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शनिवार, 24 मार्च 2018

आमुख मानस का ---- लेख


रामचरितमानस के चित्र के लिए छवि परिणाम

श्री राम भारत की संस्कृति का अभिन्न अंग है  और तुलसीदास श्री राम के अनन्य उपासक और श्री रामके चरित्र  के अद्भुत गायक कवि हैं -- जिन्हें भक्तिकाल के कवियों में शीर्ष स्थान प्राप्त है | श्री रांम के जीवन का अद्भुत आख्यान   ''रामचरितमानस   ''  न केवल श्री राम के आदर्श रूप को दिखाता है बल्कि इसमें तत्कालीन संस्कृति के विराट दर्शन होते है | मानस की प्रस्तावना में तुलसीदास जी ने खुद को निपट गंवार दर्शा कर अपनी रचनात्मकता का पूरा श्रेय अपने गुरु को दिया है -- पर प्रस्तावना के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में लिखे गए संस्कृत के सात श्लोक और उनमे अपने आराध्यों के प्रति माधुर्य से भरपूर विनम्र प्रार्थनाएँ उनके संस्कृत के कुशल ज्ञाता होने की तरफ इंगित करती हैं -- | इन शलोको के अलावा भी तुलसीदास जी ने पूरी प्रस्तावना में स्वयं को दीन - हीन और निपट अशिक्षित जता कर सारा श्रेय अपने गुरुजनों और दैवीय शक्तियों को देकर अपनी विनम्रता का अनन्य परिचय दिया है |वे अपने बारे में लिखते हैं ------------- 
मतिअति नीचऊँच रूचिआछी-चहीयअमियजग जुरै ना  छौछि--
क्षमहि सज्जन मोरढिठाई-सुनहि बाल वचन मनलाई ||
अर्थात   अपने ज्ञानको बहुत छोटा बताते हुए वे कहते हैं की ''मेरी बुद्धि तो बहुत  तुच्छ है और आकांक्षा बहुत बड़ी | मेरी इच्छा तो अमृत की है और संसार में छाछ भी दुर्लभ है | फिर भी सज्जन पुरुष मेरी इस ठीठता को क्षमा करते हुए  मुझ बालक के वचन मन लगा  कर  सुनेंगे | 
प्रस्तावना में उन्होंने रामायण के सारे पात्रों का का सूक्ष्म चरित्रण किया है और उन्हें गुणों की खान बता कर अपनी अप्रितम श्रद्धा उनके श्री चरणों में उड़ेल दी है | सच ये है कि मानस की प्रस्तावना में से हमें लघु रामायण के दर्शन हो जाते है |  भगवान राम भारतीय संस्कृति में  प्राण स्वरूप है | उनके उल्लेख  के बिना  ये  नितांत प्राणहीन और   श्री हीन  है | श्री राम जी के बारे में अनेक  कथाएं और किवदंतियां प्रचलित हैं | पर  प्रमुख रूप से    आदि कवि   बाल्मीकि जी के संस्कृत रामायण  के साथ  उन्ही  से प्रेरित  गोस्वामी तुलसीदास  द्वारा रचित  ''रामचरितमानस ''  को राम कथा का शिरोमणि ग्रन्थ माना  जाता है | गोस्वामी तुलसीदास  जी  भक्ति काल के  शिरोमणि   कहे जाते हैं |'अवधी '  भाषा में लिखा उनका महाकाव्य  हिंदी साहित्य  की अनमोल रचना है जिसमे  श्री राम जी  को   विष्णु जी के  त्रेता युगीन  अवतार के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम  बताया गया   है | गोस्वामी जी ने कथा को सरस और सरल बनाने में कोई कसर नहीं  छोडी है | भाषा   में अलंकारों का चमत्कृत शैली में प्रयोग किया गया है विशेषकर   ' अनुप्रास ' में    उनका कोई  सानी  नहीं है  |
