रामायण की प्रस्तावना में अपनी विलक्षण काव्य क्षमता का भरपूर प्रयोग किया है | उन्होंने सर्वप्रथम संस्कृत में सात श्लोको में अप्रतिम मंगलाचरण की परम्परा का का निर्वहन किया है जिनमे से सर्वप्रथम प्रथम पूज्य गणेश जी और सरस्वती की वंदना की है – तत्पश्चात शिव पार्वती –के बाद अपने गुरुदेव की अनन्य प्रार्थना और वंदना की है चौथे श्लोक में उनकी प्रार्थना वीर बजरंगी हनुमान जी और बाल्मीकि जी को समर्पित है इसके बाद सीता जी को रामाबल्ल्भा के नाम से पुकारते हुए प्रणाम करने के बाद अपने आराध्य श्रीरामजी का चरण वंदन किया है | सातवें और अंतिम संस्कृत श्लोक को उन्होंने राम कथा के स्त्रोत के रूप में बाल्मीकि रामायण को अपने श्रद्धा - सुमन अर्पित किये हैं इसके बाद तुलसीदास जी राम कथा के धरातल पर उतरते फिर से अनेक दैवीय शक्तियों का आह्वान करते हुए उनसे आशीष की गुहार लगाते हुए आगे बढ़ते हैं यहाँ वे अपने आराध्य को बहुत कृपाली दयालु पुकारते हुए कहते है कि ---
मूक होई वाचाल , पंगु चढे गिरिवर गहन |
जासु किरपा सुद्याल , द्रवों सकल कलिमल दहन | |
उन्होंने अपने आराध्य को नील कमल के सामान सुंदर रंग वाला और नव कमल के सामान खुले नेत्रों वाला कहकर पुकारा है | तुलसीदास जी ने अपने गुरुदेव की अनुपम वंदना कर उन्हें कृपा के सागर और सूर्य किरणों का समूह कहकर पुकारा है वे लिखते हैं ------
बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥
इसके बाद विभिन्न देवी देवतायों के साथ उन्होंने समस्त संत समाज को नमन करते हुए उन्हें धर्म का मूल और जग में परोपकार की गंगा कहकर पुकारा है और उनकी चरण वंदना की है \| उन्हें हंस की उपाधि देकर ज्ञान की गंगा पुकारा है जिसमे स्नान करने से कौआ भी हंस बन जाता है वे कहते हैं -------------
मुद –मंगलमय संत समाजू –
जो जग जंगम तीर्थ राजू |
अर्थात मंगल और आनन्द प्रद संतों का समाज संसार में चलते फिरते तीर्थराज के समान है | तुलसीदास जी मंगलाचरण में संतों के सामान ही दुष्टजनो की स्तुति करते नजर आते हैं इसके पीछे उनका बड़ा ही मासूम सा उद्देश्य परिलक्षित होता है -- कि दुष्टजनो को अपनी स्तुति से प्रसन्न कर किसी भावी आपदा से स्वयं को बचा सके --अर्थात विनम्रता की खान गोसाई तुलसीदास जी संसार में सबको समभाव से निहारते हुए राम कथा में आगे बढ़ते कहते हैं कि ----
बहुरि बंदी खलगन सति भाये जे बिन काज दाह्नेहू बाएं |परहित हानि लाभ जिन्केरे –उजरे हर्ष विषद बसेरे ||
अर्थात वे उन दुष्टजनों को भी वन्दनीय मानते हैं जो व्यर्थ में शत्रुता और मैत्री रखते है और दूसरों कि हानि में अपना लाभ और विनाश अर्थात उजड़ने में अपनी ख़ुशी और बसने में दुखी होते हैं | उन्होंने ऐसे लोगों कि तुलना राहू से की है और उन्हें अग्नि और यमराज के तुल्य समझा है और वह कौआ बताया है जिसे कितना भी खीर पुडी खिलाओ वर निरामिष नहीं हो सकता | |अंतमे संत और दुष्टजनों के अंतर को गोस्वामी जी ने बखूबी दर्शाया है संतो को कमल के सामान तो दुष्टों को जोंक की उपाधि देकर फिर से उनकी चरण वंदना कर उन्हें अपने विनम्र होने का सबूत देते हुए एक व्यापक अंतर दोनों के मध्य बड़ी ही सुंदर पंक्तियों में दर्शाना नहीं भूले जो समस्त तुलना का सार प्रतीत होता है -
बिछुरत एक प्राण हर लेहिं मिलत एक दारुण दुःखदेहि
अर्थात एक यानि साधू बिछुड़ने के समय प्राण हर ले जाते हैं और दूसरे यानि दुष्टजन मिलते ही दारुण पीड़ा देने से बाज नहीं आते | अर्थात विनम्र रहते हुए भी गोस्वामी जी ने दुष्टों को खरी खोटी सुनते हुए उनके अवगुणों की समस्त परतें उधेड़ डाली हैं | उनकी विनम्रता को उन्होंने कोरा ढोंग करार देते हुए बताया है कि वे भले ही कितना भी साधू वेश क्यों ना धारण कर ले अंत में उनके इस छद्म वेश की पोल अवश्य ही खुल जायेगी और वे निर्वाह को नहीं अंत को प्राप्त होंगे जैसे कालनेमि , रावण और राहू इत्यादि का अंत इसी प्रकार हुआ था |
