आज मेरे ब्लॉग क्षितिज की पाँचवी वर्षगाँठ पर मेरे स्नेही पाठक वृन्द को सादर आभार और नमन | शब्दों की ये पूँजी आप सबके बिना संभव ना थी | हालाँकि पिछले वर्ष लेखन में अपरिहार्य कारणों से कई बाधाएँ आईं पर इस वर्ष ये सुचारू रूप से होने की आशा है |इस वर्ष मेरे पहले काव्य-संग्रह का आना मेरे लिए बड़ी उपलब्धि रही | पिछले दिनों इस पुस्तक की समीक्षा मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय भोलानाथ जी कुशवाहा ने लिखी |जिसके लिए उनके लिये आभार के शब्द नहीं हैं मेरे पास | उन्होंने अपने खराब स्वास्थ्य के चलते भी पुस्तक को बड़े मनोयोग से पढ़ा और अपने विचार समीक्षा के रूप में लिखे | इस समीक्षा को मिर्ज़ापुर के कई समाचार पत्रों में स्थान मिला |आदरणीय भोलानाथ जी को कोटि आभार के साथ उनकी लिखी समीक्षा आज यहाँ डाल रही हूँ | इसी के साथ मेरे अत्यंत स्नेही भाई शशि गुप्ता जी को कैसे भूल सकती हूँ जिन्होंने पुस्तक की कई प्रतियाँ मँगवाकर इन्हें भोलानाथ जी और कई अन्य साहित्यकारों तक पहुँचाया | आपका हार्दिक आभार शशि भैया | पुस्तक में आपके अनमोल मार्गदर्शन के साथ त्रुटी सुधार में आपकी भूमिका अविस्मरणीय है |
समय साक्षी रहना तुम/कविता संग्रह/ कवयित्री रेणु बाला
कविताओं में जीवन की यात्रा कवयित्री रेणु बाला एक गृहिणी के साथ रचनाकार हैं तो उनके पास जीवन अनुभव होना स्वाभाविक है।यहाँ इस संग्रह 'समय साक्षी रहना तुम' में उनकी 65 काव्य रचनाएँ शामिल हैं।कविता संग्रह के शीर्षक 'समय साक्षी रहना तुम' के साथ ही उनके चिंतन की व्यापकता का आभास प्रारम्भ में ही हो जाता है।चिंतनशील और व्यवस्थित कवयित्री के रूप में उन्होंने अपनी रचनाओं के विविध रंगों को पाँच भागों में बाँट कर प्रस्तुत किया है। अपनी कविताओं में वह जीवन और रिश्तों की पड़ताल गहरी संवेदना के साथ करती हुई दूर तक निकल जाना चाहती हैं जिनमें गाँव की स्मृतियों के साथ गहरे संबंधों से जुड़े माँ, बिटिया,पिता,शिशु,भाई तो आते ही हैं साथ ही प्रकृति के साथ उनका तादात्म्य भी गहरा होता जाता है, जहाँ वह आवारा बादल,तितली, गिलहरी, चिड़िया, बारिश,चाँद में रिश्तों की तलाश करती दिखाई देती हैं।रचनाकार कविता की अपनी यात्रा में भावों व अनुभावों की परिधि को बढ़ाते हुए जब भाव प्रवाह में प्रवेश करता है तो वह समग्र की चेतना से सराबोर हो जाता है। वहाँ प्रेम की विराटता नये आकार में उभरती है।वह निजी अनुभूतियों को दुनिया-संसार की गतिविधियों के निरीक्षण से जोड़ कर उसी का हो जाता है। कवयित्री रेणु बाला एक तरह से कविता लिखते-लिखते जीवन लिखती दिखाई देती हैं। वह अपने दौर और लोगों से कई सवाल करती हैं जिनका उत्तर उन्हें शायद ही मिले।हम जब उनके काव्य के विभिन्न चित्रों को उकेरते हैं तो प्रिज्म से निकलने वाली रोशनी के कई रंग साफ दिखाई पड़ने लगते हैं। वह महिला के साथ विवाहित महिला हैं तो उनका गाँव स्मृतियों का गाँव है जो छूट चुका है। उस गाँव को याद करते हुए वह लिखती हैं-"जब कभी तेरे सानिध्य से लौट आती हूँ मैं/तब-तब नई उमंग से भर जाती हूँ मैं/तेरी गलियों में विचर उन्मुक्त/बीता बचपन फिर से जी जाती हूँ मैं..।" अपनी बेटी को देखकर माँ के प्यार को याद करते हुए कहती हैं-"बिटिया की माँ बनकर मैंने/तेरी ममता को पहचाना है/मा-बेटी का दर्द का रिश्त/क्या होता है ये जाना है..।" बूढ़े बाबा को याद करते हुए वह कह पड़ती हैं-"बाबा की आँखों में झाँक रही/स्नेह की छाँव सुहानी है/सुधारस पावन नयनकोर से/छलका पानी है..।"