तुलसी  दास  जी ने रामायण की प्रस्तावना में  अपनी  विलक्षण  काव्य   क्षमता   का  भरपूर  प्रयोग  किया है |   उन्होंने  सर्वप्रथम संस्कृत में  सात  श्लोको में   अप्रतिम  मंगलाचरण की परम्परा  का   का निर्वहन किया है  जिनमे से  सर्वप्रथम  प्रथम पूज्य  गणेश जी  और  सरस्वती की वंदना   की  है –   तत्पश्चात शिव पार्वती –के बाद अपने  गुरुदेव की अनन्य  प्रार्थना और  वंदना की है चौथे  श्लोक में  उनकी  प्रार्थना  वीर बजरंगी  हनुमान जी और बाल्मीकि   जी को समर्पित  है  इसके  बाद  सीता जी  को रामाबल्ल्भा  के  नाम से पुकारते  हुए  प्रणाम करने  के  बाद अपने  आराध्य श्रीरामजी का चरण वंदन किया है |   सातवें और  अंतिम संस्कृत श्लोक  को  उन्होंने  राम कथा  के  स्त्रोत के  रूप  में   बाल्मीकि रामायण को  अपने  श्रद्धा  - सुमन  अर्पित  किये  हैं इसके बाद  तुलसीदास जी  राम कथा के  धरातल  पर उतरते फिर से  अनेक  दैवीय शक्तियों  का आह्वान करते हुए  उनसे  आशीष  की   गुहार   लगाते  हुए  आगे  बढ़ते  हैं यहाँ वे  अपने  आराध्य को  बहुत  कृपाली  दयालु  पुकारते हुए कहते  है कि ---
मूक होई  वाचाल , पंगु चढे  गिरिवर  गहन |
जासु किरपा सुद्याल , द्रवों सकल कलिमल दहन | | 
उन्होंने अपने  आराध्य  को नील कमल के सामान सुंदर रंग वाला  और नव कमल  के सामान खुले  नेत्रों वाला कहकर   पुकारा    है |  तुलसीदास जी ने अपने  गुरुदेव  की अनुपम वंदना  कर  उन्हें   कृपा के सागर और सूर्य किरणों  का समूह  कहकर  पुकारा है वे लिखते  हैं ------
बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥ 
इसके बाद विभिन्न देवी देवतायों के  साथ  उन्होंने  समस्त  संत  समाज  को नमन करते  हुए  उन्हें  धर्म का मूल  और  जग में  परोपकार की गंगा कहकर  पुकारा है और  उनकी  चरण वंदना  की है \| उन्हें  हंस  की उपाधि देकर ज्ञान की गंगा  पुकारा है  जिसमे स्नान करने से कौआ भी हंस  बन जाता है वे  कहते  हैं ------------- 
मुद –मंगलमय संत समाजू – 
जो जग जंगम तीर्थ राजू   | 
अर्थात मंगल और   आनन्द  प्रद संतों का समाज संसार में  चलते फिरते  तीर्थराज के  समान है | तुलसीदास जी   मंगलाचरण में  संतों के  सामान ही दुष्टजनो  की  स्तुति  करते  नजर  आते  हैं  इसके  पीछे  उनका  बड़ा  ही  मासूम सा  उद्देश्य  परिलक्षित  होता है  -- कि दुष्टजनो  को  अपनी  स्तुति  से  प्रसन्न कर  किसी  भावी  आपदा  से  स्वयं को बचा  सके  --अर्थात  विनम्रता की खान गोसाई  तुलसीदास  जी संसार में  सबको   समभाव से  निहारते  हुए  राम कथा  में  आगे  बढ़ते कहते   हैं  कि ---- 
बहुरि बंदी खलगन सति भाये जे बिन काज दाह्नेहू बाएं |परहित  हानि लाभ जिन्केरे –उजरे हर्ष विषद बसेरे ||
