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बुधवार, 27 जून 2018

संत कबीर ------ लेख --


हिंदी साहित्य  में कबीर   भक्ति  काल के प्रतिनिधि कवि के रूप में जाने जाते हैं | इसके अलावा वे  भारत वर्ष  के सांस्कृतिक और अध्यात्मिक जीवन को ऊर्जा देने वाले  प्रखर प्रणेता हैं |  उनकी ओजमयी फक्कड वाणी आज भी  प्रासंगिक है | कौन है जो कबीर के नाम से  अपरिचित होगा  | मन में थोड़ा सा भी अध्यात्मिक भाव रखने वाले लोग  कबीर की वाणी से भली भांति परिचित हैं, चाहे वे किसी भी  धर्म अथवा सम्प्रदाय से हों | | उन्हें  कबीर दास एवं  संत कबीर इत्यादि  नामो से भी जाना   जाता है || उन्होंने  धर्म के नाम पर पाखंड  और समाज में व्याप्त अनेक अंधविश्वासों का विरोध  करके   ईश्वर के  निर्गुण  रूप  को मानने का आह्वान किया  | भक्ति अथवा उपासना में  ईश्वर की भक्ति दो रूपों में करने का प्रावधान किया गया है | जिनमे एक है  सगुण अथवा साकार उपासना  और दूसरी को निर्गुण अथवा निराकार कह पुकारा गया अर्थात एक उपासना को हम लौकिक उपासना कह सकते हैं तो दूसरी को आलौकिक || सगुण पूजा का  सीधा  अर्थ है कि हम ईश्वर को एक आकार अथवा मूर्त रूप में देखते हैं  |   अपनी कल्पना के अनुसार मूर्ति रूप में   विभिन्न  देवताओं और अवतारों की पूजा   सगुण उपासना का ही  रूप है |  इस उपासना में भी जब हम ईश्वर को दृष्टिगत आधार पर देखते हैं ये तमोगुणी उपासना है तो  मन के  स्तर की पूजा रजोगुणी  कही जाती है पर जो पूजा आत्मा के धरातल पर  की जाती है उसे  सतोगुणी   कहा गया है | निर्गुण पूजा में   ब्रह्म  का विस्तार अनंत माना गया  है | उसका कोई शरीर नहीं अपितु वह निराकार और अनंत है | वह एक ऐसी परम सता है जिसका कोई भी ओर-छोर नही है |वह ब्रह्माण्ड   के कण - कण  में  प्याप्त है | यत्र -वत्र  सर्वत्र उसकी  ही  माया  है - हर प्राणी उसका ही रूप है | इसी निर्गुणंवाद        को कबीर ने  बखूबी परिभाषित किया है और  माना भी है | सच तो ये है कि इस विचारधारा को उन्होंने खुद जिया तभी वे इसका मूल्याङ्कन भली भांति कर पाए |  हिंदी         साहित्य में    निर्गुणवाद की  दो शाखाएं मानी जाती हैं ज्ञानाश्रयी  और प्रेमाश्रयी | कबीर  को ज्ञानाश्रयी  शाखा  का प्रवर्तक  माना जाता है |

जीवन परिचय ----- कबीर जी का जन्म  के बारे में अनेक मत  और किंवदंतियाँ प्रचलित हैं |  कबीर पंथी लोग मानते हैं की कबीर जी का जन्म  काशी जी के  लहरतारा  नामक  तालाब में कमल के ऊपर  शिशु रूप           में हुआ || उनके जन्म के विषय में कबीरपंथियों में यह पद्य  प्रसिद्ध है ---
चौदह  सौ  पचपन  साल   गये  , चन्दवार एक ठाठ गये |
जेठ सुदी   बरसायत को पूरनमासी  तिथि प्रकट भये || 
घन गरजें दामिनी दमकैं बूंदें बरसैं जहर लाग गये -
लहर तलाब  में कमल खिले - कबीर भानु प्रगट भये ||

