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कितने सालों से देख रहे थे , अलसुबह भारी - भरकम बस्ते लादे- टाई- बेल्ट से लैस , चमड़े के भारी जूतों के साथ आकर्षक नीट -क्लीन ड्रेस में सजा -- विद्यालयों की तरफ भागता रुआंसा बचपन --- तो नम्बरों की दौड़ और प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिले की धुन में- आधे सोये- आधे जागते किशोर और नौकरी के लिए हर तरह का दांवपेंच लड़ाते अवसादग्रस्त युवा ---! इसके साथ सार्वजनिक और निजी वाहनों से अपने आजीविका स्थल की ओर भागते लोग , जिन्हें सालों से ना पूरी नींद मयस्सर हुई ना चैन | यूँ लगता था हर कोई भाग रहा है---- गाँव से छोटे शहर की ओर -- छोटे शहर से बड़े शहर की ओर और महानगरों से विदेश की ओर ---! लोगों की ये दौड़ थमने का नाम नहीं ले रही थी ----------! कोई वज़ह से तो --कोई बिन वज़ह भागा जा रहा था -- अपनी ही धुन में --- ! पर ,अचानक ये क्या हुआ कि जिन्दगी का पहिया एकदम थम गया --! गली - कूचे वीरान , सड़कें खाली और हर कोई अपने घर में कैद ! कुछ समय के लिए तो लोगबाग़ -इस तरह जिन्दगी की रफ़्तार पर लगे इस विराम पर स्तब्ध रह गये !पर बाद में लगा - ये खालीपन अपने साथ एक ऐसा सुकून भी जीवन में ले आया है , जहाँ ना मजबूरीवश कहीं भागने की अफ़रातफ़री है , ना किसी दौड़ में आगे आने की जद्दोजहद | यहाँ चिंता और चिंतन बस एक बिंदू पर ठहरे हैं -- अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा ! जो परिवार सालों से एक दूसरे के साथ मिल बैठ नहीं पाए थे-- उन्होंने साथ मिलजुल कर यादों की अनमोल पूंजी आपस में बाँटी | जो बातें परिवार भूल चुका था --वो भी दुहराई गई | यानि इस कथित लोकबंदी के दौरान भावनाओं को नया जीवन मिला है -- अगाध आत्मीयता का सुधारस रिक्त -मनों को सिक्त कर रहा है | सयुंक्त परिवार की एकजुटता का आनन्द युवा पीढ़ी ने इतनी बेफिक्री के साथ -- पहली बार लिया |सभी को जीवन का ये आनंदकाल अविस्मरनीय रहेगा |
आया कोरोना --- कोरोना क्या आया एक अघोषित युद्ध की -सी स्थिति सामने आ खड़ी हुई |समाज में आपस में मिलने -जुलने से एक खौफ सा व्याप्त है , हर एक इन्सान के भीतर | जनता-कर्फ़्यू से लेकर लोकबंदी से गुजर कर समाज एक नये ढर्रे में ढलने को तैयार है इस दौरान लोगों को चिंतन करने का सुनहरा अवसर मिला -- भले ही इसकी कीमत बहुत बड़ी चुकानी पड़ी !यूँ लगा मानों समस्त भौतिक प्रपंच बेमानी हैं | कीमत है तो बस इंसान की | कोरोना से भयाक्रांत मानव और समाज नये नियम और कायदे गढ़ने को मजबूर हुआ | कल जो चीजें जीवन में बहुत जरूरी थी . इस दौरान हाशिये पर आ गयी | मॉल संस्कृति कुछ समय के लिए सिकुड़ कर लुप्तप्राय हो गयी तो पीज़ा -बर्गर और सैर - सपाटे सेहत की चिंता के आगे गौण हो गए | घर सबसे सुरक्षित स्थान हो गया तो अपने लोग सबसे ज्यादा नजदीक | देखा जाये तो मानव की पलायनवादी प्रवृति अक्सर उसे कोरोना जैसे संकट में डाल देती है , पर साथ ही उसे एक सबक देकर भविष्य के लिए तैयार करती है | कोरोना ने भी मानव समाज को बहुत कुछ सिखाया है | मानव सभ्यता पर आये आकस्मिक संकट कोरोना के बहाने - एक विराट विमर्श की शुरुआत हो चुकी है | आने वाले समय में इस पर किये गये शोध -इस स्थिति का सही -सही मूल्याङ्कन करेंगे कि समाज ने इस महामारी के दौरान क्या खोया और क्या नया सीखा !
