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शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

प्रेम ना बाड़ी उपजै_____लेख

  प्रेम सदियों से मानव जीवन का   अभिन्न हिस्सा रहा है | हर इंसान  अपने जीवन में प्रेम के अनुभव से गुजरता है | इसे प्रेम, प्यार , इश्क , स्नेह , नेह इत्यादि ना जाने कितने नामों से पुकारा गया और उतनी ही नई  परिभाषाएं  गढ़ी गयी |ये जब भगवान से हुआ - भक्ति कहलाया , प्रियतम से हुआ  नेह  कहलाया , अप्राप्य से हुआ अनुराग कहलाया , संतान से हुआ तो वात्सल्य कह पुकारा गया   , छोटों से हुआ तो स्नेह  हुआ तो किसी रूहानी अनुभव से गुजरा तो  इश्क़ हुआ ||प्रेम जिसे ना कितने गीतों में गाया गया -- ना जाने कितनी कविताओं में   लिखा  गया पर ये अपरिभाषित ही रहा | कोई भी  ज्ञानी  पुरुष इसे    पूर्णतः  लिख ना पाया , क्योंकि जितने इंसान उतने प्रेम के अनुभव ! हरेक की  अपनी अनुभूति  है अपना एहसास है ! ये   वो संजीवनी है जो  नीरस जीवन में आनन्द रस  भरतीहै | प्रेम की  अनुभूति सहजानुभूति है  इसे ना तो बलात पैदा किया जा सकता है ना अभिव्यक्त किया जा सकता है |ये हर अभिव्यक्ति से परे है |ये भीतर के उल्लास का द्योतक है| ये एक    निर्मल और निश्छल स्थिति है  जहाँ  दो मन   एक हो '  मैं  'से 'हम 'की स्थिति में आ जाते हैं |
  किसी अनाम कवि ने लिखा है ----

 प्रेम अदृश्य शक्ति का 
 अनुपम एहसास है 
प्रेम मोतियों की बूंदों से
 झरता जीवन उल्लास है 
प्रेम शब्द विहीन बन्धनों से
 उन्मुक्त -
 दो दिलों का राज़ है !!

तभी इसे जन्मों का बंधन कहा गया तो  कभी  अनवरत साधना |

  
दैहिक बोध से  परे  है प्रेम ---    भले  देह बिना  कुछ संभव नहीं पर प्रेम  दैहिक बोध की वस्तु नहीं |      इसके विपरीत  - जो अंतर्मन को  छू जाए ये वो कला तो है      क्योंकि   जीवन का समस्त उपक्रम  इसी पर तो आधारित है |   प्यार की   प्यास  ही      किसी को  जीवटता से    भर   संघर्ष को उत्प्रेरित करती है |इसी  एक  बिंदु  पर समस्त  कामनाएं  केन्द्रित हो जाती हैं |यह एक समर्पण का   वो संस्कार भाव  है-   जो हर स्वार्थ   और   पूर्वाग्रह  से परे है |इसकी आवश्यकता और महानता    सर्वव्यापी है  जिसे आज तक कोई नकार नहीं पाया है |ये मौन  आराधना   है और एक साधना भी  है जो अकल्पनीय जिज्ञासा से भर  इन्सान को  जीवटता   से  भर देती  है |इसके मौन रूप को  सर्वदा   वन्दनीय कहा गया,   क्योंकि   माना  गया शब्दों के अवलम्बन  से इसमें रिक्तता आ जाती है|
  बशीर बद्र  ने इस प्रेम को यों लिखा --
सरे राह कुछ भी कहा नहीं, कभी उसके घर  में  गया नहीं
मैं जनम-जनम से उसी का हूँ, उसे आज तक ये पता नहीं


 जिसप्यार को   गुलजार ने अनाम ही रखने का आग्रह करते लिखा है   ---
 प्यार कोई  बोल नहीं , प्यार आवाज़ नहीं -
एक ख़ामोशी है सुनती है  कहा  करती है -
ना ये बुझती है  ना रुकती है ना ठहरी है कहीं -
 नूर की बूंद है सदियों से बहा करती है |
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो -
प्यार को प्यार ही रहने दो को नाम ना दो  !!!!! 
 इस प्रेम के विरह  को प्रेमानुरागियों नें  सर्वोपरि  माना और इसमें आनन्द ही  आनन्द  पाया  जैसे मीरा ने    अश्रुओं में   डूबकर भी  असीम विरह  को अनंत आनन्द    का  प्रतीक मान लिखा -- 
  
