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शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

पुस्तक समीक्षा - प्रिज़्म से निकले रंग (ई-बुक) ---------कवि - रवीन्द्र सिंह यादव -

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पुस्तक- प्रिज़्म से निकले रंग (ई-बुक) 
विधा - काव्य संग्रह 
कवि - रवीन्द्र सिंह यादव 
ISBN : 978-93-86352-79-8
प्रकाशक - ऑनलाइन गाथा, लखनऊ   
मूल्य - 50 रुपये 


               तकनीकी युग में सोशल  मीडिया  अभिव्यक्ति का एक बेहतरीन  माध्यम बन कर उभरा है | यहाँ अनेक मंच हैं जिन पर आप अपनी बात सरलता और शीघ्रता से कह  इससे  जुड़े लोगों तक पहुंचा सकते हैं |  इनमें ब्लॉग  अभियक्ति का सशक्त मंच है| एक तरह से ब्लॉग हमारे विचारों  का वो सदन है जहाँ हम अपने  मौलिक विचारों का आदान-प्रदान बड़ी सरलता से कर सकते हैं | ब्लॉग हमारे चिंतन और मंथन को विस्तार दे हमें अपने जैसे अनेक लोगों से जोड़ता है,  जो  हमें  प्रोत्साहित कर हमारी रचनात्मकता को विस्तार देता है |                       पिछले साल जनवरी  में  मैंने  जब  शब्द नगरी से लेखन की शुरुआत की तो मेरे पहले ही लेख को जिन लोगों ने  पढ़कर  उस पर  अपने अनमोल शब्द  लिखकर मेरा  मनोबल  बढ़ाया उनमें  आदरणीय रवीन्द्र  सिंह यादव जी भी थे |  वहां  रवीन्द्र जी की कई रचनाओं को  मैंने  पढ़ा | पर  जुलाई में जब मैंने अपना ब्लॉग बनाया तो  रवीन्द्र जी के  ब्लॉग से भी परिचय हुआ और वहां उनकी अन्य प्रतिनिधि रचनाएँ पढ़ीं| एक   सहयोगी रचनाकार  के रूप में मैंने रवीन्द्र जी को बेहद शालीन और साहित्यिक शिष्टाचार से भरपूर पाया | यही बात उनके लेखन में भी झलकती है जिसमें  अनावश्यक ताम-झाम  नहीं है और  न ही किसी  सरल विषय को दुरुहता से प्रस्तुत करने का प्रयास | उनकी रचनाएँ चिर-परिचित  मौलिक शैली में अपना सन्देश दे देती हैं |   कविता लेखन में   रवीन्द्र जी  का अपना ही शिल्प है जो उन्हें अन्य रचनाकारों से अलग पहचान दिलाता है  | हर रचनाकार का  यह  सपना  होता है  कि उसकी रचनायें  संग्रहित हो पुस्तक रूप में  परिणत हों |  पिछले दिनों पता चला  कि आदरणीय  रवीन्द्र सिंह जी की  रचनाओं का पहला संग्रह     ''प्रिज्म से निकले रंग '' के  नाम से  आया है |  मुझे भी  इसे पढ़ने का अवसर मिला तो  पाठक के रूप में मुझे इन्हें पढ़कर बहुत  अच्छा  लगा और  आदरणीय रवीन्द्र जी के लेखन पर बहुत गर्व भी हुआ | जैसा  कि नाम  से  ही  पता चल  जाता है, संग्रह  में भावों और कल्पनाओं के इन्द्रधनुषी रंगो  को विस्तार मिला है | अलग-अलग  विषयों पर  रचनाएँ अपनी  कहानी आप कहती हैं | इन रचनाओं में समाज, नारी, प्रेम, राष्ट्र, प्रकृति, इतिहास और जीवन में   अहम्  भूमिका  अदा करने वाले करुण-पात्रों  को  बहुत ही सार्थकता से प्रस्तुत किया गया है।   एक पाठिका के रूप  में  इस संग्रह को पढ़ने का अनुभव  मैं  दूसरे  साहित्य प्रेमियों  के  साथ बांटना चाहती हूँ |
