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गुरुवार, 29 नवंबर 2018

समाज के अनसुने मर्मान्तक स्वर ----------------पुस्तक समीक्षा- चीख़ती आवाजें - कवि ध्रुव सिंह ' एकलव्य '---




साहित्य को समाज का दर्पण कहा  गया है | वो इसलिए समय के निरंतर प्रवाह के दौरान साहित्य के माध्यम से हम तत्कालीन परिस्थितियों  और उनके  प्रभाव से आसानी से रूबरू हो पाते हैं | सब लोग हर दिन  असंख्य लोगों की समस्याओं और उनके जीवन के  सभी रंगों को देखते रहते हैं शायद वे उनके बारे में सोचते भी हों पर उनकी पीड़ा उनकी  खुशियों को शब्दों में व्यक्त करने का हुनर हर इंसान में नहीं होता , ये कार्य एक कलम का धनी इंसान ही बखूबी कर सकता है | आज रचनाधर्म से जुड़े अनेक लोगों की रचनाएँ हमारी नजर से गुजरती हैं | उनके विषय अनेक हो सकते हैं और उनके भीतर  के स्वर भी अलग -अलग भावों में गूंथे होते  हैं  |  अमूमन हर  कवि या साहित्यकार  की शुरुआत प्रेम विषयक रचनाओं  से शुरू होती है | उसके अस्फुट स्वर प्रेम  को  रचने के लिए    लालायित रहते हैं जो  सपनों की दुनिया में लेजाकर कुछ पल को  पढ़ने   और लिखने वाले  को  अपार  सुकून देता है |  पर कुछ ऐसे रचनाकार भी होते हैं जो किसी के दर्द को देख कभी  खाली  नहीं लौटे और उस दर्द को उन्होंने अपने  अंतस  में संजो इसकी वेदना  अनुभव करने के बाद --  शब्दों में पिरो अनगिन लोगों तक पहुंचाने का स्तुत्य  प्रयास   किया है | ध्रुव सिंह 'एकलव्य 'एक  ऐसे ही  रचनाकार   हैं ,जो समाज के शोषित वर्ग की वेदना की जड़ तक पहुंच उसे रचना में  ढालने का हुनर रखते हैं |    |

ध्रुव सिंह 'एकलव्य '  जी की रचनाओं से मेरा परिचय शब्द नगरी के मंच पर हुआ जहाँ मैंने उनकी पहली रचना पढ़ी तो मैं बहुत प्रभावित हुई, क्योंकि    एक अत्यंत युवा कवि  से बहुत ही संवेदनशील  कविता की उम्मीद प्रायः नहीं होती पर ध्रुव जी का लेखन बहुत ही सधा और शब्दावली  प्रगतिवादी कवियों की याद दिला रहा था  |  उस रचना के बाद भी मैंने  उनकी  कई  रचनाएँ और  पढ़ी , सभी बहुत ही उम्दा  थी और चिंतन परक थी  |   बाद  में   जब  मैंने  जुलाई 2017  में    अपना ब्लॉग  बनाया तो पता चला , कि अपने  ब्लॉग के माध्यम से ध्रुव जी  बेहद सजग और धारदार लेखन कर ब्लॉग जगत में अपनी  अलग पहचान  रखते  हैं  साथ में   साहित्य में  नयी प्रतिभाओं को खोजकर लाने में   निष्पक्ष और प्रभावशाली  चर्चाकार  की  भूमिका अदा कर रहे हैं | मैंने ब्लॉग पर उनकी जितनी भी  रचनाएँ पढ़ी-उनमे कवि  समाज के  उन पात्रों पर पैनी दृष्टि से अवलोकन कर मंथन और चिंतन करता  है जो सदियों से  समाज द्वारा दमित औरउपेक्षित है  |
 पिछले दिनों 'एकलव्य ; जी का  प्रथम  काव्य संग्रह  -- ''चीख़ती-आवाज़ें ''  अस्तित्व में आया  जिसे  पढ़ने का मुझे भी  सौभाग्य मिला  | इस पुस्तक से मुझे    एक  कवि  की  प्रखर अंर्तदृष्टि  से रूबरू होने का अवसर मिला |  इस पुस्तक में  शामिल रचनाओं के माध्यम से   मेरा  प्रकृति और प्रेम की  दुनिया से कहीं दूर  संवेदनाओं के ऐसे संसार  का परिचय  हुआ जो मन को  झझकोरती हैं | सभी रचनाओं   में समाज के शोषित वर्ग की एक मार्मिक तस्वीर सजीव हुई है  | सभी  विषय समाज में अनदेखी का शिकार   वो  करूण  पात्र  हैं ,जिन्हें दुनिया  ने  सदैव  अपनी ठोकर पर रखा | संभ्रांत वर्ग ने जिनके श्रम  के बूते  खुशहाल   जीवन जिया , लेकिन  खुद उनकी पीढियां इसी उम्मीद में खप  गईं  कि उनका जीवन बेहतर करने  कोई मसीहा आयेगा   , पर  ऐसा कोई भाग्यविधाता  उनका  भाग्य  संवारने कभी नहीं आया |    सत्तायें बदली , समय बदला लेकिन  इन अभागों के नसीब नहीं | | उनके प्रति एक  युवा   कवि   ने एक सूत्रधार की भूमिका निभाई है जो उनका दर्द दुनिया को सुनाना चाहता है   , उनकी कहानियां  अपनी रचना में रच  उनके जीवन का कड़वा सच सबके आगे   प्रकट करना चाहता है | ये   अति संवेदन शील रचनाएँ    सोचने पर विवश करती हैं  कि  हम किस समाज में जी रहे हैं ?   इस सुसभ्य और सुशिक्षित  दुनिया में अभी भी इस   शोषित ,  दमित वर्ग  को  औरों की तरह  जीवन  जीने का अधिकार कब मिलेगा ?   इस पुस्तक को  पढ़ने के दौरान मेरा मन अनेक  तरह की संवेदनाओं और   चिंतन से गुजरा  जिसका अनुभव मैं अपने सहयोगी रचनाकारों और पाठकों के साथ बांटना चाहती हूँ |
पुस्तक परिचय -- काव्य संग्रह ''   'चीख़ती-आवाज़ें ' में ध्रुव  सिंह  जी की 42 काव्य रचनाएँ संगृहित की गयी हैं  पुस्तक की भूमिका ब्लॉग जगत के  सशक्त  रचनाकार और  प्रखर चिंतक  आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी ने लिखी है जो  पुस्तक के मर्म को उद्घाटित करते हुए पाठकों के समक्ष  एक  विराट चिंतन का विल्कप संजोती है  |  पुस्तक की  भूमिका निहायत शानदार  बन पड़ी है, जो पाठकों को पुस्तक पढने के लिए प्रेरित करने में सक्षम है | तत्पश्चात  ध्रुव जी ने मात्र कुछ शब्दों में अपने लेखन को  परिभाषित करते हुए  इसे  अपना  सामाजिक  कर्तव्य मानते हुए अपना सुस्पष्ट आत्म कथ्य लिखा है ,जिसमे उन्होंने अपने भीतर व्याप्त  नैतिक मूल्यों का श्रेय अपने  पिताजी के  अनुशासन और न्यायप्रियता के अक्षुण प्रभाव को दिया है | पुस्तक में छपे उनके परिचय से ज्ञात होता है स्वयं एक कृषक परिवार से  होने के कारण कवि कृषक वर्ग की दुविधाओं और पेशेवर विसंगतियों से बखूबी वाकिफ है  | उनके साहित्यिक जीवन  की शुरुआत       उनके  विद्यार्थी जीवन के दौरान काशीहिन्दू विश्वविद्यालय  के प्रांगण से      हुई   - जिसे  साहित्य और दर्शन की उर्वर भूमि कहा  जाता है |वहां से  शुरू हुआ सफर  दिनोदिन उनके सतत अभ्यास और प्रयास से निखर रहा है ,जिसका  एक सुंदर  पड़ाव इस पुस्तक के रूप में आया है |पुस्तक की  कई रचनाएँ  नारी विमर्श को समर्पित है   जो विभिन्न  नारियों के जीवन में व्याप्त पीड़ा और संघर्ष के रूप में   शब्दों में  व्यक्त होते हैं  तो कभी मन को भिगोते हैं तो कभी  उसकी जीवटता पर उसे नमन करने को बाध्य करते  हैं | पुस्तक की पहली ही रचना '' मरण तक ''  में कवि  ने बीडी  बनाने  के लिए  पत्तों  को  ले जाती   एक महिला पात्र   का मर्मस्पर्शी चित्र शब्दों में उकेरा   है जिसे  ट्रेन के सफर के दौरान  देखकर  उसके बदन से उठती  दुर्गन्ध से  नाक सिकोड़ते  लोगों से उसका कहना है  कि आज  वे  लोग   भले ही उसे देखकर  नाक भौं सिकोड़ रहे  हैं  | कल बीडी के रूप में इन पत्तों से धुंए के छल्ले उड़ाते हुए   उन्हें इस दुर्गन्ध का  एहसास  नहीं रहेगा  अपितु   उन्हें  वह तब एक सुन्दरी सी नजर आयेगी |  वह कहती है --
बाबूजी
 मत देखो |
विस्मय से मुझे और
 मेरी  दुर्दशा जो हुई
उन पत्तों को लाने में |
आग में धुआं बनाकर
 जो लेगें कभी
तब दिखूंगी |
सुन्दरी सी मैं !!!!!!!!!!
एक अन्यरचना ''  जुगाड़ '' में    आकंठ गरीबी में डूबी माँ  के जाते यौवन और अनायास खो गयी रूप आभा को बहुत ही मार्मिकता से प्रस्तुत करते कवि लिखता है -
यौवन जाता रहा -
झुर्रियां आती रही 
बिन  बुलाये हर रोज 
आकस्मिक बुलाया 
मेहमान की  बनकर 
प्रसन्न थे हम 
 दिन प्रतिदिन 
खो रही थी वो 
हमें प्रसन्न करने के जुगाड़ में !!!!!!! 
एक  अन्य रचना '' सती की तरह ' में एक नारी के अन्तस् की घनीभूत पीड़ा को  बड़ी स्पष्टता से  शब्द दिए हैं  समाज  ने उसे अदृश्य  वर्जनाओं में जकड़   उसके  मूक और बन्ध्या रूप  को ही  सदैव   मान्यता दी   है |हर दौर में उसके सती रूप को ही पूजनीय  और सम्मानीय   समझा गया , जिससे बाहर आने पर  उसके   समर्पण की गरिमा खंडित मानी जाती है | वो बड़ी वेदना से कहती है --
 मुख बंधे हैं मेरे 
समाज की वर्जनाओं से 
खंडित कर रहे है - तर्क मेरे 
वैज्ञानिकी  सोच रखने वाले 
अद्यतन सत्य ,
 भूत  की वे ज्योति रखने वाले :
इसी तरह  ''महाप्राण  निराला ''   की मूल रचना  वह तोडती पत्थर  की नायिका  को आधुनिक सन्दर्भ    में    एक नई सोच के साथ प्रस्तुत  करते हुए कवि ने अपनी रचना ''फिर वह तोडती पत्थर '' में नैतिकता   मापदंडों से   दूर जाने की विवशता  को उकेरते लिखता है
 अब तोड़ने  लगी  हूँ
 जिस्मों  को 
उनकी फरमाईशों से 
भरते नही थे की तुडाई से ;
अंतर शेष है केवल 
कल तक तोडती थी 
बे - जान से उन पत्थरों को | 
अब तोड़ते हैं , वे मुझे 
निर्जीव सा 
पत्थर सा समझकर !!!!
श्रम  से जीवन यापन करती  एक श्रमी नारी को जीवन मूल्यों की आहुति दे अपने दैहिक शोषण  के  साथ जीना कितना दूभर होता  होगा ये रचना  उस सच्चाई से रूबरू  करवाती है |
 रचना  ''सब्जी वाली ''  में नायिका  दुनिया की  कुत्सित निगाहों का शिकार होती है-- हर  रोज़ और हर पल | लोग  सब्ज़ी से ज्यादा उसकी आकर्षक देह -यष्टि  अवलोकन करते हैं | वह आक्रांत हो वेदना भरे स्वर में कह उठती हैं --
सब्जियां कम खरीदते हैं 
लोग 
मैं ज्यादा बिकती हूँ !!
नित्य ,
उनके हवस भरे चेहरे 
हंसती हूँ केवल यह
 सोचकर 
बिकना तो काम है मेरा 
कौड़ियों में ही सही |
कम से कम 
चौराहे पर बिक तो 
रही हूँ ,
ओ !
  खरीदारों ! 
एक अन्य मर्मस्पर्शी रचना ' दीपक जलाना ' में शिक्षा   के  अभाव में नर्क भोग  संसार से विदा होती बेटी की शिक्षा की अनंत  कामना को  पिरोया  गया है जो बहुत ही मार्मिक शब्दों में माँ  से अनुरोध करती है कि
 स्कूल  की किताबों से भरे बैग 
टांगे मेरे कांधों पर | 
दूसरा  जन्म हो ,
इस तरह 
 विश्वास दिलाना 
 माँ दीपक जलाना !
  क्योंकि बेटी को  पता है  इस  नरक  से बचने का उपाय एक मात्र शिक्षा   है|  उसे  मलाल है कि
काश !  माँ ने     चौके के बर्तन थमाने के स्थान पर    उसके हाथों में कलम पकडाई होती | एक नन्ही बालिका  मुनिया अपनी बकरी को अपने रूप में देखती अपनी ' मुनिया समझती है  और उसके बड़ा ना होने की कामना करती है | ये समाज में जी रही हर बालिका के मन की असुरक्षा को इंगित करता है |