पर  आम  तौर पर सबसे ज्यादा    माने  जाने वाला मत है कि    उनका जन्म   काशी  जी में सन  1398   में जेठ माह की पूर्णिमा के दिन -एक विधवा ब्राह्मणी  के घर हुआ था , जिसे उनके गुरु       रामानंद   ने  गलती से पुत्रवती  होने का वरदान दे दिया था |  उस वरदान के  फलीभूत होने, पर  उसने लोकलाज के भय से   अपने नवजात  शिशु को काशी  जी में लहरतारा नाम के तालाब  के किनारे फेंक दिया था,  जहाँ से  एक  निः संतान जुलाहा दम्पति  नीमा  और  नीरू   ने इस शिशु को उठाकर बड़े प्रेम से इसका लालन पालन किया | उनके गुरु  तत्वदर्शी  समकालीन संत  रामानंद जी माने जाते हैं |वैसे कहा जाता है कि रामानन्द जी ने उन्हें औपचारिक रूप से गुरुज्ञान  नहीं दिया था ,क्योकि वे एक ऐसी   जाति से  सम्बन्ध रखते थे जिसे उन दिनों गुरु दीक्षा का अधिकार नहीं था | कहते हैं कबीर जी एक  बार  एक पहर  रात रहते ही  पञ्चगंगा  घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े  जहा से गुरु रामानन्द जी गंगा स्नान के  लिए सीढियां उतर रहे थे कि  उनका  पैर   कबीर जी के शरीर पर  पड़ गया और उनके मुंह  से '' राम -  राम  शब्द निकल पडा जिसे कबीर जी ने गुरु मन्त्र के   रूप  में स्वीकार कर लिया और  रामानन्द जी को अपने आराध्य गुरु के रूप में  |  हालाँकि कहा जाता है कि  बाद में उनके ज्ञान और समर्पण  को देख उन्होंने उन्हें अपना सबसे  योग्य शिष्य मान लिया | स्वयं कबीर जी  के शब्दों में  --
हम कासी में प्रगट भये हैं -
 रामानन्द चेताये  हैं | 

असली मत चाहे जो भी हो कबीरदास जी का  अवतरण संसार  में एक महत्वपूर्ण आलौकिक घटना जैसा है क्योकि उनके विचारों और मार्गदर्शन ने  जन -जीवन  को गहराई  तक  प्रभावित किया  और सदियों  बाद  भी उनकी विचारधारा की छाप अमिट है | |
हिंदी साहित्य के  प्रखर समीक्षक आदरणीय हजारीप्रसाद द्विवेदी  जी ने  कबीर जी को बिरला व्यक्तित्व  करार दिया है  |उन्होंने  माना  महिमा में केवल तुलसीदास उनके समकक्ष टिकते है ,पर उनकी साहित्यगत  विशेषताएँ और विचारधारा भिन्न है  | वे एक गृहस्थ साधू  कहे जाते हैं जिनकी पत्नी का नाम 'लोई ' और संतान रूप में 'कमाल -- क्माली' नाम के पुत्र -पुत्री  बताये जाते हैं | उनके जीवन का सबसे प्रेरक तथ्य है कि उन्होंने   साधू जीवन को  भिक्षा पर  आधारित होने के  मिथक को तोड़ ,स्वाभिमान से जुलाहा कर्म करते हुए साधुता को जिया |और लोगों का मार्ग प्रशस्त किया  | उन्होंने   मूर्ति पूजा की तुलना में  जीवन यापन -कर्म  को  सर्वोपरि माना |  उनके  एक दोहे में कहागया है -
पत्थर पूजे हरी मिले - तो मैं पूजूं पहाड़ -
 ताते ये चाकी भली पीस खाए संसार --
 अर्थात - यदि   पत्थर  पूजने से हरी मिलते तो  मैं पहाड़   को पूजता | उस [  निरर्थक ]पूजा से  तो ये चक्की भली जिसेमें   [अन्न  ]  पीसने से  संसार  पेट तो भर सकता है |
साहित्यिक भाषा और शैली --- कबीर दास कहते हैं  ''कि मसि     कागद  छूवो नहीं , कलम गहि नही हाथ ''   अर्थात   उन्होंने कागज ,मसि  , कलम को छुआ तक नहीं | वे अनपढ़ होते हुए भी भाषा पर जबरदस्त पकड़ रखते थे | वे जो भी बोलते उनके शिष्य उसे शब्द बद्ध कर लेते |  उनकी  भाषा
आम बोल चाल   की भाषा थी इसमें    उन्होंने जो कहना चाहा वही कहा , वो भी बड़ी ही  रोचक और मनभावन अंदाज में | उनकी ओजमयी वाणी के आगे बड़े बड़े विद्वान  भरते थे || उनके समकालीनो से लेकर आज भी  काव्य -  रसिक उनकी वाणी के      फक्कड अंदाज में  डूब   से जाते हैं |उनकी वाणी एक ऐसे आत्म वैरागी व्यक्तित्व को साकार करती है जो आत्म बोध में लींन   अदृश्य  से  सीधा तादाम्य स्थापित  करने  में सक्षम है | |उन्होंने पाखंडी पंडितों ,मुल्ला मौलवियों को बिलकुल भी नही बख्शा और अपने  मारक व्यंग से उनकी पाखंडी और प्रपंची   विचारधारा को धराशायी  कर समाज और जनमानस में नये चेतना और  आडम्बर विरोधी  मानसिकता   का प्रादुर्भाव किया |अपने एक दोहे में वे कहते हैं -----
 कांकर पाथर जोरि के - मस्जिद लई बनाय -
  ता चढ़ मुल्ला बांग दे -- बहरा हुआ खुदाय -
 तो दूसरे में कहते हैं -------
माला फेरत जुग गया फिरा ना मनका फेर -
करका मनका डारि  दे -- मन   का मनका  फेर |
कबीर की भाषा   'अरबी , फ़ारसी , पंजाबी , बुंदेलखंडी , खड़ी बोली इत्यादि   कई भाषाओँ के शब्द मिलते हैं|
 साहित्य में उनकी भाषा को  सधुक्कड़ी कहकर सम्मान  दिया गया है और भाव शैली   इत्यादि के आधार पर उसका  ऊंचा  मूल्याकंन   किया गया है | भले ही कोई उनकी विचार धारा  और चिंतन से सहमत ना हो पर  उनके काव्य रस में आकंठ ना डूब जाए - ऐसा कभी नहीं होता | एक अनपढ़ व्यक्ति  की भाषा का ओज हर मन से  प्रवाहित हो अध्यात्म  की   गंगा प्रवाहित किये बिना नहीं रहता | ये भाषा ऐसे संसार से साक्षात्कार कराती है जहाँ  कोई धर्म विशेष नही ,   जाति विशेष नहीं , कोई  ऊँच नही , नीच नहीं | समभाव को प्रेरित करती कबीरवाणी अपने आप में विस्मयबोधक है | उनकी  भाषा आध्यात्मिकता के उजास में  मानवता को जीने की नयी राह दिखाने में सक्षम है |
जीवन दर्शन ---कबीर के जीवन काल में   समाज अनेक  बाहरी  आडम्बरों और पाखंडों का शिकार था जिस से बाहर निकलने के लोगों को एक यथार्थवादी  मानसिकता  की और प्रेरित करने की जरूरत थी | इसके लिए कबीर दास  के जीवन दर्शन ने     बहुत बड़ी भूमिका अदा की     , जबकि उनका  जीवन दर्शन किसी धर्म विशेष से प्रेरित नहीं था -- वे स्वयं को भी  हिंदू  -मुसलमान  कहाने      की    बजाय     एक इंसान मानते थे | | उन्होंने एक ईश्वर को मानने और जानने  पर बल दिया || ईश्वर को उन्होंने विश्वास को ईश्वर प्राप्ति  का साधन माना | आपके एक पद में वे कहते हैं -- 
 मोको कहाँ ढूंढे  से बंदे मैं तो तेरे पास में -
ना तीर्थ में ना मूर्त में ना एकांत निवास में -
ना मंदिर में ना मस्जिद में  ना काबे कैलाश में | |
ना मैं जप में ना मैं  तप में  ना  व्रत उपवास में |
ना मैं क्रिया -क्रम में रहता - ना ही योग सन्यास में | | 
न ही  प्राण  में  -ना पिंड में - ना ब्रह्मांड  आकाश में |
ना मैं  त्रिकुटी  भवर में , सब स्वांसों के साँस में | | 
खोजी होए  तुरत मिल जाऊं - एक पल की तलाश में -
 कहे कबीर सुनो भाई साधो  - मैं तो हूँ विश्वास में !!!!!
  