          पुस्तक में  34  रचनाएँ हैं  जिन्हें सर्वप्रथम  कृति के रूप में पाठकों को सौपने से पहले आदरणीय रवीन्द्र जी ने एक सुयोग्य पुत्र  की भूमिका निभाते हुए इन्हें  अपने स्वर्गीय  माता-पिता जी और भाभी जी को सादर समर्पित किया है | साहित्य में पुस्तक लेखन में  मंगलाचरण  के  रूप  में सर्वप्रथम  माँ सरस्वती   की वंदना की सुदीर्घ परम्परा रही है | इसी परम्परा का   निर्वहन   करते हुए कवि ने पहली रचना माँ सरस्वती की अभ्यर्थना के रूप में   लिखी है, जो मुझे अन्य सरस्वती वन्दनाओं से बहुत अलग लगी | यह वंदना बहुत ही ह्रदयस्पर्शी है और  बहुजन हिताय  की भावना  को प्रेरित करती  है  साथ ही  एक सार्थक सन्देश  भी देती है  | शारदा माँ से  लोक कल्याण  के लिए  प्रार्थना करते वे कहते हैं --
       हे माँ !
भटके हुए  जीव जगत को
सुरमई गीत सुनाकर उजियारा पथ दिखा देना
जीवन संगीत का
दिव्य बसंती राग सिखा देना !!
           आदरणीय रवीन्द्र जी  की  नारी विषयक रचनाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया है | नारी  के सम्मान में             आदरणीय रवीन्द्र जी  की  नारी विषयक रचनाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया है | नारी  के सम्मान में  उनकी रचना में प्रश्न  उठाया गया हैं  कि--
 '' नारी के सम्मान में एक दिन -- शेष दिन ?
           इस विषय में उन्होंने कविता के साथ  एक लेख भी  संलग्न  किया है जिसमें  नारी की वैदिक काल से आज तक की  दशा पर चिंतन किया गया है जिसमें  समाज  के संकुचित दृष्टिकोण  को नकारते हुए नारियों  के अनथक  संघर्ष के लिए उन्हें नमन करते हुए  उनसे  शिक्षित हो जागने  का आह्वान किया गया है जिससे वे समाज में अपना खोया सम्मान और गरिमा  प्राप्त कर  सकें   क्योंकि  वे मानते हैं शिक्षा ही वह हथियार है जो उन्हें उत्पीडन और  शोषण से मुक्ति दिला सकता है | लेख में नारी के  अधिकारों   के प्रति न्यायप्रणाली   के अनेक प्रावधानों पर प्रकाश डाला गया है |  बेटियों को  समर्पित  दूसरी  रचना में वर्तमान  की बेटी के   आत्मकथ्य को  बड़े ही जोशीले शब्दों में उकेरा गया है | आज की बेटी  को एक ओर अपने इतिहास पर गर्व है तो उसे व्यर्थ के बंधन तोड़ अपना आकाश छूने की प्रबल आकांक्षा भी  है।  कवि ने बड़ी ही निर्भीकता से उसका संकल्प बड़े ही मनमोहक शब्दों में  पिरोया  है --
बंधन -भाव की नाज़ुक कड़ियाँ
अब तोड़ दूँगी मैं ,
बहती धारा मोड़ दूँगी मैं ,
मूल्यों की नई इबारत रच डालूँगी मैं,
माँ के चरणों में आकाश झुका दूँगी ,
पिता का सर फ़ख़्र से ऊँचा उठा दूँगी,!!!!!!
          कोई भी संवेदनशील  कवि समाज  में घट रही घटनाओं से अछूता  नहीं रह सकता | सम्यक दृष्टि  से उनकी विवेचना कर प्रखर कवि  अपना कविधर्म निभाते हैं |  इसी  क्रम में समसामयिक घटनाओं पर  पैनी दृष्टि रखते हुए  घटना का मर्म  प्रस्तुत कर  अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए रवीन्द्र जी ने अनेक रचनाएँ लिखी हैं  | पीछे  ऐसी ही एक मर्मान्तक घटना हुई जिसमें  सेवा कर्म  से जुड़ी  एक नर्स  ने मात्र  तीन सौ रुपयों की खातिर एक नवजात शिशु को  गर्म हीटर के पास सुला दिया जिससे उसका चेहरा झुलस गया |  नारी को ममता और वात्सल्य  की देवी माना गया है पर  जब वह अपने स्त्री-धर्म से मुंह मोड़  जाती है तो यह  ममता के लिए बड़ी अशुभ घड़ी होती है  जिसके लिए उसे कभी माफ़ नहीं किया जा सकता |  इसी घटना से आहत  कवि  का संवेदनशील मन प्रश्न करता है कि-------- उनकी रचना में प्रश्न  उठाया गया हैं  कि--