 समाज  का  सबसे शोषित पात्र  ''  बुधिया '' अनेक रूपों में    रचनाओं के माध्यम से साकार होता है |   सड़क बनाने  वाले  मजदूर   के हिस्से में भरसक  मेहनत के बावजूद  भोजन के रूप में दो जून की  सूखी रोटी ही आती है   | एक रचना में  उसकी करुण-गाथा का एक अंश ----
पाऊंगा परम सुख
सुखी रोटी से 
फावड़ा चलाते हुए 
 उबड खाबड़ 
 रास्तों पर | 
समतल बनाना है |सडक
दौडती - भागती चमचमाती  
जिन्दगी के लिए 
जीवन अन्धकार में ,
स्वयं का रखकर | 
किसान'  बुधिया 'की वेदना को उसके खेत के हरे भरे धान  भी अनुभव करते हैं ,  जो  अपने   हाथों  से खेत में घुटनों तक पानी में उन्हें रोपता है  और उनकी लहलहाती फसल को नम आखों से   निहार कर  खुशहाली के सपने सजाता है | वे उन परदेसियों के आगमन से भयभीत है जो उन्हें लेजाने  आयेंगे | वे डरे से कहते है
डरे भी हैं|
प्रसन्न भी
कारण है 
वाज़िब
परदेसियों के आगमन का |
मेहनत बिना ले
 जायेंगे हमको 
हाथों से हमारे
पालनहार के ,
 जिन्हें   हम
'बुधिया '
बाबा कहते हैं | 

तो कहीं  ऊँची   अट्टालिकाओं  से बहिष्कृत एक आम आदमी 'बुधिया 'जो  फूटपाथ  पर आकर खुली हवा में  चैन की नींद  में सोया है  ,का    सुकून भरा दर्द पिरोया गया है |  विडम्बना है , कि किसी समय वह इसी  फुटपाथ पर कूड़ा फैंका करता था जहाँ आज उसे सोने के लिए खुली फिज़ां मिली है | वह इस का पता बताने वाले इन्सान का शुक्रिया अदा करता हुआ कहता है --
भला हो
उस इंसान का
 बताया जिसने
इस    फुटपाथ का  पता
मेरी ही चार  मंज़िलों के नीचे
दुबका पड़ा था
जो |
कल परसों 
कूड़ा फैंका करता था 
जहाँ   |
'बुधिया ' सोता है
 वहीँ |चैन की नींद ,
हमारी फैंकी हुई 
दो रोटी खाकर 
बड़े आराम से | 
पेट की भूख ही सब गुनाहों  और सांसारिक कर्मों  का मूल है | अगर ये ना हो तो कोई  मजदूरी सरीखा असाध्य का कर्म क्यों करने पर विवश हो  ? यही प्रश्न करता एक आक्रांत श्रमिक --

