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शुक्रवार, 29 मई 2020

ये ठहराव जरूरी था- कोरोना काल पर चिंतन

Cपर्यावरण पर भी दिखा लॉकडाउन का असर ...

कितने सालों से देख रहे थे  ,   अलसुबह  भारी - भरकम   बस्ते लादे-   टाई- बेल्ट  से लैस , चमड़े के भारी जूतों  के साथ  आकर्षक नीट -क्लीन  ड्रेस  में सजा -- विद्यालयों की तरफ  भागता रुआंसा    बचपन  --- तो   नम्बरों की दौड़ और   प्रतिष्ठित  संस्थानों   में दाखिले की धुन में-    आधे सोये- आधे जागते किशोर   और नौकरी के लिए हर तरह का दांवपेंच लड़ाते    अवसादग्रस्त युवा ---! इसके साथ सार्वजनिक      और   निजी वाहनों से अपने  आजीविका  स्थल की ओर भागते लोग  , जिन्हें   सालों से ना पूरी नींद मयस्सर हुई  ना चैन | यूँ लगता था हर कोई भाग रहा  है----  गाँव से   छोटे शहर की ओर -- छोटे शहर से बड़े शहर की ओर और महानगरों से विदेश की ओर   ---! लोगों की ये दौड़ थमने का नाम नहीं ले रही थी ----------! कोई  वज़ह से तो --कोई  बिन वज़ह  भागा जा रहा था -- अपनी ही धुन में --- ! पर   ,अचानक ये क्या हुआ कि जिन्दगी  का पहिया एकदम थम गया  --!  गली - कूचे  वीरान  ,  सड़कें खाली   और हर कोई अपने घर में कैद  !  कुछ समय के लिए तो लोगबाग़ -इस तरह  जिन्दगी की  रफ़्तार पर लगे  इस विराम पर  स्तब्ध रह गये !पर बाद में लगा  -   ये खालीपन  अपने साथ  एक ऐसा सुकून भी  जीवन में  ले    आया है      ,  जहाँ  ना  मजबूरीवश   कहीं  भागने की  अफ़रातफ़री है  , ना किसी   दौड़ में आगे आने की जद्दोजहद | यहाँ चिंता और चिंतन बस एक    बिंदू पर ठहरे हैं --  अपनी  और अपने परिवार की सुरक्षा  ! जो परिवार  सालों से एक  दूसरे के  साथ   मिल बैठ नहीं पाए थे--  उन्होंने    साथ मिलजुल कर यादों की    अनमोल   पूंजी आपस में बाँटी   | जो बातें  परिवार भूल चुका था --वो  भी  दुहराई  गई   |   यानि  इस कथित लोकबंदी  के दौरान भावनाओं   को नया जीवन मिला है --  अगाध आत्मीयता   का सुधारस  रिक्त -मनों को सिक्त कर रहा है | सयुंक्त परिवार की एकजुटता का आनन्द युवा पीढ़ी  ने  इतनी बेफिक्री  के साथ  --  पहली  बार  लिया |सभी को  जीवन का ये    आनंदकाल      अविस्मरनीय रहेगा | 


दायित्व  बोध की जगी भावना  -- लॉकडॉउन ने  विशेषकर  शहरी जीवन में पारिवारिक स्तर पर एक ऐसी क्रांति का सूत्रपात किया है , जो अप्रत्याशित है । घर में सहायिकाओं की छुट्टी हो जाने से परिवार का युवावर्ग,  विशेष रूप से घरेलू दायित्व के प्रति सजग हुआ है। जिनमें कॉलेज जाने वाली बेटियां और ऑफिस जाने वाली बहुएं - रसोई की तरफ बड़े उन्मुक्त भाव से नये - नये पकवान बनाने को उद्दत् हुई हैं, तो बुजुर्गों की खुशी का ठिकाना नहीं , पूरा परिवार जो उनकी आँखों के सामने है। ना किसी को दफ्तर जाने की जल्दी , ना बच्चों के स्कूल की चिंता । शायद आपाधापी में खोई सदी के लिए ये लघुविराम जरूरी था । दुनिया का कारोबार इस दौरान भले  भले चौपट  हो गया  , परिवार में आपसी स्नेह का कारोबार भली भाँति फलफूल रहा है ।  इस  घरबंदी  से आज परिवार फिर से जी उठा   -- --- नये दायित्वबोध के साथ  |सूचना- क्रांति ने इस घरबंदी    को, बोझिलता से बचाया है और रचनात्मकता  को बढ़ाया है | लोगों नेअपने शौक और हुनर   को इस लोकबंदी में  खूब संवारा  |  पढने के शौक़ीन  उन किताबों को बड़े चाव से पढ़ रहे हैं ,  जिनको  इस जन्म में  छूने तक की भी उम्मीद नहीं थी | संगीत  , कला  , साहित्य के लिए ये दौर बहुत   सुखद  है | खूब लिखा जा रहा है -- पढ़ा जा रहा और सीखा जा रहा है |  बड़े  शौक से घर में एक दूजे  से  सीखने - सिखाने की  कवायद जारी है | इस सदी ने ऐसा स्नेहिल दौर शायद पहले कभी नहीं देखा | लोकबंदी में  सभी की  चिंतन शक्ति को विस्तार मिल रहा है | स्वहित और जनहित में ये एकांतवास एक समाधि सरीखा  सिद्ध हुआ | |