कबीर की रचनाओं में रहस्यवाद और मार्मिकता है | ये हिन्दुओं के अद्वैतवाद  को दर्शाता है तो दूसरी ओर मुस्लिम सूफी मत  को छूता दिखाई पड़ता है | अद्वैतवाद में आत्मा - परमात्मा  को एक  मान  एक  दूसरेका पूरक माना गया है जिसे सांसारिक  माया  ने अपने आवरण से आच्छादित कर  अलग - अलग कर दिया है | पर ज्ञान और विश्वास से ये आवरण उतार कर  आत्मा - परमात्मा एक हो जाते हैं -- वे लिखते हैं --
 जल में कुम्भ - कुम्भ में जल है - बाहर भीतर पानी 
फूटा जल - जल ही समाना यह तत कथो मियानी 
 जीवन  की क्षणभंगुरता  को भूल जीवन प्रपंच में खोये मानव को चेताते हैं 
 उड़ जाएगा  हंस अकेला - जग दर्शन का मेला !!!!!
उन्होंने आत्मा  को चादर की संज्ञा दी और मानव से  इसे मैली ना करने का  आह्वान किया -पर जब ये आत्मा सांसारिक राग  द्वेष और माया मोह से  मलिन हो गयी तो वे कह उठे -- 
 लागा चुनरी में दाग छुड़ाऊँ कैसे  ?
 इसी तरह वे कह उठे -- 
 चदरिया झीनी रे झीनी -
राम नाम रस भीनी - 
चदरिया झीनी रे झीनी ||

अष्ट-कमल का चरखा बनाया,
पांच तत्व की पूनी ।
नौ-दस मास बुनन को लागे,
मूरख मैली किन्ही ॥
चदरिया झीनी रे झीनी...