बुझ जाए

 ये आग 
सदा के लिए 
 ताकिआगे  कोई मंजिल 
निर्माण की 
 दरकार ना बचे 
कभी 
  अंत में यही कहना चाहूंगी कि भौतिकता की दौड़ में अंतहीन  मंजिलों की ओर भागते   युवाओं  के बीच एक  अत्यंत प्रतिभाशाली युवा कवि का समाज के विषय में ये  संवेदनाओं से भरा चिंतन शीतलता भरी बयार की तरह है , जो ये सोचने पर विवश करता है कि हम   क्यों समाज का वो सच देखने  की इच्छा   नहीं रखते -जो हमारे    आँखें फेर लेने के बावजूद भी समाज का  सबसे मर्मान्तक सच   है  |  कवि ने  उस नंगे सच को  देखने का सार्थक प्रयास  किया है | अपने आत्म कथ्य को  कवि ने ''  मैं फिर उगाऊँगा '' सपने नये ''  नाम दिया है || सचमुच  प्रखर   कवि ध्रुव सिंह  'एकलव्य ' साहित्य समाज में   सामाजिक चिंतन  का एक नया अध्याय  लेकर आये हैं  ,  जिनकी   धारदार कलम   के साथ पैनी  अंतर्दृष्टि  बहुत  प्रभावित   करती   है  |  ये   भीतर की सुसुप्त संवेदनाओं को जगाने का काम  भी करती है  और  उस अधूरे सामाजिक न्याय पर भी ऊँगली  उठाती  है,  जिसमें  समाज का शोषित तबका बस शोषित ही बनके रह  गया है  |   बहुमंजिला इमारतों को  गगनचुम्बी बनाने  का   कवायद  में  उम्र भर  मेहनत करते' बुधिया  ' सरीखे  पात्रों  को कभी अपनी एक छत नसीब नहीं होती    -- ये क्या  विडम्बना  नहीं  है ? 
    रचनाओं को    बड़ी  सरल भाषा   में बड़ी सतर्कता से लिखा गया है  |   पाठक की  संवेदनाएं   बड़ी आसानी से इन रचनाओं  के  पात्रों  से  जुड़ जाती हैं |  काव्य - संग्रह   में उर्दू ,  हिन्दी   के शब्द विशुद्धतम  रूप में नज़र आये हैं ,जिसके लिए कवि ध्रुव  अत्यंत सराहना के पात्र हैं | 
 नए  कवि के  रूप में  ध्रुव सिंह  जी  के    प्रथम काव्य - संग्रह  '' चीख़ती-- आवाज़ें '' का हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिए | उनका साहित्यानुराग अनुकरणीय  है | अपनी आजीविका के साथ - साथ साहित्योपार्जन सरल कार्य नहीं | ना जाने  कितनी  लगन  और  समर्पण  से ये शब्द संपदा अर्जित होती है !  उनकी इस अप्रितम उपलब्धि पर मेरी तरफ से उन्हें   सस्नेह हार्दिक बधाई और शुभकामनायें |  माँ सरस्वती उन्हें   साहित्य पथ पर चलने की अदम्य शक्ति  प्रदान     करती रहे | 
साहित्य प्रेमी पाठकों  और रचनाकार सहयोगियों से   - पाठकों से विनम्र आग्रह है ,कि जिन सहयोगियों की पुस्तकें प्रकाशित हों, उन्हें उनकी  पुस्तक खरीदकर प्रोत्साहित करें  | | इस तरह  रचनाकार को  स्नेह के रूप अतुलनीय प्रोत्साहन    दें और       पुस्तकों के  अस्तित्व को बचाने में  सहयोग  करें | आज माना  पुस्तक पढने के लिए पर्याप्त समय नहीं पर  कल  जरुर होगा | और वैसे भी  सस्ती से सस्ती चीजों से सस्ती हैं हिन्दी की पुस्तकें | साभार | 

शनिवार, 17 नवंबर 2018

वो एक रात के अतिथि -- संस्मरण -


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जनवरी 1996 की बात है |कडकडाती    ठंड में उस दिन  बहुत  जल्दी धुंध बरसने लगी थी और  चारों तरफ वातावरण धुंधला जाने से  थोड़ी सी दूर के बाद कुछ भी साफ दिखाई नहीं देता था |   इसी बीच हमारे दरवाजे पर  किसी ने दस्तक दी तो देखा  एकअत्यंत बूढ़े बाबा    खड़े थे जिनकी पीठ पर  एक गट्ठर लदा था | बाबा    ठंड से ठिठुरते हुए  मानों पीले पड़ चुके थे और उनके मुंह से कोई बात  नहीं निकल पा रही थी | यद्यपि  उनके  शरीर  पर ठण्ड  के मौसम के लिए पर्याप्त  कपड़े थे |   वे  पैरों में बहुत ही घिसी सी चप्पल पहने थे | उन्होंने  चाय   पीने  की इच्छा जाहिर की ,  जिसे वे बड़ी मुश्किल से कह पाए | मेरे पिताजी उस समय घर पर ही थे | उन्होंने बाबा को घर के अंदर बुलाकर ,  बरामदे में पडी खाट पर बिठायाऔर  उनके लिए  सेकने  के लिए आग मंगवाई | आग   सेकने  और गर्म चाय पीने के बाद  उनकी  ठण्ड  थोड़ी उतरी और वे आसानी से बोल  कर बता पाए कि    उनका  नाम हाज़ी अली है और   वे एक  कश्मीरी शाल विक्रेता हैं  |अपने  अन्य शाल विक्रेता साथियों से  अनजाने में बिछुड़  कर रास्ता भूल गये हैं | उन्होंने पिताजी से निवेदन किया कि वे उन्हें ऐसी  किसी धर्मशाला  इत्यादि का  रास्ता बता दें जहाँ वे  रात गुजार सकें  ,क्योंकि इस समय  तक  उनके साथी तो  स्थान पंचकूला  लौट चुके  होते थे , जहाँ से वे रोज शाल बेचने के लिए बस द्वारा  आते थे | मेरे पिताजी ने उन्हें हमारी बैठक जो कि हमारे घर से थोड़ी ही दूर है - में रात गुजारने की   बात कही , जिसे बाबा ने सहर्ष  मान लिया | उसके बाद  पिताजी बाबा को लेकर लेकर बैठक में चले गये और उनके लिए बिस्तर   की  व्यवस्था की    |हमें उनका रात का भोजन   बैठक में  ही  पंहुचने के लिए कहा |भोजन करवाने के बाद पिताजी ने बाबा  को आराम से सो जाने के लिए कहा | उन्होंने  बाबा की शालों   का गट्ठर कमरे में बनी अलमारी में रख दिया  |     पिताजी ने देखा बाबा रात को आराम से सो नही पा रहे हैं  और लिहाज़वश कुछ कह भी नही पा रहे |   पिताजी उनकी  आशंका समझ गये और उन्होंने बाबा का गट्ठर उनके पास उनकी  खाट पर रख दिया  जिसके बाद ही वे चैन की नींद सो   पाए |   सुबह उठकर  पिताजी ने उनके लिए चाय- नाश्ता आदि पहुँचाने के लिए  मुझे कहा तो मैं बैठक में बाबा  के लिए नाश्ता लेकर गई | मैंने देखा  बाबा इत्मिनान से बैठे थे और मेरे पिताजी को  बहुत कृतज्ञतापूर्वक  धन्यवाद दे रहे थे | उन्होंने हमें बताया कि  कई साल पहले  उन्हें एक राज्य विशेष में  इसी तरह   रास्ता भूल कर किसी के घर ठहरना   पड़ गया    |घर के मालिकों ने इसी तरह उनके गट्ठर को अलमारी में रख दिया और सुबह जब गट्ठर उन्होंने देखा तो  इसमें  से चार -पांच शाल गायब थी | उस दिन के बाद वे किसी के घर नहीं ठहरे और ना ही उस राज्य  के लोगों का  विश्वास किया |  मेरे पिताजी  को उन्होंने  बहुत दुआएं दी  |  मुझे भी बहुत स्नेह भाव  से  आशीर्वाद दिया  और बोले  कि जब तुम्हारी शादी हो जाए तो कश्मीर आना तुम्हे बोरी भर अखरोट दूंगा | उन्होंने पिताजी को एक  कागज़ के पुर्जे पर अपना पता लिख कर दिया और कहा कि वे कश्मीर आयें और उन्हें भी मेज़बानी का मौक़ा दें | थोड़ा दिन चढ़ जाने के बाद पिताजी ने मेरे छोटे भाई को साईकिल  पर  बाबा को बस स्टैंड  पर छोड़ने   भेजा जहाँ  पंचकूला  से उनके साथियों का दल   बस से नौ बजे पंहुचने वाला था |  बाबा   हमारे राज्य और पिताजीको  को सराहते हुए  बड़ी सी मुस्कान के साथ रुखसत हो गये  | मेरे पिताजी जब तक  रहे वे कहते थे वो बाबा कोई दरवेश थे  जो उन्हें दुआ  देकर चले गये क्योकि  फरवरी में ही पिताजी को हार्ट अटैक  आया और वे बाल -बाल बच गये |
 चित्र -- गूगल से साभार -- 
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मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

