
ढाई हजार साल पूर्व - ईशा पूर्व की छठी सदी में धरा पर महात्मा बुद्ध का अवतरण मानव सभ्यता की सबसे कौतुहलपूर्ण घटना है | बुद्ध की जीवन गाथा कदम - कदम पर नए आयाम रचती है | बुद्ध के जीवन में कहाँ रहस्य नहीं है -- कहाँ कौतूहल नहीं है ? कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन का पुत्र , एक राजकुमार सिद्धार्थ जिसके बारे में जन्म के समय ही त्रिकालदर्शी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी कर दी थी , कि यह बालक बड़ा होकर यदि घर पर रहा तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा - अगर घर से निकल गया तो फिर सन्यासी होगा जो संसार के दुःखोंका नाश कर मानवता को नयी राह दिखायेगा | जब यह बताया कि सन्यासी बनने के पीछे जीवन के दुःख और मानवता के संताप होगें तो अपने उत्तराधिकारी के अनिश्चित भविष्य से भयभीत राजा शुद्धोधन ने उसे जीवन के दुखों से बचाने का हर संभव प्रयास किया | उसके आमोद - प्रमोद के सारे साधन जुटाए ताकि वह उनमे लिप्त हो जीवन के दुःख -संताप से दूर रहे | पर क्या ऐसा होना संभव था --? नहीं एक न एक दिन सिद्धार्थ का जीवन के दुखों से सामना होना ही था क्योकि शायद यही उनकी नियति और प्रारब्ध था और पिता का अक्षुण डर इस की पहली सीढ़ी बना | विलासी व्यवस्था से उपजी ऊब ने शायद सिद्धार्थ को जीवन के प्रश्नों की तरफ मोड़ दिया होगा| उन्होंने इन भोगों को अनित्य जानकर इनमे आसक्त होना स्वीकार नहीं किया |
यद्यपि यशोधरा के साथ विवाह - बंधन में बांधने पर वे संसार के सभी भौतिक सुखों से परिचित हो गए | पर नश्वर जीवन के स्थायी दुखों से सामना अभी शेष था ! ! क्योकि कबीर भी कहते हैं --देह धारण कर इस दंड अर्थात देह के क्षय से कोई बच नहीं सकता ! अतंतः देह का धर्म गलना ही तो है | जब जीवन के इन नित्य दुखों से सिद्धार्थ का सामना हुआ तो वे स्तब्ध रह गए ! यूँ तो हर प्राणी हर रोज इन दुखों को देखता है और इनका अभ्यस्त हो जीता रहता है , क्योकि उनसे ये सत्य छुपाये नहीं जाते | पर सिद्धार्थ ने जब एक बीमार को देखा -- फिर वृद्ध को देखा अंत में निर्जीव देह से साक्षात्कार किया तो मन में विकलता क्यों ना होती ? क्योकि स्वयं से छिपाये गए इन सत्यों को वास्तव में पूरे विवेक से केवल सिद्धार्थ ने ही देखा था , जो उनके लिए नए प्रश्न लेकर आया कि यदि जीवन इस अनिश्चितता का नाम है ये जीवन गौरवशाली क्यों और इस जीने से क्या लाभ ? शायद इसी विकलता के अप्रितम चिंतन ने सिद्धार्थ को बुद्ध बनने की दिशा में मोड़ दिया होगा ! बुद्ध तो जन्मजात बुद्ध थे |भले ही उन्हें सांसारिक बन्धनों में बंधने का हर प्रयास किया गया पर अततः उनकी जिज्ञासा का बांध सब बंधन तोड़ बह निकला ! तमाम एश्वेर्य और साथ में अपने सुखद गृहस्थ जीवन - जिसमे प्रेमिका से पत्नी बनी यशोधरा और अबोध पुत्र राहुल के साथ माता - पिता सहित पूरा परिवार था --को त्याग कर वे एक अनिश्चित दिशा में निकल पड़े -- जीवन के सत्य को खोज में ! ! वर्षों तन -- मन की अनेक यंत्रणाओं से गुजर कर अंत में बोधगया में बोधिसत्व के रूप में एक वृक्ष के नीचे सत्य से उनका साक्षात्कार हुआ और वे बुद्ध या महात्मा बुद्ध कहलाये और इतिहास के उन अमर पलों का साक्षी ये वृक्ष बोधिवृक्ष कहलाया जो सदियों के बाद आज भी अपने स्वर्णिम इतिहास के साथ अपनी अमरता को धारण किये एक तीर्थ बनकर अक्षुण खड़ा है जिसे निहारकर लोग अपना भाग्य सराहते है और बुद्ध के अस्तित्व के अंश को उसमे अनुभव करते हैं ||