अर्थात वे उन दुष्टजनों को भी वन्दनीय  मानते  हैं जो  व्यर्थ में  शत्रुता  और  मैत्री रखते  है और दूसरों कि हानि में  अपना लाभ और  विनाश  अर्थात उजड़ने में  अपनी ख़ुशी और बसने में  दुखी होते  हैं | उन्होंने ऐसे लोगों कि तुलना राहू से की है  और  उन्हें  अग्नि  और  यमराज के  तुल्य  समझा है और  वह कौआ   बताया है जिसे  कितना भी खीर पुडी खिलाओ वर निरामिष नहीं हो सकता | |अंतमे  संत और  दुष्टजनों के  अंतर को  गोस्वामी जी ने  बखूबी  दर्शाया  है  संतो को  कमल के सामान तो  दुष्टों को जोंक  की उपाधि देकर फिर से  उनकी चरण वंदना कर  उन्हें अपने विनम्र  होने का  सबूत   देते  हुए एक   व्यापक अंतर दोनों के  मध्य  बड़ी  ही सुंदर  पंक्तियों में  दर्शाना  नहीं  भूले  जो  समस्त  तुलना का सार प्रतीत  होता है -
बिछुरत एक प्राण हर लेहिं मिलत एक दारुण दुःखदेहि
  अर्थात एक यानि साधू   बिछुड़ने  के समय प्राण हर  ले जाते हैं और  दूसरे यानि दुष्टजन मिलते  ही दारुण  पीड़ा देने  से  बाज नहीं  आते | अर्थात विनम्र रहते हुए भी गोस्वामी जी ने दुष्टों को खरी खोटी सुनते हुए उनके अवगुणों की समस्त परतें उधेड़ डाली हैं |  उनकी विनम्रता को उन्होंने कोरा   ढोंग करार देते हुए  बताया है  कि वे भले ही कितना भी साधू वेश क्यों ना धारण कर ले अंत में उनके इस  छद्म वेश की पोल अवश्य ही खुल जायेगी और वे  निर्वाह को नहीं अंत को प्राप्त होंगे जैसे कालनेमि , रावण और राहू इत्यादि का अंत इसी प्रकार हुआ था | 
 इस प्रकार हम देखते हैं कि बड़ी ही निपुण चतुराई से तुलसी दास जी  इस  अंतर  को  व्यापकता देते  हुए  आगे बढ़ते  हैं |   अंत में वे  अपने  प्रणेता  बाल्मिकी  जी  की चरण वंदना करते हुए ब्रहमा जी . चारो वेदों , गंगा ,देवता ,   ब्राह्मण  ,सरस्वती ,  इत्यादि  के साथ माता - पिता स्वरूप  शिव -पार्वती  और रामजन्म  नगरी  अयोध्याजी  को  प्रणाम करते हुए अपनी कथा आगे बढ़ाते है |     रामचरितमानस की प्रस्तावना    से राम कथा का     सरस सूत्रपात   होता है  जो  श्रद्धा   के  पावन पथ से  गुजरती  हुई  अपने  आराध्य  श्री राम के चरणों   तक जा पंहुचती है जो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं  और भक्त वत्सल हैं , जिनके जीवन के अनेक  प्रेरक प्रसंग  भारतवर्ष के  लोक जीवन में चेतना और  भव्य नैतिक मूल्यों का प्रसार  करते है | और वैसे भी गोस्वामी जी का कहना है --- 
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
अर्थात कलयुग में  ना कर्म है ना भक्ति और ना ही ज्ञान है | कलयुग में केवन राम जी  का नाम ही एकमात्र अवलंबन है | | 

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रविवार, 11 मार्च 2018

पुस्तक समीक्षा --------- मन कितना वीतरागी --लेखक -- पंकज त्रिवेदी जी --