नये रूप में धर्म --- धर्म की स्थापना शायद जीवन में कल्याणकारी नैतिक मापदंडों की सीमायें तय करने के लिए हुई थी , जिसमें जीवनपर्यंत बहुजनहिताय सुकर्म की प्रेरणा और जीवनोपरांत मोक्ष पाने के प्रयासों का प्रावधान किया था , पर बौद्धिकता के अनावश्यक हस्तक्षेप से आज धर्म कुत्सित रूप में परिवर्तित हो गया है | धर्मान्धता से मानवता को जो हानि हुई -उसके सही आंकड़े कहाँ उपलब्ध हैं ? पर ये संतोषप्रद है , कि इस संकटकाल में धर्म अपने परिष्कृत रूप में सामने आया है , जहाँ पाखंड और कर्मकांड नहीं , अपितु मानव सेवा से ही धर्म को सार्थकता मिल रही है | गोस्वामी तुलसीदास जी की मानव धर्म की महिमा बढ़ाती उक्ति गली- गली . कूचे -कूचे चरितार्थ हो रही है , ''परहित सरस धर्म नहीं भाई ।'' इसी को चरितार्थ करते और मानव धर्म निभाते चिकित्सक , और अन्य कोरोना योद्धा , मानवता और सद्भावना के शांतिदूत बनकर आमजन की आँखों के तारे बने हुए हैं और दुनिया को समझा रहे हैं कि यही है सच्चा धर्म - ----! निस्वार्थ कर्म जो केवल और केवल मानवता को समर्पित है, जिसमें त्याग भी है , सद्भावना भी है- सच्चे मानव धर्म के रूप में उभरा है | हो सकता है कोरोना की महामारी लोगों को स्थायी तौर पर ये जरुर समझा दे कि सच्चे धर्म की परिभाषा क्या है और साथ में ये भी , कि आज देश को देवालयों से कहीं ज्यादा , चिकित्सालयों और शिक्षालयों की आवश्यकता है |
चकित कर रहे ये बदलाव ---- लोकबंदी के दौरान दुर्घटनाओं और . आत्महत्याओं में कमी के साथ प्रदूषण का घटता स्तर बहुत सुखद लगा । भागती-दौड़ती जिन्दगी ने खुलकर साँस ली | साथ में रोचक है -- सुबह -सुबह शोर प्रदूषण में अपना अतुलनीय योगदान देने वाले -- धर्म स्थानों पर मौज कूट रहे कथित धर्मावलम्बियों की जमात , ना जाने किसे मांद में जाकर छिप गयी है !! --- होई हैं वहीँ जो राम रचि राखा पर -- उन्हें आज कतई विश्वास नहीं हो रहा | वे कोरोना से इतना भयाक्रांत हो गये हैं, कि उनके दर्शन दुर्लभ हो गये हैं | जिन्हें ना किसी बीमार की चिंता , ना परीक्षाकाल में छात्रों के भविष्य की चिंता थी -- जो बस लाउड स्पीकर में भजनों के द्वारा- भीषण हाहाकार को ही धर्म की शक्ति मानते थे - आज मौन हैं !कथित उपदेशक बाबा लोग तो अदृश्य से होगये हैं | उन्हें जाने कैसा सदमा लगा - समझ नहीं आता | पर उस अनचाहे शोर से मुक्ति ने आमजन की नींद को बहुत मधुर बना दिया है तो एकाग्रता को बढ़ा दिया है |
निखरी नये रूप में प्रकृति -- प्रकृति के लिए आमजन ने जो किया --उससे उसकी कितनी हानि हुई --- इसके सही -सही आंकड़े उपलब्ध नहीं, पर इतना तो तय है , कि हमने उसे कुरूप करने में कोई कसर नहीं छोडी | धर्मयात्रायें मौजमस्ती का माध्यम बन गयी | बड़े बुजुर्गों से सुना करते थे -- कि कभी जटिल तीर्थ स्थानों की यात्राओं के लिए सिर्फ बुजुर्ग लोग ही जाते थे , वो भी सर पर कफन बाँध कर , ताकि उनके जीवन का अंत यदि इन यात्राओं के दौरान हो जाए तो उन्हें मोक्ष मिल जाए | पर कालान्तर में लोगों ने इसे पारिवारिक आनन्द का माध्यम मानकर सपरिवार जाना शुरू कर दिया | पहाड़ों - पर्वतों पर तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए निर्माण हुए -- सड़कें बनी , होटल निर्मित किये गये और इन प्रक्रियाओं में प्रकृति अपना सौंदर्य गंवा बैठी | अब लोकबंदी के दौरान सोशल मीडिया पर आने वाली सुखद तस्वीरें बता रही हैं , कि करोड़ों रूपये की परियोजनाएं जो ना सकी वह लोकबंदी ने कर दिया | निखरे पहाड़ - पर्वत और घाटियाँ , उन्मुक्त उड़ान भरते पक्षी दल ना जाने कितने दिनों बाद नजर आये | नदियाँ निर्मल हो मन मोह रही हैं |प्रदूषण का स्तर घट रहा है | शासनादेश को जनहित में पहली बार लोगों ने बहुधा ईमानदारी से अपनी स्वीकार्यता दी , जो नितांत संतोष का विषय है |