इस प्रकार हम देखते हैं कि बड़ी ही निपुण चतुराई से तुलसी दास जी इस अंतर को व्यापकता देते हुए आगे बढ़ते हैं | अंत में वे अपने प्रणेता बाल्मिकी जी की चरण वंदना करते हुए ब्रहमा जी . चारो वेदों , गंगा ,देवता , ब्राह्मण ,सरस्वती , इत्यादि के साथ माता - पिता स्वरूप शिव -पार्वती और रामजन्म नगरी अयोध्याजी को प्रणाम करते हुए अपनी कथा आगे बढ़ाते है | रामचरितमानस की प्रस्तावना से राम कथा का सरस सूत्रपात होता है जो श्रद्धा के पावन पथ से गुजरती हुई अपने आराध्य श्री राम के चरणों तक जा पंहुचती है जो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और भक्त वत्सल हैं , जिनके जीवन के अनेक प्रेरक प्रसंग भारतवर्ष के लोक जीवन में चेतना और भव्य नैतिक मूल्यों का प्रसार करते है | और वैसे भी गोस्वामी जी का कहना है ---
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
अर्थात कलयुग में ना कर्म है ना भक्ति और ना ही ज्ञान है | कलयुग में केवन राम जी का नाम ही एकमात्र अवलंबन है | |
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बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआदरणीय लोकेश जी --- सादर आभार |
हटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/03/62.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआदरणीय राकेश जी --- आपके सहयोग के लिए आभारी रहूंगी | सादर ------
हटाएंबहतरीन
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरनीय ऋतू जी |
हटाएंतुलसी दास और उनके द्वारा रचित राम चरित्र मानस और उसकी prastavna लिखे उनके शब्दों को इतना विस्तार दिया है आपने ... शायद इस prastavna बारे में इतना नहीं लिखा गया है जनमानस में ...
जवाब देंहटाएंपर ये सच है की ईश्वर का हाथ न हो तो ऐसा काव्य नहीं लिखा जा सकता ...
आदरणीय दिगम्बर जी --- ये विवेचना मात्र शुरूआत है | यदि ईश्वर की कृपा रही तो आगे भी कुछ काम करने की इच्छा है | आपके प्रेरक शब्द बहुत मनोबल बढाते हैं | सादर आभार |
हटाएंबहुत बढ़िया विवेचना बधाई रेणु जी
जवाब देंहटाएंप्रिय दीपाली -- आपके शब्दों से बहुत ख़ुशी हुई | सस्नेह आभार |
हटाएंवाह!प्रिय सखी रेनू ,कितना सुंदर विवेचन किया है आपनें मानस का । सत्य कहा ,कलयुग में एक राम नाम का ही सहारा है 🙏
हटाएंबहुत सुंदर रेणु जी
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार रितुजी |
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जवाब देंहटाएंमोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥
भावार्थ-
वे मेरा सब तरह से सुधार लेंगे, जिनकी कृपा कृपा करने से नहीं अघाती। राम से उत्तम स्वामी और मुझ सरीखा बुरा सेवक! इतने पर भी उन दयानिधि ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है।
मुझे तो तुलसीदास जी की अपने इष्ट के प्रति आस्था अद्भुत लगती है रेणु दी।
शुक्रिया शशि भाई, इस गहन विवेचनात्मक विचार के लिए, जो विषय वस्तु को विस्तार देता है।
हटाएंबिछुरत एक प्राण हर लेहिं मिलत एक दारुण दुःखदेहि
जवाब देंहटाएंवाह!!!
रेणु जी शानदार विवेचना की है आपने......आप घर ग्रहस्थी एवं अपने लेखन के साथ रामचरित मानस भी पढ रही हैं
प्रभुकृपा आप पर हमेशा बनी रहे।
प्रिय सुधा जी . हार्दिक आभार इस सारगर्भित विवेचना के लिए |
हटाएंसुंदर गहन विवेचना रेणु बहन तुलसी कृत रामचरितमानस पर आपके उद्गार बहुत सुंदर हृदय तक उतरते हुए।
जवाब देंहटाएंआप एक पाठक ही नहीं विदुषी हो रेणु बहन एक गृहस्थ साधिका।
बहुत बहुत स्नेह साधुवाद।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शुक्रवार 31 मार्च 2023 को साझा की गयी है
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!