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शब्दनगरी पर  पिछले साल जनवरी  से  लेखन के दौरान  कलम के  धनी  अनेक  विद्वानों से परिचय  हुआ उन्ही मे से  एक हैं आदरणीय  'पंकज  त्रिवेदी 'जी | पंकज जी का लेखन मंच  पर अपनी अलग पहचान रखता है |  उनकी   रचनाओं  में एक  हृदयस्पर्शी  भाव संसार  संजोया गया है | मैंने वहां उनकी रचनाएँ खूब पढ़ी |  उन्होंने  भी कई बार मेरी रचनाओं को  पढ़कर उनपर कुछ शब्द लिख मुझे भी कृतार्थ किया जो शब्द नगरी से जुड़े  मेरे  बहुत ही  यादगार  अनुभवों  में से एक है | इसी बीच  मुझे  पता चला  कि पंकज  जी   हिंदी ,गुजराती  में रचनाकर्म करने के साथ- साथ  गुजरात  राज्य से  '' विश्वगाथा ''  नाम की हिंदी पत्रिका भी निकालते हैं | बहुत आश्चर्य हुआ और  कौतुहल  भी कि डिजिटल क्रांति के युग में     एक अहिन्दी राज्य  से हिन्दी पत्रिका ?  आखिर कैसा अनुभव रहा होगा ?  एक प्रकाशक  के रूप में इन सब जिज्ञासाओं  के साथ साथ  पंकज जी ने  पढने के लिए मुझे  ' विश्वगाथा'  का एक अंक  भी भिजवाया  जिसे पढ़कर मुझे उनकी  साहित्य साधना का आभास हुआ और मैंने  पत्रिका की  पञ्च वर्षीय  सदस्यता  ले ली | इसी  बीच  कुछ दिन पहले  पंकज जी  के  निबंध संग्रह  ' मन कितना वीतरागी ''   के बारे में पता चला  | पुस्तक के बारे में  विश्वगाथा  ब्लॉग पर पहले ही  सूचना  दी जा रही थी कि ये पुस्तक प्रकाशित होने वाली है| प्रकाशित होने के बाद पंकज जी ने मुझे पुस्तक भिजवाई और मैंने बड़ी ही तन्मयता से इसे पढ़ा तो एक रूहानी आनद की अनुभूति हुई जिसका अनुभव सबके साथ बाँटने का मन हो आया है |
 ' मन कितना वीतरागी ' एक निबंध संग्रह है जिसमे  छोटे -बड़े  अनेक  लघु निबंध हैं | कोई भी पुस्तक  एक साहित्यकार  के   विचारों का दर्पण होती है | एक -एक शब्द से संजोयी गयी शब्द संपदा में  अनथक  रचनात्मक   कर्म और श्रम होता है | इसी तरह  'इस पुस्तक के जरिये  पंकज जी के आंतरिक  भाव संसार से परिचय हुआ | अलग -अलग  विषयों पर उनकी प्रखर दृष्टि  जिज्ञासा से भर     जाती है |
पुस्तक के प्रारम्भिक  लेख में ही  लेखक ने निबंध को अपनी आत्मा का अभिन्न अंग बताते    लिखा  हैं , ''कि  - निबंध मुझे अपने साथ यात्रा करवाता है -- और मैं  उसी यात्रा से अनवरत  अपने  भीतर की यात्रा का  मुसाफिर बन जाता हूँ | 'इसी आत्म बोध में जीते  लेखक  की अनेक  विषयों पर  अपनी अलग अंतर्दृष्टि   दिखाई देती है | प्रकृति ,नारी और समाज   पर   उनका   चिंतन   बहुत  गहरा और अप्रितम है | प्रकृति से उनके मन का संवाद   चलता रहता है | वे  पेड़ों से मन की बात कहते हैं तो शाम की  दुविधा से रूबरू होते  उसे अपनी  कविता सुनाते हैं तो समन्दर  की  ओर से  नदी को भाव पूर्ण उद्बोधन एक नदी के अनवरत संघर्ष  को उकेरता  है    |झील  , सूरज की किरने  तुलसी का पौधा    और मछली - प्रकृति के ये अंश  लेखक के मन  ला अभिन्न हिस्सा है
नीम के पेड़ से बचपन का भाव पूर्ण  संस्मरण एक पीढ़ी का  अपनी दूसरी पीढी  को  कई   अनुभवों सी वंचित रह जाने का  मलाल  है | गाँव से आजीविका की तलाश में शहर भाग आये व्यक्ति   की वजह से  सूने पनघट ,   खाली  खेत खलिहान , चौपालों के सन्नाटे  और बैलों की जोड़ियाँ  लेखक की स्मृति से कभी ओझल नहीं होते | उन्हें   तालाब में नहाते -कूदते  बच्चों नहाते बच्चों की भी  अभी  तक याद है | गाँव से अनुराग