भूली बिसरी पाती स्नेह भरी --[ विश्व डाक दिवस ]



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विश्व डाक दिवस -- आज विश्व डाक दिवस है | इस दिन के बहाने से   चिट्ठियों के उस  भूले बिसरे संसार  में  झाँकने  का मन हो आया है  ,जो अब गौरवशाली अतीत  बन  गया है | भारत में राजा रजवाड़ों के समय में संदेशों का आदान - प्रदान  विश्वसनीय  सन्देशवाहकों के माध्यम से होता था  जो पैदल या घोड़ों आदि के माध्यम से अपनी सेवाएं देते थे  | लेकिन ब्रिटिश राज में 1864  में इस     व्यवस्था  को सुव्यवस्थित  ढंग से   शुरू  करने का प्रावधान किया गया और डाक विभाग की स्थापना हुई 
a | आजादी से पहले और आजादी के बाद के   ढेढ़  सौ   से भी ज्यादा  सालों  में जनमानस से जुड़कर  डाक  विभाग  ने , लोंगों का  बहुत ही सम्मान और   स्नेह अर्जित किया है,  इसका कारण रहा,डाकविभाग ने  समय के अनुसार  लोगों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए अपनी   कार्यप्रणाली में परिवर्तन करने से परहेज नहीं किया , जैसे  कल के कागजी  इतिहास  को छोड़कर डाक विभाग भी  डिजिटल  होने की पूर्णता के पथ पर अग्रसर है | पर पत्रों का वह स्वर्णिम इतिहास  भुलाये नहीं भूलता | 

पत्र भावनाओं  का   अहम  दस्तावेज -- पत्र सदियों से हर  आम और खास  के लिए अपने जज्बात जाहिर करने का सर्वोत्तम   माध्यम रहे है | किस्से कहानियों में सुना जाता है , कि पुराने समय में इंसानों के साथ -साथ    कबूतर  भी संदेश  इधर -उधर पहुँचाने का  काम किया करते थे|   पत्र  किसी भी विषय पर हो सकते  हैं,  पर   सदैव ज्यादा महत्व निजी पत्रों का ही रहा  मैं इन्हें आत्मीयता  के सघन उच्छ्वास  के नाम से पुकारना चाहूंगी क्योकि  निजी पत्र लेखन  में पत्र -लेखक ने  सदैव ही     अपने निंतात  मौलिक  रूप का परिचय दिया | उसने वो लिखा जो उसने लिखना चाहा , बिना  लागलपेट  के   अपनों  के प्रति वो जताया , जो मौखिक  रूप में कहना  कभी संभव ना होता |साहित्य में भी  पत्रलेखन को  अहम विधा मानकर उसे   सर्वोच्च स्थान दिया गया|
पत्र   पर कविता   और  शायरी खूब हुई   |  अनेक साहित्यकारों के पत्रों को  साहित्य में  वो स्थान मिला जो उनकी रचनाओं को भी नहीं मिला होगा |  कई साहित्य -साधकों ने   इन पत्रों को संजोने और संग्रहित करने का स्तुत्य प्रयास किया और  इस अनमोल थाती को आने वाली पीढ़ियों के लिए संभाल  कर रखा |  हिंदी की कहें तो हिंदी साहित्य में  आदरणीय  बनारसीदासचतुर्वेदी जी ने उत्तम  रचनाकारों के  पत्रों को सग्रहित करने के लिए  बाक़ायदा   '' पत्रलेखन  मंडल  '' की स्थापना की  जिसमे अन्य लोगों केअलावा हिंदी    के सशक्त हस्ताक्षर  माननीय शिवपूजन सहाय जी भी शामिल थे | उन्होंने विभिन्न साहित्यकारों के पत्रों को  संभालकर रखने और छपवाने में अहम्  भूमिका  अदा की | उर्दू    साहित्य के  पुरोधा शायर     मिर्जा ग़ालिब , जिनका पूरा नाम  मिर्जा असदुल्लाह बेग खान  था ,  के पत्र उर्दू  साहित्य  के  अनमोल दस्तावेज माने जाते हैं | उनके बारे में कहा जाता है , कि शायर के रूप में   प्रसिद्ध ना भी होते तो  उनके पत्र  ही उन्हें  उर्दू साहित्य  में अटल  स्थान दिलाने के लिए  पर्याप्त थे |  इन खतों में उनके लेखन का उत्कृष्ट रूप नजर    आता है , जिनमें अनेक  अमर आशार इन्ही पत्रों के माध्यम  से कहे  गये|  विशेष लोगों  के साथ साथ आम लोगों ने भी  सदियों पत्र  लिखने ओर पढने के आनन्द को भरपूर जिया |
मोबाइल ने बदला परिदृश्य -------  जब तक आम जीवन में  सोशल  मीडिया  की घुसपैठ नहीं हुई थी - पत्रों ने  भावनाओं के अनगिन रंगों से जनमानस को खूब सराबोर किया |  तेजी से बदलते  समय    में भले ही आज हर   शहर  और  गाँव के प्रमुख कोने  पर मौन सा खड़ा डाक - विभाग का लाल डिब्बा अप्रासंगिक हो गया हो पर  किसी समय में इसका बहुत महत्व था | यदा - कदा  इसका  ताला खोलते ही डाक कर्मचारी की सांसे फूल जाती होंगी  -- इतनी डाक  के रूप में अनगिन चिट्ठियाँ  सँभालते || डाक विभाग के  इस अनथक कर्मी की भूमिका  सीमा पर   डटे  जवान  और  खेत में   जुटे  किसान से किसी भी तरह  कम नहीं थी | ठिठुरती ठंड हो या   चिलचिलाती  गर्मी  किसे भी मौसम में  इसका काम था लोगों तक समय पर  संदेश पहुँचाना

विशेष लोगों के निजी पत्र भी रहे उल्लेखनीय --   महात्मा गाँधी जी   के और लोगों के साथ अपनी पत्नी  कस्तूरबा गाँधी जी को लिखे निजी पत्र बहुत प्रसिद्ध हुए तो जवाहरलाल नेहरू जी  के अपनी सुपुत्री इंदिरा गाँधी  के नाम लिखे  पत्रों के माध्यम से हम उन्हें राजनेता की छवि से बिलकुल अलग  एक आम पिता के रूप में जान सकते हैं,   कि  उनकी अपनी सुपुत्री से क्या अपेक्षाएं  थी और वह उन्हें   सही मार्ग पर चलने के लिए कैसे प्रेरित करना चाहते थे | इनमे से ज्यादातर पत्र नैनी जेल से लिखे गये | ये पत्र मूलतः अंग्रेजी में थे |ये जानना रोचक रहेगा कि  इन पत्रों का हिन्दी में अनुवाद  हिन्दी  के सुप्रसिद्ध  साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद ने किया था |स्वामी  विवेकानन्द के पत्र  भारत वर्ष की सांस्कृतिक धरोहर हैं | 