एक दिन जब वह समझदार बनेगा 
तब परिजन निर्मम दास्तान ज़रूर सुनाएंगे
अपना झुलसा हुआ चेहरा देख 
क्षमा करेगा उस नर्स को ?
जो सिर्फ  तीन सौ रुपये के लिए 
स्त्री-सुलभ ममत्व को तिलांजलि दे बैठी  --------
             इसी तरह  एक बार मीडिया पर जब भारतीय सैनिकों  की जली रोटियों का वीडियो वायरल हुआ तो  सारे  देश  में  देश के वीर जवानों  को परोसी गयीं  जली रोटियों के लिए देशभर में सरकार और सेना की ख़ूब  भर्त्सना हुई  पर '' जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि ''  को चरितार्थ करते हुए  कवि  अपनी अंतरदृष्टि   से इन जली रोटियों के लिए सैनिकों को  विवेक और संयम की  हिदायत  देते हुए समझाया है कि  राष्र्टीय एकता और अखंडता के  विरोधियों को मौक़ा मिल जाएगा और वह जली रोटियां खाने वाली सेना को कमज़ोर समझ देश को  भी कमज़ोर समझेगा | इसलिए  'जो मिले चुपचाप खाना'  और 'देश के लिए  बलिदान को तत्पर रहना ही' एक सैनिक का परम कर्तव्य है | क्योंकि ------

सर-ज़मीं   क़ुर्बानी    माँगती    है,
सैनिक   के   ख़ून    में  रवानी   माँगती  है,
दूसरों   का  हक़   मारने   वाले   बेनक़ाब   होंगे!
हम  बुलंद  हौसलों   के  साथ    क़ामयाब    होंगे!!

         इस प्रकार इस अलग तेवर और चिंतन की रचना ने मुझे बहुत प्रभावित किया | क्योंकि  सब  कुछ सहकर  मातृभूमि के लिए  जान तक न्योछावर करना हमारे सैनिकों की सुदीर्घ परम्परा रही है | यह  वही देश है जहाँ मातृभूमि के लिए महाराणा प्रताप ने घास तक की रोटियां  खायी थीं | 
           श्रवणकुमार की पुण्य-धरा पर एक कलयुगी बेटे ने जब सर्द रात में  पिता को घर के बाहर सुला दिया तो समाज में खंडित होते नैतिक मूल्यों  पर विकल कवि ने उस  बेटे को सार्थक रचना के माध्यम से खरी-खोटी  सुनाई है।  साथ में पिता का निस्वार्थ प्रेम याद दिलाते हुए खानाबदोश लोगों के संस्कारों का उदाहरण  दिया है जो कम साधनों में भी  सम्बन्धों  की नई परिभाषा  गढ़ते हैं -
इस पर कवि ने लिखा है ----
किसी खानाबदोश परिवार को देखो -
कैसे सह-अस्तित्व की परिभाषा गढ़ते हैं वे  ..
अपने मूल्यों के सिक्कों की खनक-चमक से -
 चौंधियाते  रहते हैं !!!!!!! 
           भारत के सबसे चहेते नेता जी सुभाष चन्द्र बोस  के लिए लिखी रचना संकलन की  प्रभावी  रचनाओं  में से एक है जिसमें  उनकी रहस्यमयी  मौत पर सवाल उठाते हुए  कवि ने   उन्हें नम आँखों  से याद करते हुए भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी है और साथ ही  सरकार की उस मंशा  पर  सवाल उठाये हैं जो इतने सालों बाद भी जाँच के अनेक प्रपंच रचकर   उनकी मौत की गुत्थी को सुलझा न सकी।  क्योंकि  बकौल कवि -------