और वह उमंग के क्षणों में प्रकृति के साथ कुछ इस तरह चहकती हैं-"चलो नहाएँ बारिश में/लौट कहाँ फिर आ पाएगा/ये बालपन अनमोल बड़ा/जी भर आ भीगें पानी में..।" मितवा से कुछ अंतरंग बातें-"मीत कहूँ,मितवा कहूँ/क्या कहूँ तुम्हें मनमीत मेरे/तुम्हें समर्पित सब गीत मेरे..।" और वेदना के क्षणों को पकड़ते हुए-"सुन ! ओ वेदना/जीवन में, लौट कभी न आना तुम/घनीभूत पीड़ा-घन बन/ना पलकों पर छा जाना तुम..।" अब संग्रह का वह शीर्षक गीत जो बहुत कुछ कह देता है-- अपने अनन्त प्रवाह से बहना तुम पर समय साक्षी रहना तुम उस पल के,जो सत्य सा अटल ठहर गया है भीतर गहरे रूठे सपनों से मिलवा जिसने भरे पलकों में रंग सुनहरे यदा-कदा बैठ साथ मेरे उन यादों के हार पिरोना तुम..। कुल मिलाकर रेणू बाला जी इस कविता संग्रह में एक समर्थ रचनाकार के रूप उभर कर पाठक के सामने आती है।उनकी रचनाओं में पाठक अपने को ढूँढता है यह विशेषता उनकी काव्य शैली की है।किसी रचवाकार को समझने के लिए उसे विस्तार से पढ़ा जाना जरूरी है।समीक्षक को सूत्रवत जानकारी देने की मजबूरी होती। मुझे उम्मीद है पाठक कविता संग्रह 'समय साक्षी रहना तुम' को सराहेंगे। शुभकामनाएँ ! समीक्षक -- भोलानाथ कुशवाहा बाँकेलाल टंडन की गली, वासलीगंज, मिर्जापुर-231002(उ.प्र) पुस्तक-समय साक्षी रहना तुम विधा- कविता संग्रह कवयित्री- रेणु बाला प्रकाशक-सरोज प्रकाशन, हरियाणा मूल्य-रु 150/- - **-------------------**--------------**------------------**-----------------------*** इस पुस्तक की भूमिका प्रसिद्द ब्लॉगर और साहित्यकार आदरणीय विश्वमोहन जी ने लिखकर इसे विशेष बना दिया | ब्लॉग्गिंग की पाँचवी सालगिरह पर उन्हें आभार सहित भूमिका यहाँ प्रस्तुत है | |
विवेक के वितान पर तने विचार अक्सर सूखे और ठूँठ होते हैं। इसकी प्रकृति विश्लेषणात्मक होती है । ये तत्वों को अपने अवयवी तन्तुओं में तोड़कर अनुसंधान का उपक्रम रचते हैं । इसमें बुद्धि की पैठ अंदर तक होती है। मन बस ऊपर-ऊपर तैरता रहता है। यात्रा के पूर्व का इनका अमूर्त गंतव्य, यात्रा की पूर्णाहूति के पश्चात मूर्त हो जाता है। यहाँ बुद्धि अहंकार से आविष्ट रहती है। अराजकता का शोर-गुल भी बना रहता है। परम चेतना के स्तर पर मन, बुद्धि और अहंकार एकाकार होकर आत्म-भाव में सन्निविष्ट हो जाते हैं। आत्मा की कुक्षी में अंकुरित ये भावनाएँ हरित और आर्द्र होती हैं। यह मनुष्य को जीवन की अतल गहराइयों तक ले जाती है । इसका स्वभाव संश्लेषणात्मक होता है। यह अपने इर्द-गिर्द के तत्वों को अपने में सहेजती हैं । इसमें गंतव्य रहता तो हमेशा अछूता है, किंतु उसको छूने का उछाह अक्षय बना रहता है । गंतव्य का स्वरूप अपनी शाश्वतता में तो सर्वदा अमूर्त रहता है, किंतु उसको पाने की उत्कंठा में वह सर्वदा मूर्त रूप में आँखों के आगे झिलमिल करता रहता है। जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, यह उत्कंठा तीव्र से तीव्रतर होती जाती है: “ज्यों-ज्यों डूबे श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जल होय”। यात्राओं का उत्स तो अनवरत और अनहद होता रहता है, अंत कभी नहीं होता । अतृप्तता का भाव सदा बना रहता है। यह ऊपर से सागर की लहरों के समान तरंगायित तो दिखती है, किंतु इसके अंतस का आंदोलन अत्यंत प्रशांत और गम्भीर