जुडी  अनेक यादें --- मुझे याद है      मेरी माँ ने पांचवी या छठी कक्षा  के दौरान , मुझे मेरी    बुआ जी  के पत्र के  प्रतिउत्तर  में पहली बार पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया |  बुआ जी ने  भी  उस अनगढ़ पत्र का उत्तर अत्यंत स्नेह  से दिया |  उसके बाद घर  की ओर से पत्राचार तकरीबन मेरे जिम्मे हो गया | घर के  अलावा -  हमारे गली पडोस में जिन  लडकियों की घर में  छोटी बहन नहीं थी - उनकी शादी के बाद  उनके लिए  पत्र लिखने का सौभाग्य भी मुझे ही  मिलता रहा |  मुझे याद है बचपन में हमारी तीनों    बुआ के पत्रों की हम किस तरह   राह देखा करते थे करते थे - जिनमे से दो बुआ की अत्यंत  सुंदर   लिखाई से ही  गाँव के डाकिया    चाचा  हमसे पहले ही बता देते थे कि हमारी कौन सी बुआ का पत्र आया है |  मेरे आंठ्वी  कक्षा और छोटे भाई के पांचवी कक्षा में  उत्तम परिणाम के साथ वजीफा अर्जित करने पर  हमारी छोटी बुआ जी ने  बम्बई से  भाई के लिए हाथ से बुना स्वेटर और मेरे लिए अलार्म घड़ी भेजी थी  | उसका  मुकाबला   अमेजोन  और   फ्लिप्कार्ट     से खरीदी गयी      महंगी  चींजे कभी नहीं  कर  कर  सकती |याद आता है मेरी दादी के नाम आया उनकी माँ द्वारा लिखा गया पत्र  , जिसे वे अपने कीमती सामान की तरह   हाथी दांत की  नक्काशी वाली अपनी छोटी सी संदूकडी में  बड़े जतन से संभालकर रखती    थी  | उनके    दुनिया से जाने के बाद ये  अनमोल थाती मेरे पास सुरक्षित है |

हर नववर्ष  और  दीपावली पर   रंग बिरंगे कार्डों  का वो रोमांचक सतरंगी संसार   स्मृतियों  से कहाँ ओझल हो  पाता है ! कितनी उमंग  से अपनी  बुआओं , ननिहाल और सहेलियों के लिए अच्छे से अच्छा      शुभकामना संदेश वाला कार्ड ढूंढने की  वो  अनथक कवायद   इतनी   रोमांचक  थी कि उसके आगे     मोबाइल  व्हात्ट्स  अप्प और इंटरनेट के ईमेल संदेश   बिलकुल फीके हैं  --  क्योकि  वे कार्ड और शुभकामना संदेश कुछ अपनों के लिये होते थे,  जिनमे  भावनाएं निर्झर सी बह  एक मन से  दूसरे मन  में  अनायास प्रवेश  कर  जाती थी , जबकि  आज  हर त्यौहार और नववर्ष के संदेश मात्र एक औपचारिकता बनकर रह गये हैं |  भले  इनमे से कुछ बहुत ही आत्मीयता के साथ भेजे जाते हों , पर उनमे वो गर्मजोशी   नहीं है | डाकिया को शुभसमाचार लाने पर पुरस्कृत करने की उत्तम परम्परा  भी  अलोप हो चुकी है|

बदली डाकिये की भूमिका --- बदलते समय में अब कोई पलक पांवड़े बिछाकर      डाकिये  का इन्तजार नहीं करता | उसकी बदली भूमिका में , उसकी जगह   क़ानूनी  नोटिस  , नौकरी से संबधित  पत्र अथवा कोई जरूरी सामान का कोरियर  इत्यादि पंहुचाने के लिए सीमित  हो गई है | भावनाओं से भरे
पत्रों का भरा  डाकिये  का  थैला अब  बीते समय की     बात हुई |  नीले रंग  के अंतर्देशीय पत्र , पीलेरंग  के लिफाफे और रंगीन बॉर्डर से सजे  एरोग्राम अब  कहीं  देखने में नजर  नहीं आते |  कोने से  फटा  पोस्टकार्ड अब किसी के आकस्मिक निधन का दुखद  समाचार लिए  डराने  नही आता  -- अब तो किसी दुखद  घटना का समाचार   तुर्त- फुर्त फोन से  ही  मिल जाता है |

 इस  परम स्नेही  डाकिया   के   गौरवशाली अतीत को स्मरण  करते हुए  हमारे प्रबुद्ध  सहयोगी रचनाकार आदरणीय रविन्द्र सिंह यादव जी ने अत्यंत  भावपूर्ण कविता लिखी है जिसकी कुछ पंक्तियाँ साभार लिखना चाहूंगी --


कभी बेरंग खत भी आता था 
पाने वाला ख़ुशी से  दाम  चुकाता  था 
डाकिया सबसे प्यारा मुलाजिम होता था 
 राज़, अरमान  , राहत .   दर्द , रिश्तों की  फ़सलें बोता था 
डाकिया  चिट्ठी  तार पार्सल  रजिस्ट्री  मनीआर्डर लाता था 
डाकिया कहीं ख़ुशी कहीं  गम के सागर लाता था 

आज भी  डाकिया आता है  

 राहत कम आफत ज्यादा लाता है 
पोस्टकार्ड  नहीं रजिस्ट्री ज्यादा लाता है 
खुशियों का पिटारा नहीं 
 थैले में   क़ानूनी नोटिस  लाता है |  

फिल्मों  में मिला अहम स्थान --- फिल्मों  में भी    डाकिये को हमेशा   सर माथे पर बिठाकर  उसपर अनगिन गाने रचे गये , तो खत  को भी फ़िल्मी गीतों में महत्वपूर्ण स्थान मिला'|  पलकों की छाँव में '' के मासूम    सरल ,   निश्छल   डाकिये    को कौन भुला पायेगा  जिसके '' डाकिया  डाक लाया '' गाकर   अलबेले  , मस्ताने  डाक बाँटने  के    अंदाज   ने  हर  सिने प्रेमी के मन में    अक्षुण  स्थान बनाया  , वहीँ '' नाम '' फिल्म के   नायक के साथ  अनगिन अप्रवासी  भारतियों को  अपनी मातृभूमि का स्मरण कराता गीत -- चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है ''    हिंदी सिनेमा के   सदाबहार  गीतों में शुमार किया जाता है | सरस्वती चन्द्र  के''  फूल          तुम्हें भेजा है ख़त में    तो    नीरज द्वारा लिखा गया अमर गीत '' लिखे जो खत तुझे - वो तेरी याद में ''  और संगम  फिल्म  का '' ये मेरा प्रेम पत्र पढ़ करके तुम नाराज ना होना '' प्रेमासिक्त मन की मधुर मनुहार है | इसके अलावा--   शक्ति फिल्म का '' हमने सनम को खत लिखा '' अपनी तरह का एकमात्र गीत है | इसी तरह तुम्हारी कसम फिल्म का --  ''हम दोनों मिलके कागज  पे दिल के - चिट्ठी लिखेंगे जवाब आयेगा ''  जैसे  गीत सिने जगत की अनमोल थाती कहे जा सकते हैं , जो पत्रों के गौरवशाली अतीत  की गाथा बनकर सदियों हर दिशा  में गूंजते रहेंगे    और  इस 'ख़त  ' नाम के भावनाओं से भरे दस्तावेज के  अचानक  समय  के परिवर्तन  की लहर  के बीच विलुप्त हो  जाने के     कसकते अहसास को        याद दिलाते  रहेंगे |
एक चिट्ठी मेरी डायरी से -- 22 साल पहले मेरी शादी के बाद पहली बार जब मेरी बड़ी  बहन   की चिट्ठी  आई तो मायके की यादों से कसकते   भावुक  मन से मैंने उसे प्रतिउत्तर में एक कविता  लिख  दी जो मैंने संकोचवश  भेजी तो नहीं पर मेरी डायरी में पड़ी रही  जिसे  आज यहाँ लिखने का मन हो आया है ---


 फिर आज तुम्हारी पाती से 

कई बिछुड़े पल याद आये ; जो जाके के लौट ना पाएंगे - वो परसों और कल याद आये | 

  भूल चले   थे   गीत   कई , सहसा फिर से याद आये , मुस्काए अधर  यूँ  बरबस    -     मेघ सजल  पलकों पर छाए , जो  पल - पल    मन महकाते हैं - खुशियों के कोलाहल याद आये !!