दुनिया विश्वास ना कर सकी 
सुभाष के  परलोक जाने का ,
सरकारें करती रहीं  जासूसी -
भय था जिन्हें सुभाष के प्रकट हो जाने का |
        कविताओं के अलग-अलग  रंग निहारते हुए मुझे  एक और रचना बहुत खास लगी जिसमें  कवि ने  प्रेम का प्रतीक  माने  जाने वाले ताजमहल की यात्रा के दौरान  आगरा के लाल किले  से  बादशाह शाहजहाँ  की पीड़ा को अनुभव किया और उसे अपने शब्द देने का सफल प्रयास किया |  कवि के मन में बड़े मार्मिक प्रश्न कौंधते  हैं  कि ख़ुद  बादशाह बनकर तीस साल तक  वक़्त  की आती-जाती रौनकों को जीने वाले शंहशाह  शाहजहाँ ने न जाने कैसे अपनी मौत से पहले साढ़े सात साल  अकेले गुज़ारे होंगे ?  जिस  ताजमहल को अपनी प्रेयसी की याद में बनवाया था उसे निहारते हुए बादशाह के अंतस को टटोलती  मार्मिक रचना में उसके मन की  पीड़ा बड़े ही प्रभावी शब्दों में मुखर हुयी है | उसे दुनिया के छल  और अपने अकेलेपन पर शिकायत है तो अपनी इस कलाकृति यानि  ताजमहल पर बड़ा नाज़  भी है | वह उसे प्रेम की अमर निशानी  और बेहतरीन कलाकृति मान  कर कहता है -----