होते भी शहर की सुविधाओं के आदि  हो चुके तन और मन  को अब गाँव लौटने की कोई चाहत नही है क्योकि अब वहां जीवन जीना सरल नहीं असहज  होगा | गाँव लालच में अब  शहरों  से भी आगे जो बढने लगे हैं उसके लिए जहाँ  खेतों को बेचने से भी गुरेज नहीं किया जाता और वो अतीत की रौनकें भी  ओझल हो चुकी हैं | फिर भी गाँव  रूपी जड़ों से जुडा  वीतरागी मन कभी गाँव   को  नहीं  भुला पाता |    अपनी जड़ों से जुड़े लेखक की  स्मृतियों  में संजोया गया  गाँव  , बचपन के साथी , संस्कार  माँ की सीख  सभी कुछ ज्यों का त्यों है | गाँव  की पगडंडियों पर बीते बचपन की कई यादे अक्सर उसके मन को झझकोरती हैं जिन्हें सुनाने का लेखक का अपना ही अंदाजे बयां है |शब्दों में  सादगी भरी निरंतरता आखिर तक बांधे रखती है |अपनी  पैदल यात्रा में  अपने  बचपन की कहानी सुनाते वे अपनी माँ के बचपन तक जा  पहुँचते हैं  जिसे  उन्होंने अपनी आँखों से नहीं देखा  अपितु   पिछली पीढ़ी की किस्सागोई के जरिये ये बात उन तक पहुंची है | इसी यात्रा में वे बचपन से लेकर  आज तक की   यादों से मिलते  आगे बढ़ते है और शहर में समा जाते हैं  | वे  भीतर व्याप्त  करुणा और संवेदनाओं  का श्रेय अपने गाँव को ही देते हैं जिसे वे इंसानियत को अर्पित करना चाहते हैं |
 प्रेम को  आज तक  ना जाने कितनी बार परिभाषित किया पर इस पुस्तक में प्रेम को जिस  नजरिये  से देखा गया वह अन्यत्र  दुर्लभ है | | लेखक का मत है ,''प्रेम स्वयं प्रकाशित ज्योति है ,जिसका अर्थ  किसी अन्य के जीवन में समर्पित उजास फ़ैलाने से है ''| वे मानते हैं प्रेम में सात्विकता ही उसकी सच्चाई है |बड़े साहस से लेखक  ने  स्वीकारा है ''कि चाहत मेरा स्वभाव है और समर्पण मेरा संस्कार |''इसी प्रेम के वशीभूत  लेखक ने हर उस रिश्ते को सम्मान दिया है जो  औपचारिक  रिश्तों  की श्रेणी में नहीं आते हुए भी हर इन्सान के जीवन का अहम्  हिस्सा   बनकर जीवन के पथ को अपनी प्रेरणा से आलौकित करते हुए  जीवन में साथ साथ चलते रहते हैं  |ये सर्वथा दिव्यता से भरे हमारा मार्ग प्रशस्त करते रहते हैं | 
अतीत  के  प्रणेताओं को लेखक  का  बहुत ही  भावपूर्ण  उद्बोधन   मन को भिगो जाता है क्योकि  कोई भी सफल व्यक्ति सिर्फ अपनी वजह से सफलता  के शिखर  नहीं  छू सकता  अपितु उसकी  संघर्ष यात्रा में अनेक लोग प्रेरणा देते हुए समानांतर चलते हैं  , पर मिलना और बिछुड़ना  जीवन का नियत कर्म है | अपने प्रणेताओं को कृतज्ञता से पुकारते हैंऔर उनके प्रति अपना अशेष स्नेह  समर्पित करते   हैं |  लेखक ने स्वयं   को  एक फ़क़ीर की संज्ञा  दी है | सच कहूँ तो  ये पुस्तक  लेखक  के  भावों और  सूक्ष्म  संवेदनाओं की  अंतर्यात्रा    है - जिसमे  एक आत्मवैरागी और मौनव्रती सा लेखक  अपनी  भावनाओं  को   पद्यात्मक  गद्य में पिरोता नजर आता है| |जीवन में  अनायास उमड़ती    महीन सी हसरते , क्षणिक भाव और  समस्त  वेदना चंद  शब्दों में ही  प्रवाहित हो पाठक के मन में समा