करुणा के नाम रहा संकटकाल - कोरोना काल में लोगों ने सदी की सबसे करुणा भरी तस्वीरें देखी| दूरदराज गाँव से आजीविका के लिये आये श्रमिक वर्ग की विकलता ने जनमानस को भावविहल कर दिया |हफ़्तों पैदल गाँव- गली की और भागते साधनविहीन लोग और उनके साथ हुई अमानवीयता -- पहले कभी नहीं देखी गयी | मजदूर वर्ग ने पग- पग पर अनगिन विपदाओं का सामना किया | बहुत बड़ी संख्या में उनकी मौतों ने सम्पूर्ण मानवता को शर्मसार और स्तब्ध कर किया ! अपने गाँव - गली लौटकर अपनी जड़ों में समाने को आतुर- कम शिक्षित श्रमिकों के रूप में सामने आई सामूहिक भावना अपठित और अबूझ है | शायद आत्मीयता के इस अद्भुत रसायन का कोई विकल्प संसार में नहीं | और कोई प्रयोगशाला इसका विश्लेषण कर पाने में सक्षम हो--- ऐसा नहीं लगता | माटी के लाल श्रमवीर ने जो संस्कार संजो कर रखा है --वह है जननी , जन्म भूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है | शहर में बहुत साल बिता देने पर भी उसे छोड़ते समय उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता , पर गाँव में बहुत कुछ है जिसे वह गाँव से पलायन के समय छोड़ आया था-- जो उसे लौटकर फिर मिल जाएगा | अपनी माटी की गंध उसे हमेशा अपने भावापाश में बांधे रखती है | उनके असुरक्षित मन का एक मात्र सुरक्षा कवच , मानो उनकी जन्म भूमि ही है। उनकी छटपटाहट कोई राजनैतिक स्वांग नहीं ---उनकी अपनी माटी और अपनों के प्रति अगाध आत्मीयता है, जिसे वे सबको बताना चाहते हैं!उनकी प्रगाढ़ आत्मीयता को शहर की चकाचौँध अभी तक आच्छादित नहीं कर पाई है , क्योंकि वह प्रगति के उस शिखर को कभी छू नहीं पाया -जहाँ संवेदनाएं शून्य हो जाती हैं ।यूँ भी जीवन ऐसे वर्ग के प्रति बहुत अधिक कठोर रहा है , जैसे उसके गाँव प्रयाण में भी उसने बहुत परीक्षाएं दी हैं , जिनमें वह बहुधा अपनी जीवटता से विजयी माना गया है | उसकी जीवटता को कोरोना संकट ने और प्रबल कर दिया | अंतस में असीम करुणा जागते . मानवसंघर्ष के ये पल जनमानस के लिए अविस्मरणीय रहेंगे और इनकी स्मृतियाँ मन को सदैव विचलित करती रहेंगी |
जीना होगा कोरोना के साथ -- सदियों से ही दुनिया महामारियों से बहुत त्रस्त रही है |नाम बदल-बदल कर , नए नए रूपों में बीमारियाँ मानव को सताती रही हैं और अनगिन जिंदगियां लीलती रही हैं क्योंकि किसी भी अप्रत्याशित बीमारी का उपचार उसके आने से पहले पता हो ये शायद मुमकिन नहीं | इसी तरह कोरोना के उपचार के साधन ढूंढें जा रहे हैं | दूसरे शब्दों में कहें , कोरोना जैसी महामारी के एकदम मिटने की कोई गुंजाईश फिलहाल नजर नहीं आती , पर फिर भी अपनी सजगता और समर्पण से हम इसे काबू जरुर कर सकते हैं | स्वच्छता के साथ सामाजिक दूरी का पालन करते हुए हमें उन दुर्व्यसनों को छोड़ना होगा , जो बढ़ती सम्पन्नता से पैदा हुए थे | माल और बार संस्कृति से दूरी बनानी होगी , तो अनावश्यक भीड़ का मोह त्यागना होगा | साथ में लोकबंदी के दौरान मिले आत्मीयता के संस्कार को दीर्घजीवी बनाना होगा , तभी हम इस विपति से पार आ पाएंगे | तेजी से भाग रहे जीवन का ये ठहराव - काल यही कहता है कि हमें वैभव विलास से इतर अपने बारे में -- अपने अपनों के बारे में या फिर देश - समाज के कल्याण के बारे में जरुर गंभीरता से सोचना होगा | बहुत ज्यादा बड़े नहीं , बल्कि छोटे से छोटे प्रयास जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं , कि जीवन में ये ठहराव आवश्यक था -- जो हमें सब कुछ गंवाने के स्थान पर - बचे हुए को सहेजने की अनमोल सीख देकर जा रहा है |