मेरे  जज़्बे   को  सलाम  आयेंगे 

सराहेंगे   क़द्र-दान    शिल्पकारों  को,

प्यार   नफ़रत   से  बड़ा  होता  है 

कहेगा अफ़साना उनसे जो नहीं आज  वहाँ ।  

मुंतज़िर  है   कोई  

सुनने         को        मेरे      अल्फ़ाज़   वहाँ ।


कवि दृष्टि पड़ जाने से कोई भी छोटी-सी घटना बड़ी बन जाती है तो छोटी-सी बात मर्मान्तक आघात | नन्ही  बच्ची के ओस  पर बालसुलभ उत्तर को कवि ने गम्भीरता से लेते हुए रचना  ''ओस '' में  'ओस ' पर पड़ी संस्कारहीनता और  जड़ता की ओस  को  बड़ी ही मार्मिकता  के साथ शब्दबद्ध किया है क्योंकि ओस-कण प्रकृति के सबसे कोमल मोती हैं  जिसे  कवियों और  साहित्यकारों  ने सदैव  कौतूहल  से देखा और महत्व दिया है पर भावी पीढ़ी को ये जलकण वीडियो में दिखाकर पहचान करायी जाती है यो इससे दुखद  और क्या हो सकता है  ? साथ में   प्राकृतिक ओस कण  उपेक्षित  ही रह जाते हैं  | दूसरी  तरफ एक सडक का नाम क्रूर बादशाह औरंगजेब  के नाम से  बदलकर शांति और प्रेम के मसीहा डॉक्टर ए  पी जे  अब्दुल  कलाम के नाम पर कर देने पर   कवि मन आह्लादित है | वे इस बात  को  भावी पीढ़ी के लिए  सर्वोत्तम सन्देश मानकर लिखते हैं 
भावी पीढियां अमन और प्रेम के धागे  बुन सकें 
                कुछ  ऐसा लिखें  हम समय की स्लेट पर _____________
              अनेक पड़ावों से गुज़रता अपनी काव्य यात्रा में कवि जीवन के अनेक रंग अपनी रचनाओं में उकेरता  आगे बढ़ता  है | अनेक प्रसंगों को देखने की कवि  की अपनी ही दृष्टि   और उसे शब्दों  में सवांरने की अपनी ही कला ! इसी  तरह      भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है दूब जिसे जिसे शुभता  और मंगल का प्रतीक तो समझा जाता ही है साथ में विनम्रता और चिर हरियाली का पर्याय भी माना जाता है | उसी की महिमा को विस्तार देते   'दूब' नामक रचना  में कवि ने   धरा के सीने पर लिपटकर रहने को उसकी विन्रमता  बताते हुए उसकी  लघुता  को नमन  किया   है  | उन्नत  और उद्दण्ड वृक्षों से कहीं महान बताते हुए  उसे  मानवीय संवेदनाओं के साथ जोड़कर बहुत ही सुंदर सार्थक सृजन करते उसके लिखा है -
छाँव न भी दे सके तो क्या -
घात-प्रतिघात की ,
रेतीली पगडंडी पर ,
घाम की तीव्र -तपिश से, 
तपे पीड़ा के पाँव ,
मुझ पर विश्राम पाएंगे ,
 दूब को प्यार से सहलाएंगे |
 रोज़मर्रा  जीवन  के करुण पात्रों  पर कवि का संवेदनात्मक चिंतन बहुत  हृदयस्पर्शी है |  मदारी , मज़दूर,लकड़हारा आदि पर  बहुत संवेदनशील रचनाएँ  अस्तित्व  में आई हैं |  बहरूपिया ' रचना में  बहरूपिये के अलग-अलग  मनमोहक रूपों से मुग्ध बच्चों को बड़ों की अनुपम सीख मिली है --

 यह शख़्स  है केवल  मनोरंजन के लिए --------!
इतने रूप अनापेक्षित हैं  एक जीवन के लिए -----------!!

               इसके साथ  अतीत के एक अहम्  सामाजिक पात्र लकड़हारे  का  स्मरण बड़ा ही मर्मस्पर्शी है क्योंकि   कुछ दशक पहले  लकड़ी के गट्ठर को सर पर लादे  संतोष  से पेट भरने के लिए  यह  श्रमजीवी जीवन की गलियों में भटकता अक्सर नज़र आ जाता था | आज न  उस लकड़ी के खरीददार रहे न  लकड़ी  बेचकर जीवनयापन करने वाला लकड़हारा |  पर  उसके खो जाने की पीड़ा  कवि    के इन शब्दों में व्यक्त हुई है --
आधुनिकता के अंधड़ में -
अब लकडहारा  कहीं  बिला गया है !!!!!
            वैदिक साहित्य में जलंधर नामक राक्षस को  अहंकार,अराजकता और दुराचार  के  प्रतीक  के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसने  महाशिव की अर्धांगिनी पार्वती जो  बड़ी ही कुत्सित दृष्टि से निहारकर  उन्हें  पाने की मिथ्या  कामना धारण  की थी  उसके  अस्तित्व को मिटाने के लिए विष्णु जी को  भी छद्म लीला  रचनी  पड़ी थी जिसके फलस्वरूप  जलंधर  की पत्नी वृंदा  के शाप  से वे  पत्थर रूप में  परिणित हो गये और आज भी शालिग्राम रूप में पूजे जाते हैं | उसी जलंधर पर बहुत ही चिंतनपरक रचना  है जिसमे कवि की विद्वता अलग रंग में  झलकती है ,क्योकि आज भी जलंधर  फिर  से नये रूप और नई भूमिका में सक्रिय है  |ये रचना  एक सार्थक  सन्देश भी देती है --
उन्मादी माहौल में दबकर -
कुछ ऐसे भी न्याय हुए 
मानवता को रौंद डालने 
शरू नये अध्याय हुए 
अहंकार के  अंधकार  में
 कोई आये दीप जलाने को 
आज जलंधर  फिर आया है 
हाहाकार मचाने को !!!!!!
जीवन के सांस्कृतिक रंगों को कवि में बहुत उल्लास और उत्साहवर्धक शैली में प्रस्तुत किया है  |इनमे होली पर   अनुपम रचना है तो प्रकृति के उत्सव बसंत पर    सुकोमल सृजन !!  अपने रचनाकर्म के माध्यम से कविने  अपने
भीतर की नैसर्गिकता   को  बचाने का आह्वान किया है क्योकि ये नैसर्गिकता  ही सही अर्थों में एक इंसान को इंसान  बनाती है और  भीतर  के अपनत्व  को मुरझाने नहीं देती | इसी अपनत्व को सर्वोपरि  मानते हुए जीवन में आशा  की नई  सुबह की कल्पना की है | प्रेम को बड़े ही  उद्दात और परम्परागत रूप  में   स्वीकार करते हुए अपनी  रचनाओं में जगह दी है तो   सत्ता- पक्ष के पूंजीवादी रवैये से आहत हो  उसे फटकार  -  समसामयिक  मुद्दों पर एक सजग नागरिक की भूमिका अदा की है |

