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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

मेरे गाँव के गुमनाम शायर


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 अपने  गाँव के कविनुमा व्यक्ति को जब मैंने पहली बार  अपने  घर की बैठक में देखा  , तो मेरे आश्चर्य  का कोई ठिकाना ना रहा | मैं उन्हें आज  अपने घर की बैठक में पहली बार   देख रही थी |इससे पहले मैंने उन्हें अपने गाँव की अलग -अलग  गलियों में निरर्थक  घूमते  देखा था या फिर जहाँ - तहां  मज़मा जोड़कर सुरीले स्वर में गीत जैसा कुछ  सुनाते देखा था  , जिसे सुनकर मज़में  का हिस्सा बने लोग वाह - वाह करने लगते थे | यह गीत जैसा कुछ कभी मेरी समझ में ना सका , क्योंकि एक तो उस समय मेरी उम्र      बारह - तेरह  साल की मुश्किल से होगी |  दूसरे , गाँव में   पुरुषों की इस तरह की सभाओं  को   लडकियों  द्वारा देखा या  सुना जाना , अर्थात किसी भी तरह से इन  इनका हिस्सा बनना  अच्छा नहीं समझा जाता था | पर मुझे ये कविनुमा व्यक्ति , हमेशा  बहुत ही दिलचस्प लगते| ढलती उम्र ,  मझौला  कद  और झुकी कमर , जिस पर हाथ टिकाकर वे फुर्तीली   चाल  से वे  गाँव में इधर उधर घूमते  रहते थे |गाँव- भर से  अलग पहनावा पहने रहते -----सर्दी में चूड़ीदार पज़ामा , बंद गले की काली शेरवानी  के साथ सर पर   टोप नज़र आया करता |गर्मियों में शेरवानी की  जगह  लम्बा सफ़ेद कुरता ले लेता  और सर से  टोप गायब हो जाता  !
उस दिन, बाबाजी  [ दादाजी ] से उन्हें घुलमिल कर बातें करते देख लग रहा था , कि दोनों  की   जान - पहचान   पुरानी है  ! उन्होंने बाबाजी से कुछ देर  बात  की और चले गए |उनके आने और जाने के  बाद  तक  ,  हम बच्चों का  सब्र का बांध टूट चुका था | हमने तत्परता से  बाबाजी से उनके बारे में कई सवाल कर डाले |बाबाजी ने बड़े धैर्य से  हमारी  जिज्ञासा  शांत  की और  उन सज्जन का परिचय देते  हुए कहा  ---'' कि वे उनके सहपाठी  और  हमारे   गाँव के  प्रसिद्ध  पुरोहित और ज्योतिषी  पंडित रमानाथ जी के इकलौते पुत्र  मुरलीधर थे  , जिन्हें उनके पिता अपनी ही तरह एक कर्मकाण्डी ब्राहमण   बनाना चाहते थे , ताकि  वह उनकी खानदानी विरासत को  अच्छी तरह संभाल सके |पर बेटे का रुझान उर्दू की तरफ देख उन्होंने  माथा  पीट लिया |उनके लाख समझाने पर भी मुरलीधर शहर के संस्कृत कॉलेज  में कर्मकांड की पढाई करने नहीं गये , तो वहीँ उर्दू की पढाई पर उनके पिता को घोर आपत्ति थी |क्योंकि  वे नहीं चाहते थे , कि उनका बेटा ब्राहमण  होकर गैरमज़हबी   ज़ुबान [ भाषा ]  पढ़े  | ''मेरी जिज्ञासा अनंत थी  -- मैंने फिर पूछा  - ''गैर मज़हबी क्यों , बाबाजी ?''------
''बेटा , कई संकीर्ण विचारधारा के लोग भाषा को भी धर्म , जाति से जोड़कर देखने लग जाते हैं | किसी  भी भाषा के बारे  में  ऐसी सोच रखना दुर्भाग्यपूर्ण है |'' बाबा जी ने बड़ी निराशा से बताया |उन्होंने आगे बताना जारी रखा ------ तमाम घरेलू  बंदिशों  के मुरलीधर ने  उर्दू भाषा    के प्रति अपने प्यार को तनिक भी कम ना होने दिया |इसी लगाव के चलते  उन्हें  उर्दू शायरी का भी चस्का लग गया | वे उर्दू के बड़े शायरों  के