  स्नेहिल स्पर्श वो माँ का मन को छू जाता है ,हूँ  दूर भले पर दूर नहीं -ये चुपके से  कह जाता है; जो  स्नेहाश्रु छलकाते थे - वो नैना निर्मल याद आये !!

 कागज के सीने से लिपटा - ये स्नेह तुम्हारा अनुपम है - इस ममता का ना मोल कोई-   बाकी जग  सारा      निर्मम है ;इस प्यार को याद करूँ तो बस - माँ का  आँचल  याद आये !!!!!!




अंत में यही कहना चाहूंगी कि शायद इस सूचना  और तकनीकी क्रांति के इस युग में भी   भावनाओं की सुगंध  में भीगे पत्र    शायद कोई किसी   के नाम लिखता हो  और कोई एक तो शायद भाग्यशाली ऐसा जरुर होगा  जिसके नाम कोई   प्रेम भरी पाती  आई होगी |
काव्यांश ---- डाकिया   साभार-- /www.hindi-abhabharat.com
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धन्यवाद शब्दनगरी ---


रेणु जी बधाई हो!,

आपका लेख - (भूली बिसरी पाती स्नेह भरी --[ विश्व डाक दिवस ]) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
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पाठकों के लिए विशेष -- कभी ख़त यूँ भी लिखवाये जाते थे-------   जिन्हें     डाक बाँटने   वाले अत्यंत   विश्वसनीय डाकिया बाबू ही लिखते थे | डाकिया बाबू को सांवरिया के नाम खत लिखने का  स्नेहिल  आग्रह  करती   ''आये दिन बहार के '' की     निर्मल मना  नायिका  के मधुर , सरस बोल  किसे भा ना जायेगें ---- जो कितने आग्रह से कह रही है --------
''  खत लिखदे सांवरिया के नाम बाबू -- कोरे कागज पे  लिखदे   सलाम बाबू -
वो जान जायेंगे पहचान जायेंगे--  कैसे होती है सुबह से शाम बाबू !!!!!!!!!!!!! ''
मेरा आग्रह जरुर सुने |



गुरुवार, 30 अगस्त 2018

अन्तरिक्ष परी - कल्पना चावला

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चित्र--- अपनी चिरपरिचित  गर्वित मुस्कान के साथ कल्पना चावला --
परिचय भारत  की अत्यंत साहसी और कर्मठ बेटियों  का जिक्र बिना  कल्पना चावला के कभी पूरा  नही  होता |  उन्हें  भारतीय मूल की पहली   महिला  अन्तरिक्ष -यात्री होने का  गौरव प्राप्त है|   कल्पना  चावला   भारतीय  नारी का वो चेहरा  है जिसने  अपनी विलक्षणता और  निरंतर लगन से अपने कर्तव्यपथ पर अग्रसर रहकर आम लड़की  को  नयी पहचान दी है | वे आम भारतीय परिवार में उस समय जन्मी जब  समाज में नारी की शिक्षा के प्रति  अधिक जागरूक नजरिया   नहीं था | आम परिवारों में उस समय बेटियों के सपनों का  कोई  मूल्य नहीं था |सपना भी इतना अद्भुत अर्थात  एरोनाटिक इंजिनियर    बनने का  , जो   उस समय  सिर्फ पुरुषों के वर्चस्व का क्षेत्र था   |  लेकिन कल्पना भाग्यशाली रही कि वे खुद तो बहुत ही लगन शील थी ही -उन्हें ईश्वर ने ऐसे माता  -पिता  भी  दिए,  जिन्होंने बेटी के सपनों को साकार करने में कोई  कसर नहीं छोडी  |    उन्होंने उसे अपने सपने साकार करने का पर्याप्त अवसर   और सहयोग दिया   |नारी के शनै - शनै  हो रहे उत्थानकाल में  वे  एक प्रेरणा पुंज की भांति  अवतरित हुई और देखते ही देखते  अपनी अद्भुत प्रतिभा के चलते -अपने नगर , राज्य  , और देश को छोड़कर कर  विश्व की समस्त   नारी जाति के लिए  एक आदर्श महिला बन गयी |उन्होंने अपनी अथक मेहनत से अपने सपनों की सबसे ऊँची उड़ान भरी | | कल्पना अपनी  जुझारू प्रवृति  के लिए तो  प्रसिद्ध है ,  साथ में अपनी सरलता और सादगी केलिए भी जानी जाती है |वे  एक गम्भीर श्रोता  और संकोची स्वभाव की मितभाषी   लडकी थी | उन्हें वैभवशाली जीवन से मोह नहीं था | 'सादा जीवन उच्च विचार 'की  परम्परा  का निर्वहन करते हुए उनकी दृष्टि   हमेशा   अपने लक्ष्य पर रही |उन्हें  ना  भौतिकता से  मोह था ,   ना किसी बनावटी जीवनशैली से |उनकी प्रतिभा के साथ - साथ उनकी सादगी   भी प्रेरक है | उन्होंने एक साधारण बालिका से  ले कर अन्तरिक्ष यात्री  का शानदार जीवन जिया और अपने जीवन को  हर स्वप्नदर्शी बालिका के लिए प्रेरणा  का प्रतीक बनाया |
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चित्र -- पति और परिवार के साथ कल्पना 
जीवन परिचय -  हरियाणा राज्य के छोटे से शहर  करनाल में 17 मार्च 1961 को  एक मध्यमवर्गीय परिवार में कल्पना का जन्म हुआ |  माता - पिता की चार संतानों में वे सबसे छोटी थी | उनके पिता  श्री बनारसी  दास  चावला और  माँ का नाम संजयोती  था |    कल्पना को बचपन में मोंटी नाम से पुकारा जाता था ,पर जब उन्हें  स्कूल में दाखिला ले दिलवाने के लिए ले जाया गया तो स्कूल की अध्यापिका ने उन्हें  उनके प्यार के नाम से अलग  तीन  सार्थक नाम  सुझाये,  जिनमे से उन्होंने 'कल्पना' नाम को चुना , इस तरह से --नन्ही मोंटू ' को   अपना ही चुना  'कल्पना ' नाम मिला जो उनके लिए  अत्यंत  शुभ और सार्थक रहा |अपनी उम्र के दूसरे  बच्चो से काफी भिन्न  कल्पना को  सितारों की दुनिया से  विशेष अनुराग था | अपने बचपन में वे अक्सर  छत पर बैठ विशाल आसमान को  निहारा करती  और उनकी ही कल्पना में गुम रहती | शायद उनका  सितारों की दुनिया से ये लगाव  ही -उनके   भविष्य के  जीवन के लिए कहीं ना कहीं  भूमिका   तैयार कर रहा था ,  साथ में  एक  दैवीय  संकेत भी था  कि उन्हें अंततः  किसी दिन इसी विराट अन्तरिक्ष का हिस्सा हो जाना था कल्पना चावला को शुरू से ही जे आर डी टाटा के जीवन ने बहुत ने बहुत प्रभावित किया और वे उनके बहुत बड़े  प्रेरणा स्त्रोत रहे | शायद इस लिए भी कि वे एक सफल उद्योगपति तो थे ही , साथ में एक सुदक्ष पायलट  भी थे और अपने अदम्यसाहस और जुझारूपन के लिए जाने जाते थे |   सौभाग्य से करनाल एक छोटा शहर होते हुए भी उन गिने  चुने  शहरों में से एक है जिसमे  उन दिनों भी एविएशन क्लब था | कल्पना का मन  उस क्लब के छोटे -छोटे विमानों में यात्रा करने  को मचलता था | उनके पिताजी एक दिन उन्हें उनके भाई के साथ  छोटे से  विमान से  हवाई यात्रा करवाई |ये उनकी हवाई यात्रा का पहला अनुभव था |  शायद इसी रोमांचक अनुभव   ने कल्पना  को इस क्षेत्र  में आने के लिए निरंतर प्रेरित किया होगा| 
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चित्र --- कल्पना चावला  एक मनमोहक मुद्रा में 