बुद्ध मानवता के लिए एक मसीहा बनकर आये | धर्म के आडम्बरपूर्ण आचरण से त्रस्त लोगों को उन्होंने सरल राह दिखाई --और एक नया जीवन दर्शन दिया बुद्ध ने मध्य मार्ग चुना और इसी पर मानव मात्र को चलने का आग्रह किया | ये वो मार्ग था जो अहम की परिधि से बाहर था जहाँ भोग विलास नहीं अपितु जिज्ञासा और सत्य का आग्रह था | उन्होंने चरैवेति -- चरैवेति का शंखनाद किया और सीमाओं में बंधने का प्रबल विरोध किया | उन्होंने चेतना को मान कर शरीर को आकार और चेतना का संयोग मात्र माना और माना चेतना सतत गतिमान रहती है -- नित नए रंग रूप में ढलकर | बुद्धत्व को अष्टागिक मार्ग द्वारा परिभाषित किया गया अर्थात -- सम्यक दृष्टि , सम्यक वाणी , सम्यक कर्मात , सम्यक स्मृति , सम्यक आजीविका , सम्यक व्यायाम सम्यक संकल्प के साथ सम्यक समाधि -- जिनका सार मानव मात्र के प्रति करुणा और प्रेम है | दूसरे शब्दों में किसी को हानि न पहुँचाना , ऐसी बात ना बोलना जो किसी का ह्रदय विदीर्ण कर दे , ऐसे कार्य ना करना जो किसी को दुःख पहुंचाए , ऐसा जीवन जीना जिससे लेशमात्र भी दूसरा प्रभावित ना हो या फिर निरंतर स्वयं को सुधारने का प्रयास और किसी जीव को हानि पहुंचने वाले व्यवसाय ना करना जैसी व्यवहारिक शिक्षाएं दी | उन्होंने ईश्वर को अज्ञात और अज्ञेय माना | बुद्ध ने माना - मन का होना दुःख का कारण नहीं बल्कि अनंत और निर्बाध कामनाओं का होना दुख का मूल है | बुद्ध ने जीव के प्रति जीव को करुणा की राह दिखाई और उन्हें बुद्ध बनने के लिए प्रेरित किया बौद्ध बनने के लिए नहीं | | उन्होंने बुद्धत्व को आत्मबोध की स्थायी स्थिति बताया |
हम सब जीवन में - जीवन के ही दुखों , अनंत मोह और अभिलाषाओं से ग्रस्त हो कर कभी ना कभी बुद्ध अवश्य बनते है पर बुद्ध बनकर रहते नहीं है और कुछ देर बाद पूर्ववत जीवन में लौट आते है और उन्ही अनंत लिप्साओं और कामनाओं में पूर्ववत खो जाते हैं | सदियों से प्रत्येक
काल - खंड में बुद्ध प्रासंगिक है और आने वाली सदियों तक रहेंगे | जरुरत है उनके करुणा और प्रेम के आग्रह से भरे मार्ग का अनुसरण करने की | बुद्ध पूर्णिमा ऐसे ही पुरातन और चिरंतन संकल्पों को धारण करने का दिन है | बुद्ध के सन्दर्भ में ये और भी महत्वपूर्ण है , क्योंकि बैशाख मास की इसी पूर्णिमा के दिन बुद्ध धरा पर अवतरित हुए , इसी पूर्णिमा का दिन उन्हें मिले अंतर्ज्ञान का साक्षी रहा और इसी पूर्णिमा के दिन अपनी शिक्षाओं और सिद्धांतों के रूप में नव बीजारोपण कर बुद्ध की चेतना अनंत में विलीन हो गई थी |
चित्र ---गूगल से साभार --
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