शेर  याद  करते और उन्हें लोगों को सुनाते |उनके पिता ने उनके इस शौक से परेशान होकर  ,    उन्हें  किसी काम पर लगाने की सोची |क्योंकि और किसी काम में तो मुरलीधर का रुझान था ही नहीं , सो उन्होंने   बेटे के लिए घर के पास  ही  राशन की एक  दुकान खुलवा दी |पर दुकान पर बैठकर भी उनका ध्यान  काम में कम और  शेरोशायरी में ज्यादा रहा |लोग उनकी दुकान पर राशन लेने आते तो उनसे अक्सर दो चार शेर सुनाने का आग्रह  करने लगते , जिसे वे सहर्ष  स्वीकार कर लेते और  तुर्त- फुर्त दो चार शेर  सुना डालते , जिस पर उन्हें खूब दाद मिलती |प्रसिद्ध शायरों की शायरी पढ़ते -पढ़ते एक दिन वे खुद भी  अच्छे शायर बन गए और अपने लिखे शेर भी लोगों को सुनाने लगे |उनका काम थोड़ा  जम गया,  तो उनके पिता ने एक सुयोग्य लड़की  देखकर उनकी शादी करवा दी |सुंदर , सुशील   और सुघड़ पत्नी पाकर उनकी शायरी और भी निखरने लगी |इसी बीच आजादी के बाद  उर्दु की जगह हिंदी भाषा  ने ली थी और उर्दू जानने वाले  दिनोंदिन कम होते जा रहेथे |पर फिर भी लोग उनके शायराना अंदाज के दीवाने हो चुके थे |''
अपने शायर  मित्र के बारे में  बाबा जी ने आगे बताया  , कि   साहित्य प्रेमी होने के नाते वे स्वयं भी  अपने दोस्त की  शायरी से बहुत प्रभावित थे |वे उन्हें समझाते  कि वे अपनी लिखी रचनाओं को किसी अखबार , पत्रिका आदि में प्रकाशनार्थ भेजें या फिर सारी रचना सामग्री को संग्रहित किसी किताब की शक्ल में छपने हेतु भेंजे  ,  पर उन्होंने उनकी  बात को कभी गंभीरता से नहीं लिया |इसका कारण था  उनकी उर्दु प्रकाशन संस्थानों तक उनकी पहुँच ना होना |साथ ही वे अपनी दुकान पर बैठकर  शेरोशायरी   करने में ही असीम आनंद  और  संतुष्टि  का अनुभव करते थे |
बाबा जी ने हम बच्चों को बताया किअब उनके शायर मित्र ने  अब उनकी सलाह मानकर , अपनी सभी  रचनाओं को एक  पुस्तक  की शक्ल में छपवाने का मन बनाया है |क्योंकि जीवन के ढलते पड़ाव  पर वे  भीषण आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे  थी |इसका एक कारण था  बड़े बेटे द्वारा उनकी दुकान पर कब्जा    करना  ,  दूसरे  उनकी गिरती सेहत |छोटे बेटे की नौकरी किसी दूसरे शहर में थी  , अतः वह सपरिवार वहीँ जा बसा था |उसके बाद उसने माता - पिता की खोज खबर लेना मुनासिब ना समझा था |दुकान हाथ से जाने  बाद एक मामूली बुखार से पत्नी  की मौत ने उन्हें भीतर तक हिलाकर रख दिया |मायूसी  और तंगहाली के इस दौर में उन्हें  बाबाजी की सलाह बिलकुल  सही लगी |आज इसी संदर्भ में वो बाबा जी से मिलने आये थे | बाबाजी ने उन्हें मदद करने का पूरा भरोसा दिया | उन्होंने हम   बच्चों को   समझाया कि हम सब बच्चे उनके शायर मित्र  को  उन्हीं  की तरह  ही   बाबाजी    कह्कर  बुलाएं  और जब कभी वे हमारे घर आयें उनका  पूरा आदर -सत्कार करें | वे आगे बोले ,'' वे     अत्यंत  विद्वान्  व्यक्ति हैं  और हमारे  गाँव के इकलौते शायर |''उनकी ये पंक्तियाँ सदा के लिए मेरे मन में बस गई|