जब मोरी चादर बन घर आई,
रंगरेज को दीन्हि ।
ऐसा रंग रंगा रंगरे ने,
के लालो लाल कर दीन्हि ॥
चदरिया झीनी रे झीनी..


चादर ओढ़ शंका मत करियो,
ये दो दिन तुमको दीन्हि ।
मूरख लोग भेद नहीं जाने,
दिन-दिन मैली कीन्हि ॥
चदरिया झीनी रे झीनी...

ध्रुव-प्रह्लाद सुदामा ने ओढ़ी चदरिया,
शुकदे में निर्मल कीन्हि ।
दास कबीर ने ऐसी ओढ़ी,
ज्यूँ की त्यूं धर दीन्हि ॥
के राम नाम रस भीनी,
चदरिया झीनी रे झीनी ।-
आत्मज्ञानी कबीर ने पाखंडी  ज्ञानियों को  खरी खरी सुनाते हुए  कहा --
कि तू कहता कागद की लेखी --
मैं कहता अँखियाँ की देखि !!!!!
 अहम् भाव और ईश्वर प्राप्ति को एक दूसरे का  विरोधी मानते वे कहते हैं -
जब मैं था तब हरि नही -- अब हरि हैं मैं नाहि-
 प्रेम गली अति सांकरी-- ता में दो ना समाहि !!!!!!!!!
उन की  विचारों  से अनेक लोगों ने प्रेरणा ली और  उन्हें अपने जीवन में अपनाया | सिख धर्म के सबसे बड़े ग्रन्थ  ''श्री   गुरु ग्रन्थ साहिब '' में भी कबीर जी के  दो सौ से ऊपर  दोहों को लिया गया है |इसके अलावा   आम   जीवन में उनकी अनेक - उक्तियाँ   अत्यंत प्रसिद्ध हैं  |

रचनाये----कबीरकी रचनाये ' बीजक ' नमक ग्रन्थ में संग्रहित हैं |इसके तीन भाग हैं -
रमैनी , शब्द और साखी|- जिनमे    रचना की दोहा , सोरठा , पद उलटबांसी   इत्यादि   विधाएं हैं |

अवसान -- कहते हैं सन 1518 मगहर उत्तर प्रदेश में कबीर दास जी  ने देह त्याग दी | तब उनके शिष्यों में उनके अंतिम संस्कार  को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया | पर इसी बीच जब उनके शव से कपड़ा हटाया गया तो   उनके शव की जगह   फूलों  का ढेर मिला , जिसे दोनों धर्मों के लोगों ने आधा- आधा बाँट लिया  और अपने अपने रीति- रिवाज के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया |
संक्षेप में  कबीर हर कालखंड में प्रासंगिक है  | आज के समय में जब  धर्म एक अत्यंत संवेदनशील  दौर से गुजर रहा है और इसके नाम पर अनेक लोग पाखंड और  व्यभिचार का बाजार सजाये बैठे हैं ,कबीर के यथार्थवादी          विचारों से सीखने की जरूरत है | गुरु की महिमा  को खंडित करते  अनेक  कथित ' गुरु ' आज  अपनी भ्रामक और  पाखंडी गुरुता के साथ हर शहर -हर  गाँव , में फैले हैं |  कबीर की रचनाये   इन्हें    सच्चाई का आईना दिखाती हैं |
कबीर के कालजयी  दोहे  जो आम जीवन में लोकोक्तियों की तरह  प्रयोग किये जाते हैं 
  माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर
आशा, तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर

दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमिरन करें, दुख काहे को होय
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय
जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में परलय होएगी, बहुरी करोगे कब
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होए 
धीरे-धीरे रे मन, धीरे सब-कुछ होए
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए
साईं इतनी दीजिए, जा में कुटुंब समाए
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए
जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग
पोथि पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए
ढाई आखर प्रेम के, पढ़ा सो पंडित होए
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए
वैद बिचारा क्या करे, कहां तक दवा लगाए 

चित्र -- गूगल से साभार -------------------------------------------
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धन्यवाद शब्दनगरी 

रेणु जी बधाई हो!,

आपका लेख - (संत कबीर लेख ---------- कबीर जयंती पर विशेष ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 

-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- पाठकों के लिए विशेष ------संगीत शिरोमणि  आदरणीय  कुमार गन्धर्व  जी द्वारा गया  कबीर दास जी का भावपूर्ण भजन | मेरा आग्रह है कि पाठक इसे जरुर सुने --

ब्लॉगिंग का एक साल ---------आभार लेख

 निरंतर  प्रवाहमान होते अपने अनेक पड़ावों से गुजरता - जीवन में अनेक खट्टी -   समय निरंतर प्रवहमान होते हुए अपने अनेक पड़ावों से गुजरता हुआ - ...