होता है । यहाँ अहंकार के लिए कोई अवकाश नहीं ! अंदर के आत्म के सूक्ष्म का विस्तार कब बाहर के अनंत परमात्म में हो जाय और बाहर का अनंत कब सिमट कर अंदर का सूक्ष्म बन दिल की धड़कनों में गूँजने लगे, कुछ पता ही नहीं चलता! ‘अयं निज:, परो वेत्ति’ जैसे क्षुद्र भावों का लोप हो जाता है । मन सर्वात्म हो जाता है। भावनाओं की यही तरलता जब अंतस से नि:सृत होकर समस्त दिग्दिगन्त को अपनी आर्द्रता से सराबोर करने लगती है, तो कविता का जन्म होता है। इसी कालातीत सत्य का प्रकट रूप है, साहित्यकार और ब्लॉगर रेणु रचित कविता संग्रह -‘समय साक्षी रहना तुम’ । ।कहावत है, ‘सौ चोट सुनार की और एक चोट लोहार की ’। सदियों की सामाजिक क्रांतियाँ नारी-सशक्तिकरण की दिशा में अपनी सौ चोटों का वह प्रहार प्रखर नहीं कर पायीं, जो सूचना-क्रांति ने अपनी एक चोट में कर दिया । सोशल मीडिया और ब्लॉग की धमक ने साहित्य-जगत को भी अंदर तक हिला रखा है । तथाकथित प्रबुद्ध साहित्यिकारों के अभिजात्य वर्ग पर सृजन की अद्भुत क्षमता से युक्त, सारस्वत स्त्रियों ने अपनी रचनाशीलता के पाँचजन्य-नाद से अब धावा बोल दिया है । रसोईघर में रोटियाँ पलटने वाली गृहिणियाँ, रचनाशीलता के संस्कार में सजकर अपनी लेखनी से अब पौरुष की दम्भी सामाजिक अवधारणाओं को उलटने लगी हैं । वे अपने विस्तृत अनुभव संसार को अपनी लेखनी में प्रवाहित करने लगी हैं और उनकी यह सृजन-धारा अनायास इंटरनेट के माध्यम से समाज के एक विपुल पाठक वर्ग को भिगोने भी लगी है । स्वभावत: भी, नारी ममता की मंजूषा, वात्सल्य की वाटिका और करुणा का क्रोड़ होती है । उसकी अभिव्यंजना की धारा का साहित्यिक मूल्यों के धरातल पर प्रवाहित होना ठीक वैसा ही है, जैसा कि मछली का जल में तैरना । ‘समय साक्षी रहना तुम ’ कविता-संग्रह इस तथ्य का अकाट्य साक्षी है।‘अंबितमे नदीतमे देवितमे सरस्वती, अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि’ की ऋचाओं से गुँजायमान ऋग्वेद की रचना की भूमि हरियाणा से सरस्वती-सुता साहित्यकार रेणु की कविताओं का यह पहला संग्रह साहित्य के आकाश में एक बवंडर बनकर चतुर्दिश आच्छादित होने की क्षमता से परिपूर्ण है । वंदना के विविध स्वरूपों से लेकर रिश्तों की ऊष्मा, खेत-खलिहान, गाँव-गँवई, चीरई-चिरगुन, गाछ-वृक्ष, सामाजिक संस्कार, माटी की सुगंध, चौक-चौबारों पर बीते बचपन की अनमोल यादें, मानवीय संबंधों की संवेदनाओं का सरगम, पिता का स्नेह, माँ की ममता, बेटी का प्यार और राष्ट्र-प्रेम का ज्वार – इन समस्त आयामों को अपनी अभिव्यंजना का स्वर देती कविताओं का यह संकलन, कवयित्री की रचनाशीलता के विलक्षण संस्कार का साक्षात्कार है। संग्रह के प्रेमगीत परमात्मिक चैतन्य की पराकाष्ठा पर प्रतिष्ठित हैं। अभिसार की रुहानी सुरभि की प्रवाह-तरंगों पर आध्यात्मिकता का अनहद-नाद संचरित हो रहा है, जहाँ मानो अनुरक्त हृदय की भावनाओं का उच्छ्वास एक परम-विलय की स्थिति में थम-सा गया हो और उसमें प्रेयसी और प्रियतम के प्रेरक, कुंभक और रेचक एक साथ विलीन होकर महासमाधि की स्थिति को प्राप्त हो गए हों ।शब्दों की बुनावट के साथ-साथ कहन की कसावट और शिल्प अत्यंत सहज, सुबोध और मोहक हैं, जो प्रीति की अभिव्यक्ति को अपने निश्छलतम स्वरूप में परोसते हैं ।सारत: अब बस इतना ही कि “हे समय! साक्षी रहना--- ‘समय साक्षी रहना तुम ’का !”
विश्वमोहन
सुप्रसिद्ध ब्लॉगर और साहित्यकार