अंसुवन जल सींच - सींच प्रेम बेल  बोई -

 जब ये बेल फूल चली आनन्द फल होई !!
साहिर  भी मुहब्बत को यूँ  लिख चले -
कौन कहता है मुहब्बत  की जुबां होती है 


 ये वो हकीक़त है जो आँखों से बयां होती है 
  विश्वास है प्रेम का मूल -- प्रेम का  मूल आधार   विश्वास  ही   तो है |जब  कोई किसी पर  गहन   भरोसा करता है,  जहाँ किसी  अनुबंध  के   बिना भी एक अटल विश्वास की अनुभूति होती है  जिससे  हम  निर्भय होकर अपना हर राज  किसी के हवाले कर देते हैं वही है प्रेम का चरमोत्कर्ष ! यही विश्वास    किसी के भीतर  प्राणीमात्र  के लिए   करुणा का  संचार कर  . अपने विराट रूप में प्रकट होता है  |  यह वह अनुभूति थी जिसने   सिद्धार्थ  को बुद्ध बनाकर   करुणा का संदेश दिलवाया तो  प्रेम में आकंठ निमग्न होकर मीरा   से विषपान करवाया ,  क्योंकि  उसे  अपने आराध्य   पर  अखंड विश्वास था कि वे उसे हर हाल में बचा ही लेंगे |   जब इस  विश्वास की परिणिति विष के अमृत बनने से हुई , तो ये   विश्वास का अमर प्रतीक बन गया |  | इसमें स्वार्थ    या अविश्वास   के लिए  कोई जगह नहीं  है |हर किसी ने माना प्यार के हजार रंग है  ,तो अंहकार   उनमे से एक भी नहीं |  अन्तस की मलिनता को धोता प्रेम हमेशा  मानवता के लिए वरदान स्वरूप रहा |इसमें  विश्वास वह  दिव्य दृष्टि  है, जो  मन को निष्कलुष बनाकर उसे उदारता , करुणा और पावनता से  भर देता है |जिसे ईश्वर ने सबके भीतर इस लिए व्याप्त रखा कि वे दूसरों के प्रति कर्तव्य , सम्मान और  संवेदना  के एहसास को     महसूस  कर सकें  ,  क्योकि जिस ह्रदय में प्रेम नहीं वहां ये भावनाएं  और कर्तव्यबोध हो  ऐसा नहीं हो सकता | 
  सबकुछ   छोड़ देता है  प्रेम 
  नहीं छोड़ता - पर भरोसा करना ;
 छोड़ देगा-
जिस दिन वह भरोसा करना - 
यकीन मानो  
उसे कोई प्रेम नही  कहेगा 


[साभार -- एक  अनाम  कवि  ] 