 अंत  में कहना चाहूंगी  कि'' प्रिज्म से निकले रंग '' प्रबुद्ध, सुधि   पाठकों को जरुर पसंद आयेंगे | क्योकि  ये एक आम आदमी का चिंतन  भी है और  एक सजग कवि की  भावपूर्ण अंतर्यात्रा  भी  !! अपने  काम के साथ अपनी रचनात्मकता को नये आयाम देते हुए रवीन्द्र जी ने शब्द -शब्द   सम्पदा से अपने रचना संसार को समृद्ध किया | ये काव्य -संग्रह उसका मूर्त रूप है | संग्रह की सबसे बड़ी खूबी  इसकी   मौलिक शैली है  |मैं इस बहुरंगी प्रस्तुति के लिए आदरणीय रविन्द्र जी को  हार्दिक बधाई और शुभकामनायें  देती हूँ और  आशा करती हूँ कि उनका ये संग्रह  पाठकों के लिए एक नया अनुभव लेकर आयेगा और उनकी रचना यात्रा  नए आयामों की और निरंतर अग्रसर रहेगी | 

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34 टिप्‍पणियां:

  1. वाह्ह्ह....रेणु दी...बेहद सूक्ष्म समीक्षक दृष्टि है आपकी। बहुत सुंदर लिखा है आपने। आदरणीय रवींद्र जी के विचार और व्यवहार का उल्लेख इस समीक्षा में सहज भावों को उदित करता है। आपकी लिखी समीक्षा बेहद प्रभावशाली है दी।
    मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें।

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    1. प्रिय श्वेता --- स्नेह के साथ असीम उत्साहवर्धन करते आपके शब्दों के लिए हृदयतल से आभारी हूँ | मैंने गत एक साल में आदरणीय रवीन्द्र जी को जैसा शालीन और शिष्टता से भरपूर पाया वैसा ही अपने लेख में लिखा | क्योकि हमे अपने सहयोगियों के बारे में जानने का माध्यम केवल शब्द हैं | और रवीन्द्र जी निसंदेह एक सशक्त रचनाकार हैं | पुनः आभार |

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  2. संतुलित, सुघड़ और सार्थक समीक्षा! बधाई और आभार!!!