 आया कोरोना ---   कोरोना क्या आया एक अघोषित युद्ध की -सी  स्थिति  सामने आ खड़ी हुई |समाज में आपस में  मिलने -जुलने से  एक खौफ सा व्याप्त है ,  हर एक इन्सान के भीतर | जनता-कर्फ़्यू    से लेकर लोकबंदी  से  गुजर कर समाज एक नये   ढर्रे में ढलने को तैयार है  इस दौरान  लोगों  को   चिंतन करने का सुनहरा अवसर  मिला -- भले ही इसकी कीमत बहुत बड़ी चुकानी पड़ी  !यूँ लगा मानों  समस्त  भौतिक  प्रपंच बेमानी हैं | कीमत है तो बस  इंसान की | कोरोना  से भयाक्रांत मानव और समाज  नये   नियम और कायदे गढ़ने को मजबूर हुआ   | कल जो चीजें   जीवन में बहुत जरूरी थी . इस दौरान हाशिये पर आ गयी | मॉल संस्कृति कुछ समय के लिए सिकुड़ कर लुप्तप्राय हो गयी  तो   पीज़ा -बर्गर और सैर - सपाटे सेहत की चिंता के आगे गौण हो गए | घर  सबसे  सुरक्षित स्थान  हो गया तो अपने लोग   सबसे ज्यादा नजदीक |  देखा जाये तो  मानव की पलायनवादी   प्रवृति अक्सर उसे कोरोना  जैसे संकट में  डाल देती है , पर साथ ही उसे  एक  सबक देकर  भविष्य के लिए तैयार करती है | कोरोना ने भी मानव समाज को बहुत कुछ सिखाया है | मानव सभ्यता पर आये आकस्मिक संकट कोरोना के बहाने -  एक विराट विमर्श  की शुरुआत हो चुकी है | आने वाले समय में इस पर किये गये शोध -इस स्थिति का सही -सही मूल्याङ्कन करेंगे कि समाज ने इस महामारी   के  दौरान क्या खोया और क्या नया सीखा !

 नये रूप में धर्म ---   धर्म की स्थापना शायद जीवन में कल्याणकारी   नैतिक मापदंडों की  सीमायें तय करने के लिए हुई थी , जिसमें जीवनपर्यंत बहुजनहिताय सुकर्म  की  प्रेरणा  और जीवनोपरांत मोक्ष   पाने के प्रयासों  का  प्रावधान किया था  ,  पर  बौद्धिकता    के अनावश्यक  हस्तक्षेप से  आज धर्म   कुत्सित  रूप   में  परिवर्तित  हो गया है    | धर्मान्धता से  मानवता  को जो हानि हुई  -उसके सही आंकड़े  कहाँ  उपलब्ध हैं ? पर ये संतोषप्रद  है , कि इस संकटकाल में  धर्म अपने परिष्कृत रूप में सामने आया है , जहाँ  पाखंड और  कर्मकांड  नहीं ,  अपितु  मानव सेवा से ही धर्म को सार्थकता मिल रही है | गोस्वामी  तुलसीदास जी की मानव धर्म की महिमा बढ़ाती   उक्ति गली- गली . कूचे -कूचे चरितार्थ हो रही है   , ''परहित सरस धर्म नहीं भाई   ।'' इसी को  चरितार्थ करते  और मानव धर्म निभाते चिकित्सक , और अन्य कोरोना योद्धा ,  मानवता और सद्भावना के शांतिदूत बनकर आमजन की आँखों के तारे बने हुए हैं और दुनिया को समझा रहे हैं कि यही है सच्चा धर्म - ----! निस्वार्थ कर्म जो केवल और केवल मानवता को समर्पित है,  जिसमें त्याग भी है , सद्भावना भी है- सच्चे मानव धर्म के रूप में उभरा  है  | हो सकता है कोरोना की महामारी लोगों को   स्थायी   तौर  पर  ये जरुर समझा दे कि सच्चे धर्म की परिभाषा क्या है  और साथ में ये भी ,  कि आज देश को देवालयों  से कहीं ज्यादा  ,  चिकित्सालयों  और शिक्षालयों की    आवश्यकता  है |