  उन्मुक्त  है प्रेम ----हर अनुबंध हर  अधिकार से परे   है  प्रेम |  इसे ना अनुबंधित किया जा सकता है ना अनुशासित | शायद इसी लिए कोई इसे  सही में परिभाषित नहीं कर पाया क्योंकि इससे यह एक दायरे में कैद हो जाता | और इसी चेष्टा   से उसकी नैसर्गिकता बाधित हो जाती | इसके  निर्बाध रूप की महत्ता को हम अपने आसपास- जीवन में महसूस  कर  सकते हैं |   कोई भी रिश्ता हो ---चाहे माता -पिता का संतान से , भाई का बहन अथवा  पति  का पत्नी से--  हर रिश्ते में एक फासला दरकार है | पर फासले  होने के बाद भी  कोई दूर नहीं होता ,बल्कि  उससे रिश्ते और प्रगाढ़ हो   ज्यादा  स्नेहिल होते हैं | स्वामी विवेकानंद  ने प्रेम को विस्तार कहा  और स्वार्थ को संकुचन  | उन्होंने प्रेम को जीवन का सिद्धांत कहा | प्रेम करने वाले को जीवित माना और स्वार्थी को मृत  ओशो कहते हैं प्रेम पर आधिपत्य जताने से वह समाप्त हो जाता है -तो बुद्ध  ने प्रेम को उस गुलाब की तरह माना ,  जिसे यदि हम  तोड़ कर सुरक्षित अपने पास सुरक्षित रखना चाहें तो हम स्वार्थी हैं | इसके विपरीत  यदि उसी गुलाब को डाली पर निस्वार्थ रूप से  महकता देखें  तो वही  असली प्रेम है ,  क्योंकि    प्रेम हमारे अनावश्यक अधिकार से मुरझाने लगता है  और  धीरे- धीरे  मुरझाकर समाप्त हो जाता है | सच है प्रेम उड़ने के लिए प्रेरित करता है ना कि किसी के पर कतरता है | मुक्ति का दूसरा नाम ही प्रेम है |ये मुक्त प्रेम ही- प्रेम का सर्वोत्तम रूप स्वीकारा गया ,जिसे दिव्य प्रेम कहा गया गया -  भारतीय संस्कृति  में जिसका  सर्वोत्तम उदाहरण राधा - कृष्ण  का प्रेम है जिसने राधा और कृष्ण  को 'राधाकृष्ण ' बना दिया  |
दायित्व बोध जगाता है प्रेम--
 इश्क ने ग़ालिब निकम्मा  कर   दिया  हम भी  वरना  आदमी थे काम  के --
ग़ालिब ने ना जाने किसलिए इश्क को निकम्मेपन का दूसरा नाम   लिख दिया |
   जबकि फैज़ अहमद  फैज़ ने इससे कुछ अलग लिखा --
    वो लोग बड़े खुशकिश्मत थे जो इश्क को काम समझते थे
हम जीते जी मशरुफ रहे, कुछ इश्क किया कुछ काम किया!!!
   आम तौर पर यही  कहा जाता है कि प्रेम किसी भी इन्सान को निकम्मा  बना देता है | पर गहराई से देखा जाए तो  ये बात उन लोगों पर लागू होती है जो प्यार को मात्र एक समय बिताने का साधन मानते हैं | , अन्यथा कर्तव्यबोध का  दूसरा नाम प्रेम है |  नवांगतुक शिशु के  लिए , माता - पिता में जिम्मेवारी की जो भावना जगती है  , एक  प्रेमी जोड़े में एक दूसरे को खुशियाँ प्रदान करने के पीछे जो भावना है या फिर एक सैनिक की   मातृभूमि  के लिए जो चिंता है- उन सबके पीछे  प्रेम की सत्ता ही काम करती है |   हम जिससे  प्रेम करते हैं  उसके लिए  कुछ भी कर गुजरने की आतुरता  ही   प्रेम है   | ये प्रेम ही संवेदनाओं  की भूमि पर कर्तव्यबोध की  प्रेरणा जागता है ||इसमें  सपने  ,  सुख - दुःख ,हँसी- ख़ुशी सब  सांझे  हो जाते हैं | इसी से जन्मा जिम्मेवारी का एहसास सोने पे सुहागा  हो ,  देश- समाज और परिवार की उन्नति में अकल्पनीय सहयोग की भावना से काम  करता है | अपनेपन की भावना का उत्कर्ष इंसान को एक  दूसरे से जोड़ता है | यही अनुभूति प्रेम के रंग को और गाढ़ा कर देती है   
जीवन का बसंत है प्रेम ---
जब जीवन  में प्रेम   की   आहट होती है   तभी माना जाए ये  जीवन के बसंत की  भी दस्तक है   पुनर्नवा सा प्रेम ,उदासी  , अन्धकार और हताशा में प्रकाश का एक बिम्ब बनकर , खुशियों के नये आयाम स्थापित करने में जुट जाता   है  । ये कब  ,  कहाँ    और किससे हो जाए कह नहीं सकते | |पर पूरी दुनिया में किसी एक का जीवन में होना कोई आम बात नहीं होती | इसी एक शाश्वत अनुभूति  में उसका होना इन्द्रधनुष का द्योतक है तो उसकी अनुपस्थिति  एक विराट पतझड़ की | तभी तो अंतस के तिमिर को पराजित करता  हुआ प्रेम बसंत सा खिल हमारी दृष्टि और दृष्टिकोण दोनों को बदल देता है  । व्यक्तित्व  को संवारता हुआ  जीवन का ये बसंत  पूरी कायनात से संवाद स्थापित करने की क्षमता पैदा   करता है | शायद इसी लिए प्रेमासिक्त मन को  सृष्टि का रूप बदला- बदला  सा लगता है   भले ही    हर मौसम की तरह इसका  स्वरूप भी परिवर्तनशील है | पर  इसका  अस्तित्व कभी  मिटता  नहीं   निःसंदेह जीवनको पूर्णता बसंत ही प्रदान करता है  पतझड़   नहीं } ब्रहमांड  का अवलोकन गहराई से  करें तो पता चलता है यहाँ  हर किसी का पर्याय मौजूद  है , इसी क्रम में प्रेम का पर्याय बसंत के अलावा कोई हो नहीं सकता | किसी अनाम कवि ने लिखा --|
  