शिक्षा --बचपन से  अत्यंत मेधावी छात्रा रही कल्पना  ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा करनाल के ही '' टैगोर बाल निकेतन  स्कूल  '' से पूरी की, जो आज भी अपने गौरवशाली इतिहास पर गर्वित कल्पना चावला के स्कूल के नाम से जाना जाता है  

 |उन्होंने पढाई के लिए कोई समझौता नहीं किया  |स्कूल के बाद उन्होंने  1982 में  चण्डीगढ़ के पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज से '' एरोनाटिकल इंजीनियरिंग '' की  डिग्री प्राप्त  की |डिग्री धारण  कर घरवालों के विरोध के बावजूद उन्होंने अमेरिका जाकर टेक्सास विश्विद्यालय से   एयरोस्पेस इंजिनीयरिंग  में  1984 में स्नातकोत्तर की डिग्री  ली |इसके बाद भी कोलराडो विश्वविद्यालय से एयरोस्पेस इंजिनीयरिंग  में  पी एचडी  हासिल  की | उन्होंने हवाई जहाज , ग्लाइडर, और  व्यावसायिकविमानचालक के लिए  लाइसेंस भी प्राप्त किये जो उन दिनों एक लडकी के लिए बहुत बड़ी  उपलब्धि थे | इस प्रकार वे निरंतर सफलता की सीढी चढ़ते हुए कल्पना उपलब्धियों के  नित नये आकाश  छू रही थी | 
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चित्र -- अंतिम यात्रा  के सहयात्री 
कार्य उपलब्धियां -- कल्पना ने पढाई के बाद 1988 में नासा के लिए काम करना शुरू कर दिया वे वहां एम्स  अनुसन्धान  केंद्र के लिए ''ओवेर्सेट मेथड्स इंक''    के उपाध्यक्ष के रूप में कार्य करने लगी  | 1996 में उन्हें अन्तरिक्ष यात्री कोर में शामिल कर लिया गया और वे अंततः वे एक अन्तरिक्ष यात्री के रूप में चुनी गयी | यहीं से कड़े  प्रशिक्षण के बाद उन्होंने  19  नवम्बर  1997 को छह सदस्यीय दल के साथ  अन्तरिक्ष  शटल कोलंबिया की फ्लाइट संख्या ''  एसटीएस-87 ''  से  अपनी पहली अन्तरिक्ष  उड़ान भरी |इस यात्रा के दौरान  कल्पना ने अपने साथी अन्तरिक्ष विज्ञानियों के साथ अन्तरिक्ष में 372 घंटे बिताये और अन्तरिक्ष  से पृथ्वी के  252चक्कर लगाये |इस दौरान उन्होंने अतरिक्ष की 1.04  मील की यात्रा की |ये दल 5 दिसम्बर 1997 को अपने   इस मिशन से वापिस आया | इस महत्वाकांक्षी उड़ान के बाद उन्होंने नासा  अन्तरिक्ष यात्री केंद्र में  विभिन्न तकनीकी पदों पर  कार्य  किया जिसके लिए उन्हें बहुत ही सराहना मिली और  उनके साथियों ने उन्हें विशेष पुरस्कार देकर सम्मानित किया |
कल्पना चावला भाग्यशाली रही कि उन्हें दूसरी बार फिर से अन्तरिक्ष यात्रा के महत्वकांक्षी मिशन के लिए चुना गया , जिसके जरिये  पृथ्वी  और अन्तरिक्ष विज्ञान , उन्नत विकास व  अन्तरिक्ष यात्री  स्वास्थ्य  व सुरक्षा का अध्ययन होना था | 
इस  उड़ान में कर्मचारी दल में उनके साथ   कमांडर रिक डी . हुसबंद, पायलट विलियम   स . मैकूल ,  कमांडर माइकल  पी  एंडरसन , इलान रामो  , डेविड म . ब्राउन और  लौरेल बी . क्लार्क नाम के सहयात्री भी थे | 16जनवरी 2003 को कोलम्बिया शटल के जरिये ही  मिशन '' एस टी एस 107'' का आरम्भ हुआ | इस यात्रा में कल्पना के जिम्मे  अहम जिम्मेवारी थी | लघु गुरुत्व पर  इन यात्रियों ने  80 प्रयोग किये जिसकी जानकारी ये नासा को भेजते रहे | पर इस यात्रा के साथ ही कोलम्बिया विमान और इन यात्रियों की यह आखिरी यात्रा साबित हुई | 1 फरवरी 2003 को पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश करते समय ये अन्तरिक्ष यान दुर्घटना ग्रस्त हो गया और उसमे सवार इन सभी सातों होनहार वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं की मौत हो गयी | उस समय इस शटल  की  धरती से दूरी    मात्र 63  किलोमीटर थी |     कहते हैं कल्पना चावला का कथन था , '' कि मैं अन्तरिक्ष के लिए ही बनी हूँ मेरा प्रत्येक पल अन्तरिक्ष के लिए है और इसमें ही विलीन हो जाऊंगी'' | उनका ये कथन उनकी  उनकी   दुःखद मौत के बात एक कटु सत्य में बदल गया |  कल्पना चावला के साथ ये  अन्तरिक्ष यात्री मानवता के लिए अहम अनुसन्धान का योगदान देकर अनंत में विलीन हो गये | 
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पुरस्कार और सम्मान --- कल्पना चावला को मरणोपरांत अमेरिका  में अनेक पुरस्कार से सम्मानित किया गया जिनमे 

   कांग्रेशनल अंतरिक्ष पदक के सम्मान, नासा अन्तरिक्ष उडान पदक, नासा विशिष्ट सेवा पदक इत्यादि शामिल हैं | इसके अलावा उनके नाम पर अमेरिका और भारत दोनों में अनेक  महत्वपूर्ण  योजनायें  चलाई  गयी हैं जिनका लाभ अनेक  छात्र - छात्राएं ले रहे हैं  | अमेरिका की कुछ सम्मान  योजनायें    इस तरह हैं -   भारतीय छात्र संघ द्वारा टेक्सास विश्वविध्यालय में मेधावी छात्रों के लिए कल्पना चावला स्मृति छात्रवृति पुरस्कार  के साथ इसी  विश्वविध्यालय में उनके नाम से एक हाल  का नामकरण किया गया   | यहाँ     से उन्होंने स्नाकोत्तर डिग्री हासिल की थी  |न्यूयार्क शहर  में जेक्सन हाइटस  क्वींस स्ट्रीट    74 का  , 74 कल्पना चावला  के नाम से पुनः नामकरण किया गया है | फ्लोरिडा प्रद्योगिकी संस्थान  के छात्र परिसर में  कोलम्बिया यान के  दिवंगत  सातों यात्रियों के नाम पर एक -एक विद्यार्थी परिसर  का नाम रखा गया है | नासा ने एक  सुपर कंप्यूटर को कल्पना नाम देकर  कल्पना चावला को सम्मानित किया है | 
इसके अलावा भारत ने भी अपनी बेटी को नहीं भुलाया है और उनके सम्मान को अक्षुण रखने के लिए अनेक योजनायें जारी की | केंद्र के साथ - साथ  हर राज्य  सरकार  उनके नाम पर  पुरस्कार और  अन्य महत्वपूर्ण प्रोत्साहन योजनायें चलाई  हैं | इनमे से कुछ इस तरह हैं | पंजाब विश्वविद्यालय में लडकियों के एक छात्रावास का नाम कल्पना  चावला के नाम पर है साथ में उनके नाम पर होनहार छात्र - छात्राओं के लिए कईनकद पुरस्कार  शुरू किये है |कर्नाटक सरकार ने युवा महिला  वैज्ञानिक के लिए कई नकद पुरस्कार  स्थापित किया गया है | कुरुक्षेत्र ज्योतिसर में स्थापित तारा मंडल का नाम  कल्पना चावला के नाम पर  रखा  गया है ,तो  इसरो के मौसम विज्ञान सम्बन्धी उपग्रहों का नाम भी कल्पना के नाम पर रखा गया है |माध्यमिक बोर्ड  ने भी होनहार छात्रों  के लिए उनकी स्मृति - स्वरूप छात्रवृति  की शुरुआत की गई| इन योग्नाओं से लाभ लेने वाले छात्र  अवश्य ही उनके जीवन  से प्रेरणा ले कुछ अच्छा  करने के लिए प्रेरित  होंगे |
पलायनवादी होने का आरोप लगा --  कल्पना  को  प्रतिभावान पलायनवादी  भी कहा गया   और उनपर  आरोप लगता रहा कि वे भारत की नहीं अपितु अमेरिकी  नागरिक की हैसियत से अन्तरिक्ष यात्री बनी |पर भारत में आजतक मात्र एक पुरुष राकेश शर्मा को ही अन्तरिक्ष में जाने का  सौभाग्य  मिला है |यहाँ रहकर शायद ही वे वो मुकाम हासिल कर पाती जो उन्होंने अमेरिका में जाकर प्राप्त किया | अमेरिका जैसे सुविधा संपन्न देश सदैव से ही  प्रतिभाओं  को हाथोहाथ लेते रहे हैं चाहे वे किसी भी देश से क्यों ना हों | और वैसे भी  भारत में भ्रष्टाचार और भाई  भतीजावाद  की नीतियाँ किसी से छिपी नहीं है | ऐसे में एक महत्वकांक्षी लडकी का बेहतर भविष्य के लिए विदेश जाना कोई अनुचित नहीं दिखायी  पड़ता  |