--------दो चार दिन बाद वे फिर आये और एक फटी पुरानी ड़ायरी  बाबाजी के हाथ में पकड़कर तुर्त-फुर्त वापस चले गये |बाबा जी साहित्य प्रेमी थे और उर्दू के अच्छे जानकार भी | वे अक्सर किताबें पढ़ते नज़र आते जिनमें  ज्यादातर उर्दू की होतीं || उस दिन उन्होंने अपने शायर मित्र की शायरी में दिलचस्पी दिखाते हुए , पूरा दिन उनकी डायरी  पढने में लगाया | अगले दिन उन्होंने अपने मित्र को पुनः बुलाया और   उनकी डायरी  के साथ , अपने  बक्से  में से एक नया कोरा रजिस्टर निकालकर उन्हें पकडाते हुए  कहा कि  वे अपनी डायरी में लिखी सभी रचनाएँ पुनः उस रजिस्टर में लिख कर दें |ताकि   वे शहर के उर्दू प्रकाशन संस्थान में जाकर  उनकी रचनाओं को एक दीवान के रूप में  छपवाने  के लिए प्रयास कर सकें |बाबाजी ने बड़े उत्साह से हम बच्चों को बताया कि  यदि  ये  किताब  छप  गई , तो लोग उर्दू के बड़े-बड़े शायरों के साथ उनके मित्र  मुरलीधर का नाम भी लिया करेंगे | यही नहीं लोग हमारे गाँव को भी     मुरलीधर  के नाम से जानेंगे |
सबसे बड़ी बात ये होगी,  कि इस किताब के प्रकाशन से इस मुफ़लिस    और परिवार द्वारा   दुत्कारे गए शायर को नाम और पैसा दोनों मिलेंगे | बाबा जी की इन बातों ने  शायर   बाबाजी में मेरी दिलचस्पी और बढ़ा दी  थी  |मेरा मन रोमांचित हो उस दिन की कल्पना करने लगा जिस दिन किताब छपकर  आयेगी और हमारा गाँव उर्दू के इस उम्दा शायर के नाम से जाना जाएगा |हो सकता है कभी हम हिंदी में भी उनकी रचनाएँ पढ़ पायें |मेरे  किशोर मन  उम्मीद की नई  उड़ान  भरने लगा था |
 इस बात को कईं दिन गुजर गये | बाबाजी को पता चला कि उनके मित्र ने नये रजिस्टर में अपनी सभी रचनाएँ लिखने का काम लगभग पूरा कर दिया है
वे उन्हें छपवाने के लिए शहर जाने ही वाले थे, कि इसी बीच  उन्हें किसी काम से एक    रिश्तेदारी में  जाना पड़ गया |और उन्हें वहां से लौटने में कई दिन लग गये
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इसी  बीच  बाबाजी के बताये  शायर   बाबाजी  के निवास पर जाने का मेरा  मन  हो आया  क्योकि मेरे मन में इस अलबेले शायर के बारे में  ये  जानने की इच्छा प्रबल  होने लगी थी कि वे कहाँ और कैसे रहते हैं |पर  उनके बताये  अनुसार , उनका घर मेरे स्कूल से विपरीत  दिशा में था और काफी दूर भी अतः वहां जाना संभव ना हो सका | तभी   एक अन्य प्रसंग ने मेरा ध्यान अपनी ओर  खींच  लिया |
स्कूल में सुना,  कि हमसे वरिष्ठ कक्षा में पढने वाली , और हमारी जान पहचान  वाली एक  लडकी  सरिता के दादा जी का स्वर्गवास हो गया | सरिता की कक्षा  में पढने वाली कुछ लडकियां , उसके घर जाकर  संवेदना प्रकट करना चाहती थी | उनमें से एक ने मुझे भी साथ ले लिया |
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उस दिन कडकडाती सर्दी का दिन था |ठंड के मारे मानों जान ही निकली जा रही  थी | सरिता   के  घर जब हम सब लड़कियाँ पहुंची  , तो देखा उनके  घर के सब लोग अंगीठी जलाकर  आग  ताप रहे    थे । अंगीठी में लाल दहकते  अंगारे कमरे की ठण्ड  में बहुत राहत दे रहे थें |सरिता की माताजी ने  हम सब  लड़कियों  को  भी अंगीठी  के  पास  ही  बिठा लिया | वे  एक   रजिस्टर  भी  अपने हाथ  में  लिए  बैठी थी, जिस में से पैन  फाड़कर वे  अंगीठी  की  धधकती  आंच  में डालती  जा  रही  थी। मैंने जैसे ही रजिस्टर देखा , मैं हक्की - बक्की रह गई!