  बसंत 
एक  मौसम है 
जो मेरे  लिए 
तुम्हारे बिना 
कभी नहीं आता 

प्रेम चिरंतन  है --- 
 प्रेम सदियों से  है और हमेशा रहेगा | इसके बिना सृष्टि में कभी कुछ ना था ना होगा पर परम्पराओं ओर प्रेम में कभी सामजस्य नहीं हुआ   | इनके साथ प्रेम कभी सहज नहीं रहा |  इसी क्रम में   अनगिन पड़ावों से गुजरता प्रेम  कभी हीर रांझा , कभी शशि -पुन्नू  तो कभी लैला - मजनूं बनकर पूर्णता के लिए   संघर्षशील रहा  | वहीँ अपूर्ण रहकर भी राधा -कृष्ण के रूप में वन्दनीय और पूजनीय रहा | | आजके  आधुनिक युग में भी  तेजी से भाग रहे  समय ने , प्रेम को नये रूपों में पनपने के  लिए रख छोड़ा है   प्रेम  सरल नहीं   ,  सहज  नहीं | गुरु गोविंद सिंह जी कहते हैं -- 
ये तो घर प्रेम का है -- खाला का घर नाहीं- 
शीश उतार भूई धरै - तब उतरे इस माहीं 
पर  इसी तरह आने वाले समय में भी प्यार    अनेक अग्निपरीक्षाओं से गुजरता अपने बुलंद वजूद के साथ  हमेशा कायम रहेगा | 
खरपतवार सा ये कहाँ उग आये  ये   कभी पता नही चलेगा | 
जैसा कि कबीर जी ने कहा --

   प्रेम ना बड़ी उपजे -- प्रेम ना हाट बिकाय 
राजा प्रजा जेंहि रुचे -- शीश देहि लिए जाय !!!!!
                       इति

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अंत में प्रेम को समर्पित एक रचना मेरी भी --- 
 प्रेम तुम मुक्त रहो
  हर  अधिकार से ;
 हर  बंधन से
 स्मृतियों के
 हर्ष -विषाद से !
उन्मुक्त विचरों
 सम्पूर्ण सृष्टि में -
   कण -कण को परखने के लिए , 
 ताकि तुम जान सको मोल
 मेरे  समर्पण   और
    मौन आराधन का ;
 और वापिस लौट सको पास मेरे  
कभी दूर ना जाने के लिए ; 
  अदृश्य  हो अरूप हो
 फिर भी  सर्वव्यापी हो तुम 
 तुम में ही तो  समाये  है
ये धरती -  आकाश
और  पाताल !!!!!!!

ब्लॉगिंग का एक साल ---------आभार लेख

 निरंतर  प्रवाहमान होते अपने अनेक पड़ावों से गुजरता - जीवन में अनेक खट्टी -   समय निरंतर प्रवहमान होते हुए अपने अनेक पड़ावों से गुजरता हुआ - ...