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चित्र -- पति जे पी हैरिसन के साथ कल्पना--
 निजी जीवन और भारत यात्रा --- कल्पना  चावला को एम-टेक पढाई के दौरान फ़्रांस  के नागरिक जों पियरे हैरिसन  से प्रेम हो गया जिससे बाद  में उन्होंने शादी कर ली  |जों अमेरिका में ही प्रशिक्षक थे |वे कल्पना  की सादगी भरे  संस्कारों  से इतना प्रभावित हुए  कि उन्होंने  समस्त भारतीय संस्कारों के साथ शाकाहार भी हमेशा के लिए अपना लिया | 1991 में  दोनों  को अमेरिकी नागरिकता मिल गयी | |वे अंतिम बार 1991 -1992 की नव वर्ष की छुट्टियों  में भारत अपने पति और परिवार के साथ आई   थी |उनकी मौत के बाद  करनाल व अन्य  जगहों पर , उनकी स्मृति में  आयोजित किये गये श्रद्धान्जलि    समारोहों  में उनके पिता, पति और अन्य   परिवारजन  विशेष रूप से शामिल हुए थे |


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 चित्र ००० करनाल में कल्पना चावला मेडिकल कॉलेज और  अस्पताल  
 कल्पना और करनाल ------ यूँ  तो करनाल की अपनी  ऐतहासिक और पौराणिक पहचान है |इसे महाभारत के प्रसिद्ध पात्र कर्ण की नगरी के नाम से जाना है और आधुनिक सन्दर्भ में कहें तो एशिया का सबसे बड़ा   डेरी अनुसंधान जिसे NDRI के नाम से जाना है , भी यहीं स्थित है ,पर     कल्पना चावला ने इस शहर को वैश्विक  स्तर पर अलग ही पहचान दिलवाई है | अब इसे संसार भर में  बस  कल्पना चावला के जन्म स्थान के रूप में  ही ज्यादा जाना जाता है |उनके पिताजी की करनाल में कपड़े की दूकान थी | बाद में  उनका परिवार यूँ तो करनाल छोड़कर दिल्ली बस गया था , पर कल्पना ने भारत के साथ- साथ अपनी जन्म भूमि करनाल को कभी नहीं बिसराया | विद्यार्थियों के वैज्ञानिक  उत्थान के लिए शुरू की गयी नासा यात्रा में पूरे हरियाणा से दस  विद्यार्थी  प्रतिवर्ष नासा जाते हैं ,जिनमे से दो छात्र कल्पना चावला के स्कूल ' टैगोर बाल निकेतन 'से होते हैं | जो बच्चे कल्पना के जीवन काल में नासा गये उन्हें वे विशेष तौर पर अपने घर आमंत्रित कर करती और  अपने हाथों से खाना बनाकर खिलाती | आज भी उनके स्कूल में उनकी  स्मृतियों को नमन करते हुए  उनकी पुण्यतिथि और जन्म - दिन  पर कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं | बच्चे उनके स्कूल में पढ़ खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं |  टैगोर बाल निकेतन की प्रिंसिपल माननीया पुष्पा रहेजा इस बात पर गर्व अनुभव करती थी, कि उनके स्कूल की एक ही छात्रा ने उनके साधारण स्कूल को असाधारण बना दिया | उनके  सहपाठी  उन्हें  बहुत ही भावपूर्ण ढंग से याद करते हैं |हरियाणा सरकार ने  भी अपनी   प्रतिभाशाली और लाडली  बेटी के सम्मान में करनाल के  सरकारी   अस्पताल और मेडिकल कॉलेज का नाम बदलकर  - क्प्ल्पना चावला अस्पताल करदिया है  जो  कि चण्डीगढ़ के  स्नातकोत्तर संस्थान अर्थात PGI के  समकक्ष माना  गया है | इस भव्य अस्पताल में  मरीजों के उपचार के लिए हर आधुनिक सुविधा मुफ्त में मौजूद है और भविष्य के चिकित्सक भी यहाँ प्रशिक्षित होने शुरू हो गये हैं |

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चित्र -- अबोध बचपन में कल्पना 

मौत भी रही विवादों में -- कल्पना चावला की मौत भी विवादों से  दूर नहीं रही | कोलम्बिया यान की दुर्घटना के बाद नासा के'' मिशन कोलम्बिया 'के  प्रोग्राम मैनेजर  वें हेल  की मीडिया रिपोर्ट के  अनुसार कल्पना और उनके सहयात्रियों की मौत उसी दिन तय हो गयी थी जिस दिन उन्होंने अन्तरिक्ष के लिए संयुक्त उड़ान भरी थी | नासा को पता चल गया था कि यान में मात्र 15दिन के लिए ही ऑक्सीजन है | पर अपनी मौत से बेखबर ये अभागे वैज्ञानिक अपने अनुसन्धान की पल पल रिपोर्ट नासा को भेजते रहे | नासा ने अपनी विवशता जताई , कि उन्हें सचाई बताकर भी कोई लाभ होने वाला नहीं था | उन्होंने स्वीकारा ये एक तरह से सातों अन्तरिक्ष यात्रियों की मौत की साजिश थी | नासा ने इस विवाद पर कभी कोई सफाई नहीं दी है पर  इस  विवाद  से अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं |
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चित्र -- एक प्रेरक मुस्कान 

एक प्रेरक जीवन -- तमाम विवादों के बावजूद कल्पना चावला का जीवन समस्त भारतीय नारियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत है | सितारों की दुनिया  में उनकी संकल्प -गाथा अमर और अटल है | उनका दृढ निश्चय और निरंतर कर्म - पथ पर अग्रसर  हो , सफलता प्राप्त करने की कहानी अपने आपमें  समाज और नारी जगत में एक नयी आशा का संचार करती है | निराशा में उनका जीवन हमेशा एक प्रेरणा पुंज बनकर जगमगाता रहेगा |

समस्त चित्र-- गूगल से साभार 

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धन्यवाद शब्द नगरी -------

रेणु जी बधाई हो!,

आपका लेख - (अन्तरिक्ष परी - कल्पना चावला ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
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ब्लॉगिंग का एक साल ---------आभार लेख

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