ये वही रजिस्टर था , जो मेरे  बाबा जी ने  अपने  कवि मित्र  को    लिखने के लिए दिया था |अब मात्र चार - पांच पन्ने ही बचे थे  - वो भी बिलकुल कोरे |एक अनजानी आशंका से मेरा मन  दहल -सा  गया और मैंने लगभग रोते हुए सरिता से पूछा -- ;;  क्या तुम्हारे दादाजी का नाम मुरलीधर था  और वो  शायर थे ?'' 
उत्तर सरिता की माँ    ने दिया  , वो भी बहुत  रूखे स्वर में '' वो  शायर ही थे --बस शेरो शायरी ही करते थे - उसके अलावा  कुछ नहीं | यहाँ- वहां मज़मा जोड़कर  , लोगों को अपनी शायरी सुनाते रहते थे | ना जाने कितनी डायरियाँ भर रखी थी  लिख - लिखकर || अपनी उन  डायरियों  को सीने से लगाये   घूमते थे दिन भर | दो  दिन बुखार आया और  चल बसे |''
 मैंने देखा , परिवार  के  किसी भी सदस्य  को उन की मौत    का जरा भी अफ़सोस नहीं था ||मैंने फिर से रुंधे गले से मुश्किल से पूछा , ;; वे डायरियां अब कहाँ हैं ?''तो सरिता की माँ ने बड़ी ही लापरवाही से कहा , '' वे तो हमने उनके अंतिम संस्कार के समय , उनकी चिता पर रखवा दी थी , ताकि उनकी आत्मा ना भटके ! एक  रजिस्टर  में भी लिख रहे थे  -- ये भी आज  आग  सेकने  के काम आ गया | हम लोग उन डायरियों और रजिस्टर का करते भी क्या ? आज ना परिवार में किसी को उर्दू आती है ना गाँव में | '' -------
इससे ज्यादा कुछ ना सुनकर,  बड़े बोझिल मन से   मैं सब लडकियों के साथ , अपने घर आ गई|तब तक   हमारे बाबाजी जी भी    रिश्तेदारी से वापिस आ चुके थे | आते ही उन्हें अपने मित्र के स्वर्गवास का पता चला तो उन्हें बहुत दुःख हुआ | उससे भी कहीं अधिक पीड़ा उन्हें  ,   उनकी    अनमोल रचनाओं के नष्ट होने  जाने से हुई |अपने मित्र के घर जाकर ,उन्होंने उनकी  बाकि बची रचनाओं का पता लगाने का भी प्रयास किया , पर पुनः  निराशा ही हाथ लगी |वे जब तक  जीवित रहे , उन्हें अपने मित्र की रचनाओं  के  ना बचा पाने का  बहुत मलाल रहा | वे अक्सर  पछताते  कि , काश  , वे उनके स्वर्गवास के समय उनके पास होते | शायर बाबा जी की मौत के साथ मेरा रोमांच भरा  सपना भी धराशायी  हो गया ,कि हमारा  गाँव  एक उर्दू शायर के नाम  से  जाना जाएगा | उसके बाद आज तक हमारे गाँव में कोई  ऐसा शायर  या शायरी का दीवाना नहीं हुआ  , जो मज़मा जोड़कर लोगों को ग़ज़लें  या गीत सुनाता हो  और  अब गाँव में शायद ही इस गुमनाम शायर को कोई याद करता हो | 
चित्र -- गूगल से  साभार 

ब्लॉगिंग का एक साल ---------आभार लेख

 निरंतर  प्रवाहमान होते अपने अनेक पड़ावों से गुजरता - जीवन में अनेक खट्टी -   समय निरंतर प्रवहमान होते हुए अपने अनेक पड़ावों से गुजरता हुआ - ...