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    1. आदरणीय विश्वमोहन जी --- मेरे नये ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है आपके मनोबल और आत्मविश्वास बढ़ाते शब्दों के लिए आपका हार्दिक आभार|

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  3. सुंदर समीक्षा ....बस अब बेसब्री से गर्मी की छुट्टियों का इंतजार है जिसमें कई पुस्तकों को पढ़ने की योजना है । आदरणीय रवींद्रजी की पुस्तक अवश्य ही उनमें से एक होगी. प्रिय रेणु का समीक्षा लेखन उनके लेखन कौशल का प्रमाण है।

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    1. प्रिय मीना बहन -- निसंदेह आपको आदरणीय रवीन्द्र जी की पुस्तक पढ़कर निराशा नहीं होगी | आपके उत्साहवर्धन करती शब्द अनमोल हैं | सस्नेह आभार |

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  4. रविंद्र जी के संग्रह को बहुत बारीकी से ... उनकी रचनाओं के माध्यम से उनका परिचय करवाया है आपने ...
    ब्लॉग जगत में जाना पहचान नाम बन चुके रविंद्र जो को बहुत बहुत बधाई इस संग्रह पर ...
    आपकी समीक्षा पढ़ने को प्रेरित करती है ...

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    1. आदरणीय दिगम्बर जी -- आपकी सराहना के लिए हृदयतल से आभारी हूँ |

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  5. आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/04/64.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

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    उत्तर
    1. आदरणीय राकेश जी --- आपका सादर आभार इस सहयोग के लिए |

      हटाएं
  6. आपकी समीक्षा‎ आपके सूक्ष्म‎ और गहन दृष्टिकोण‎ को उजागर करती है रविन्द्र जी की पुस्तक "प्रिज्म से निकले रंग" की सुन्दर व्याख्या‎ के लिए आप बधाई की पात्र हैं रेणु जी .सस्नेह .

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    उत्तर
    1. प्रिय मीना जी -- आपके सराहना भरे शब्दों के लिए हृदयतल से आभार |

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  7. बहुत सुंदर समीक्षा , गहन ,गम्भीर यथार्थपरक

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    उत्तर
    1. आदरणीय ऋतू जी-- मेरे नये ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है | लेख
      पढने और पसंद करने के लिए सादर आभार आपका |

      हटाएं
  8. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १६ अप्रैल २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

    निमंत्रण

    विशेष : 'सोमवार' १६ अप्रैल २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक में ख्यातिप्राप्त वरिष्ठ प्रतिष्ठित साहित्यकार आदरणीया देवी नागरानी जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

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    उत्तर
    1. प्रिय ध्रुव -- हमेशा की तरह यही कहूंगी कि आपका सहयोग अविस्मरणीय है | सस्नेह आभार आपका |

      हटाएं
  9. आदरणीय रेनू दी, बहुत बारीकी से रचनाओं का अध्ययन करके आपने पुस्तक की बहुत सटीक समीक्षा की है। लेखन में आपको महारत हांसिल है चाहे वो गद्य हो या पद्य। रवीन्द्र जी के विषय में आपके शब्द उनके व्यक्तित्व का आइना बन गए हैं। हम सब उन्हें उनके शब्दों से ही जानते है और उन जैसा सहृदय और सहयोगी व्यक्तितव बहुत कम देखने को मिलता है। आपकी समीक्षा बेहफ असरदार है और पुस्तक को पढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
    सादर

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    उत्तर
    1. प्रिय अपर्णा - मैं भी मात्र शब्दों के माध्यम से ही रवीन्द्र जी से परिचित हूँ | वे एक बहुत ही स्नेही सहयोगी हैं | उनके शिष्टाचार और शालीनता के सभी सहयोगी रचनाकार कायल हैं | मैंने जो अनुभव किया वह इमानदारी और स्पष्टता से लिखा | आप लोगों को पसंद आया मेरा लेखन सफल हुआ | आप का हार्दिक आभार और साथ में मेरा प्यार |

      हटाएं
  10. बहुत ही सुन्दर और सटीक समीक्षा की है आपने रेणु जी!
    सचमुच आपकी समीक्षा पुस्तक पढ़ने को लालायित एवं प्रेरित करती है साथ ही रविन्द्र जी के व्यक्तित्व को उजागर किया है
    सुन्दर समीक्षा के लिए बधाई आपको एवं रविन्द्र जी को इस संग्रह के लिए अनन्त शुभकामनाएं....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय सुधा जी -- आप जैसी प्रबुद्ध पाठिका के स्नेह भरे शब्द मेरे ब्लॉग का श्रृंगार है | आप के निरंतर सहयोग और स्नेह भरे उत्साहवर्धन की ऋणी रहूंगी |आप जैसे पाठक पुस्तक पढेगे तो ही ये समीक्षा सफल मानी जायेगी |ह्रदय ताल से आभार आपका |