जाती हैं | मौन को लेखक  ने जीवन का बेहतरीन संवाद मान  कर कई रचनाओं में  मौन  को प्रखरता से प्रतिष्ठित किया   है  तभी तो    मौन से संवाद कर  तन्हाई को अपने जीवन में लौट आने का आग्रह किया |है जहाँ अपने आप से संवाद हो , अपने अंदर की गहराई में उतरने का उपक्रम हो  ताकि  वो  खुद  को आसानी से समझ  पाए और बेबाकी से भीतर समायी स्मृतियों की छवियों से  से रूबरू हो सके |इसी  क्रम में समाज के कई दृश्य  पुस्तक के पृष्ठों पर साकार होते नजर आते हैं  | चौराहा , फूटपाथ ,बंजारा , भूचाल , आदि रचनाओं में उनके चिंतन  का भिन्न रूप नजर आता है |

मुझे पुस्तक में नारी विषयक लेखों ने बहुत प्रभावित किया है जहाँ लेखक ने  नारी के विभिन्न रूपों को नमन करते हुए उसकी  महिमा को नमन किया है | माँ के  ना होने के बावजूद भी  माँ के लिए उनके मन में  अपार स्नेह है | आज भी वे माँ को अपनी प्रेरणा मानते हुए उनसे  मन का संवाद करते हैं | संसार में  चाँद को मामा कहा  जाता   पर माँ के ना होने  की दशा में उसका लेखक की आंतरिक पीड़ा से विरक्त होना लेखको को खल  जाता  है और वो उसे उलाहना देने से खुद को रोक नहीं पाता | इसी उपालम्भ से जनित एक भावपूर्ण रचना इस निबंध संग्रह का अहम्  निबंध है |   पत्नी  में  भी लेखक को नारी के अनेक रूप नजर आते हैं  जहाँ उसका   विकल मन हर पीड़ा से  राहत  पाते हुए सुखद अनुभव से गुजरता है |  वे उसे  प्रियतमा  के रूप में भी देखते हैं तो वात्सल्य लुटाती  ममता की देवी के रूप में भी | उसके  निर्मल प्रेम की   आभा  में अपनी चेतना को आत्मसात कर अचम्भित हो अंत में कह उठते हैं -'' तुम  औरत भी हो और ईश्वर भी  |''
 लेखक ने स्वयम को बुद्ध  सरीखा  माना है जहाँ अपने  अधूरेपन  को पूर्णता की ओर ले जाने के प्रयत्न में एक  अंतहीन यात्रा की ओर अग्रसर  होने का चाह है | जहाँ निर्विकार हो  बुद्ध होने की इच्छा बलवती होती जाती है |
अंत में  कहना चाहूंगी मुझे इस पुस्तक के रूप में  अध्ययन का एक अलग अनुभव प्राप्त हुआ जिसके  दौरान मैंने अनुभव किया  ये एक  कवि  की संवेदनाओं का   बहुत अनुपम   संसार है जिसे पढने  के दौरान हम एक अलौकिक आनंद से गुजरते  है | ये निर्बंध कवि का वीतरागी मन हैजहाँ  भावनाओं का बहुरंगी संसार  मन को विस्मय से भर  एक व्यापक चिंतन  की ओर ले जाता है |
 ''मन कितना वीतरागी ''के रूप में  अत्यंत विलक्षण प्रस्तुती के लिए  मैं आदरणीय पंकज जी को हार्दिक   बधाई और शुभकामनाये  देते हुए   आशा करती हूँ कि  मेरी तरह   अन्य पाठक वर्ग भी यह पुस्तक बहुत पसंद आयेगी |


पाठक  पुस्तक के विषय में सभी जानकारियां इस फोन  नंबर   से  ले सकते   हैं - ----- 

09662514007
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ब्लॉगिंग का एक साल ---------आभार लेख

 निरंतर  प्रवाहमान होते अपने अनेक पड़ावों से गुजरता - जीवन में अनेक खट्टी -   समय निरंतर प्रवहमान होते हुए अपने अनेक पड़ावों से गुजरता हुआ - ...