  चकित कर रहे ये बदलाव ---- लोकबंदी के दौरान दुर्घटनाओं और . आत्महत्याओं में कमी के साथ प्रदूषण का घटता स्तर  बहुत सुखद  लगा । भागती-दौड़ती जिन्दगी  ने खुलकर साँस  ली  | साथ में रोचक है -- सुबह -सुबह शोर  प्रदूषण में अपना अतुलनीय योगदान देने वाले -- धर्म स्थानों पर मौज कूट रहे कथित धर्मावलम्बियों की जमात , ना जाने किसे मांद में जाकर छिप गयी है  !! --- होई हैं वहीँ जो राम रचि राखा पर -- उन्हें आज कतई विश्वास नहीं हो रहा | वे कोरोना से इतना भयाक्रांत हो गये हैं,  कि उनके दर्शन दुर्लभ हो गये हैं | जिन्हें ना किसी बीमार की चिंता , ना परीक्षाकाल में छात्रों के भविष्य की चिंता थी  -- जो बस लाउड स्पीकर में भजनों के द्वारा- भीषण हाहाकार को ही धर्म की शक्ति मानते थे - आज मौन हैं !कथित उपदेशक बाबा लोग तो अदृश्य से होगये हैं | उन्हें  जाने  कैसा सदमा लगा - समझ नहीं आता | पर उस अनचाहे शोर से मुक्ति ने आमजन की नींद को बहुत मधुर बना दिया है तो एकाग्रता को बढ़ा दिया है |

निखरी नये रूप में प्रकृति -- प्रकृति  के लिए आमजन ने जो किया --उससे उसकी कितनी हानि  हुई --- इसके  सही -सही आंकड़े उपलब्ध नहीं,  पर इतना तो तय है  , कि हमने  उसे  कुरूप करने में कोई कसर नहीं छोडी |  धर्मयात्रायें मौजमस्ती का माध्यम बन गयी | बड़े  बुजुर्गों   से  सुना करते थे --  कि कभी  जटिल तीर्थ स्थानों की यात्राओं   के लिए सिर्फ बुजुर्ग लोग ही जाते थे  , वो भी  सर पर कफन  बाँध   कर  ,  ताकि  उनके  जीवन का अंत यदि इन यात्राओं के दौरान हो जाए तो उन्हें मोक्ष मिल जाए  |  पर कालान्तर में   लोगों ने  इसे पारिवारिक आनन्द का माध्यम मानकर सपरिवार जाना  शुरू कर दिया |  पहाड़ों - पर्वतों पर  तीर्थ  यात्रियों की सुविधा के लिए  निर्माण हुए  -- सड़कें बनी , होटल  निर्मित किये गये और इन  प्रक्रियाओं में प्रकृति अपना सौंदर्य गंवा बैठी |  अब लोकबंदी के दौरान सोशल मीडिया पर आने वाली सुखद तस्वीरें बता रही हैं  , कि करोड़ों रूपये की परियोजनाएं जो  ना सकी वह लोकबंदी ने कर दिया | निखरे पहाड़ - पर्वत  और घाटियाँ  , उन्मुक्त उड़ान भरते पक्षी दल   ना जाने कितने दिनों बाद नजर  आये | नदियाँ   निर्मल हो मन मोह रही हैं |प्रदूषण का  स्तर घट रहा है  |   शासनादेश को जनहित में पहली बार लोगों ने बहुधा ईमानदारी से अपनी स्वीकार्यता  दी , जो  नितांत संतोष का विषय है |