      हटाएं
  11. बहुत ही अच्छी समीक्षा रेणु दीदी ,आपकी रचनाये मुझे बहुत प्रेरित करती हैं

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय दीपाली -- आप जैसे स्नेह्वृन्द ही अपने स्नेह से मेरे लेखन को ऊर्जा प्रदान करते हैं |स्नेह भरे शब्दों के लिए आभारी हूँ आपकी | मेरा प्यार बस |

      हटाएं
  12. एक सभ्य लहजे में समेटे हुए।
    रेणु जी आपकी समीक्षा अत्यंत सरल भाषा में हम पाठकों को गति प्रदान कर रही है।
    हमारा प्यार भरा स्नेह।।।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय सलमान -- सबसे पहले आपका हार्दिक अभिनंदन मेरे ब्लॉग पर | आपने लेख पढ़ा और पसंद किया मुझे बहुत ख़ुशी हुई | ह्रदय से आभारी हूँ आपकी | ये स्नेह बनाये रखिये |

      हटाएं
  13. देर से आने के लिये क्षमा.
    आदरणीया रेणु जी की क़लमकारी ने पुस्तक समीक्षा के ज़रिये ब्लॉग जगत् से मेरा परिचय कराते हुए आत्मीयता का मार्मिक प्रस्फ़ुटन किया है. लेखक और पाठक के बीच भाव आत्मसात करने की दूरी को एक कुशल समीक्षक अपने लेखन कौशल से किस प्रकार शब्दों का शानदार पुल बनाकर पाट देता है इसका सटीक उदाहरण पेश करती है यह समीक्षा.
    आदरणीया रेणु जी सादर आभार आपका पाठकों के बीच पुस्तक को चर्चित बनाने के लिये और मनमोहक समीक्षा लिखने के लिये. बेशक आप एक कुशल समीक्षक हैं

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    1. आदरणीय रवीन्द्र जी -- मैंने आपकी पुस्तक के लिए अपना अनुभव ईमानदारी से साँझा किया है | आपकी लोकप्रियता ने इस समीक्षा के जरिये मेरे नये ब्लॉग को अनेक नए और पुराने सजग पाठकों से जोड़ा | सभी ने बड़े उत्साह से समीक्षा पढ़ी | | आप् जैसे स्नेही सहयोगियों ने मेरे लेखन को धार दी है और नये विषयों पर लिखने के लिए प्रेरित किया है | आपको पुस्तक के लिए एक बार फिर शुभकामनाये देती हूँ | सादर --

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  14. एक कुशल गृहिणी के साथ साथ आप इतनी अच्छी कुशल लेखिका हैंं। फिर भी अपने को हाउस वाइफ ही कहती हैं, यही महान लोगों की विशेषता है।

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    1. आदरणीय शशि जी -- इन स्नेहासिक्त अनमोल शब्दों के लिए आभारी हूँ आपकी | सादर --

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  15. भावी पीढियां अमन और प्रेम के धागे बुन सकें
    कुछ ऐसा लिखें हम समय की स्लेट पर .... बहुत सुंदर समीक्षा

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    1. आदरणीय वन्दना जी-- सस्नेह आभार आपका जो आपने इस समीक्षा में अपनी रूचि दिखाई और इसके मर्म को पकड़ा |

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ब्लॉगिंग का एक साल ---------आभार लेख

 निरंतर  प्रवाहमान होते अपने अनेक पड़ावों से गुजरता - जीवन में अनेक खट्टी -   समय निरंतर प्रवहमान होते हुए अपने अनेक पड़ावों से गुजरता हुआ - ...