 करुणा के नाम रहा संकटकाल -  कोरोना काल में लोगों ने सदी की सबसे करुणा भरी तस्वीरें  देखी| दूरदराज गाँव से आजीविका के लिये  आये  श्रमिक  वर्ग  की विकलता ने  जनमानस  को  भावविहल कर दिया |हफ़्तों पैदल गाँव- गली की और भागते  साधनविहीन लोग और उनके साथ हुई अमानवीयता   --   पहले कभी नहीं देखी गयी | मजदूर वर्ग ने पग- पग पर  अनगिन   विपदाओं का सामना किया  |  बहुत  बड़ी संख्या   में उनकी मौतों ने सम्पूर्ण  मानवता को शर्मसार और स्तब्ध  कर  किया  !  अपने गाँव - गली लौटकर अपनी जड़ों में समाने को आतुर-   कम शिक्षित   श्रमिकों के रूप में सामने आई  सामूहिक  भावना अपठित और अबूझ है | शायद आत्मीयता के इस अद्भुत रसायन का कोई विकल्प संसार में नहीं | और कोई प्रयोगशाला इसका विश्लेषण कर पाने में सक्षम हो--- ऐसा नहीं लगता |    माटी के लाल श्रमवीर ने जो संस्कार  संजो कर रखा है --वह है जननी , जन्म भूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है | शहर में बहुत साल बिता देने पर भी उसे छोड़ते समय उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता , पर गाँव में बहुत कुछ है जिसे वह गाँव से पलायन के समय छोड़ आया था-- जो उसे लौटकर फिर मिल जाएगा |  अपनी माटी की गंध उसे हमेशा अपने भावापाश में बांधे रखती है |  उनके असुरक्षित मन का एक मात्र सुरक्षा कवच , मानो उनकी जन्म भूमि ही है। उनकी छटपटाहट कोई राजनैतिक स्वांग नहीं ---उनकी अपनी माटी और अपनों के प्रति अगाध आत्मीयता है, जिसे वे सबको बताना चाहते हैं!उनकी प्रगाढ़ आत्मीयता को शहर की चकाचौँध अभी तक आच्छादित नहीं कर पाई है , क्योंकि  वह प्रगति के उस शिखर को कभी  छू नहीं पाया -जहाँ संवेदनाएं शून्य हो जाती हैं ।यूँ भी जीवन ऐसे वर्ग के प्रति बहुत अधिक कठोर रहा है ,  जैसे   उसके गाँव प्रयाण में भी उसने बहुत परीक्षाएं दी हैं   , जिनमें वह बहुधा अपनी जीवटता से विजयी  माना गया है |  उसकी जीवटता को कोरोना संकट ने और प्रबल कर  दिया |   अंतस में   असीम   करुणा जागते .  मानवसंघर्ष   के ये   पल  जनमानस के लिए  अविस्मरणीय रहेंगे   और  इनकी स्मृतियाँ  मन को    सदैव  विचलित  करती रहेंगी |


जीना होगा कोरोना के साथ --    सदियों से ही दुनिया  महामारियों से बहुत त्रस्त   रही   है |नाम बदल-बदल कर , नए नए रूपों में बीमारियाँ मानव को सताती रही हैं  और अनगिन जिंदगियां लीलती रही हैं क्योंकि किसी भी अप्रत्याशित  बीमारी का उपचार उसके आने  से पहले पता हो ये  शायद मुमकिन नहीं | इसी तरह कोरोना के उपचार के  साधन ढूंढें जा रहे हैं  | दूसरे शब्दों में कहें , कोरोना जैसी महामारी   के एकदम  मिटने  की कोई गुंजाईश फिलहाल नजर  नहीं आती  , पर  फिर भी अपनी सजगता और समर्पण  से हम इसे काबू जरुर कर सकते हैं | स्वच्छता  के साथ सामाजिक  दूरी का पालन करते हुए हमें उन  दुर्व्यसनों को छोड़ना होगा ,  जो  बढ़ती सम्पन्नता  से पैदा हुए थे | माल  और बार संस्कृति   से  दूरी बनानी होगी , तो  अनावश्यक  भीड़ का मोह त्यागना होगा | साथ में लोकबंदी के दौरान मिले आत्मीयता  के संस्कार को दीर्घजीवी बनाना होगा  , तभी हम इस विपति  से पार आ पाएंगे | तेजी से भाग रहे जीवन का ये ठहराव - काल  यही कहता है कि हमें वैभव विलास से   इतर  अपने  बारे में -- अपने अपनों के बारे में या फिर देश - समाज के कल्याण  के  बारे में  जरुर  गंभीरता  से सोचना होगा | बहुत ज्यादा बड़े नहीं , बल्कि छोटे से छोटे प्रयास जीवन में  बहुत बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं |  दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं ,  कि जीवन में ये ठहराव आवश्यक था -- जो हमें सब कुछ गंवाने के स्थान पर -  बचे हुए को  सहेजने की अनमोल सीख देकर जा रहा है |


ईश्वर से प्रार्थना है महामारी कोरोना का ये भीषण संकट काल मानवता  का  नवप्रभात हो |



             

चित्र ---  गूगल  से साभार | 

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