ईश्वर से प्रार्थना है महामारी कोरोना का ये भीषण संकट काल मानवता का नवप्रभात हो |
चित्र --- गूगल से साभार |
कितने सालों से देख रहे थे , अलसुबह भारी - भरकम बस्ते लादे- टाई- बेल्ट से लैस , चमड़े के भारी जूतों के साथ आकर्षक नीट -क्लीन ड्रेस में सजा -- विद्यालयों की तरफ भागता रुआंसा बचपन --- तो नम्बरों की दौड़ और प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिले की धुन में- आधे सोये- आधे जागते किशोर और नौकरी के लिए हर तरह का दांवपेंच लड़ाते अवसादग्रस्त युवा ---! इसके साथ सार्वजनिक और निजी वाहनों से अपने आजीविका स्थल की ओर भागते लोग , जिन्हें सालों से ना पूरी नींद मयस्सर हुई ना चैन | यूँ लगता था हर कोई भाग रहा है---- गाँव से छोटे शहर की ओर -- छोटे शहर से बड़े शहर की ओर और महानगरों से विदेश की ओर ---! लोगों की ये दौड़ थमने का नाम नहीं ले रही थी ----------! कोई वज़ह से तो --कोई बिन वज़ह भागा जा रहा था -- अपनी ही धुन में --- ! पर ,अचानक ये क्या हुआ कि जिन्दगी का पहिया एकदम थम गया --! गली - कूचे वीरान , सड़कें खाली और हर कोई अपने घर में कैद ! कुछ समय के लिए तो लोगबाग़ -इस तरह जिन्दगी की रफ़्तार पर लगे इस विराम पर स्तब्ध रह गये !पर बाद में लगा - ये खालीपन अपने साथ एक ऐसा सुकून भी जीवन में ले आया है , जहाँ ना मजबूरीवश कहीं भागने की अफ़रातफ़री है , ना किसी दौड़ में आगे आने की जद्दोजहद | यहाँ चिंता और चिंतन बस एक बिंदू पर ठहरे हैं -- अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा ! जो परिवार सालों से एक दूसरे के साथ मिल बैठ नहीं पाए थे-- उन्होंने साथ मिलजुल कर यादों की अनमोल पूंजी आपस में बाँटी | जो बातें परिवार भूल चुका था --वो भी दुहराई गई | यानि इस कथित लोकबंदी के दौरान भावनाओं को नया जीवन मिला है -- अगाध आत्मीयता का सुधारस रिक्त -मनों को सिक्त कर रहा है | सयुंक्त परिवार की एकजुटता का आनन्द युवा पीढ़ी ने इतनी बेफिक्री के साथ -- पहली बार लिया |सभी को जीवन का ये आनंदकाल अविस्मरनीय रहेगा |
दायित्व बोध की जगी भावना -- लॉकडॉउन ने विशेषकर शहरी जीवन में पारिवारिक स्तर पर एक ऐसी क्रांति का सूत्रपात किया है , जो अप्रत्याशित है । घर में सहायिकाओं की छुट्टी हो जाने से परिवार का युवावर्ग, विशेष रूप से घरेलू दायित्व के प्रति सजग हुआ है। जिनमें कॉलेज जाने वाली बेटियां और ऑफिस जाने वाली बहुएं - रसोई की तरफ बड़े उन्मुक्त भाव से नये - नये पकवान बनाने को उद्दत् हुई हैं, तो बुजुर्गों की खुशी का ठिकाना नहीं , पूरा परिवार जो उनकी आँखों के सामने है। ना किसी को दफ्तर जाने की जल्दी , ना बच्चों के स्कूल की चिंता । शायद आपाधापी में खोई सदी के लिए ये लघुविराम जरूरी था । दुनिया का कारोबार इस दौरान भले भले चौपट हो गया , परिवार में आपसी स्नेह का कारोबार भली भाँति फलफूल रहा है । इस घरबंदी से आज परिवार फिर से जी उठा -- --- नये दायित्वबोध के साथ |सूचना- क्रांति ने इस घरबंदी को, बोझिलता से बचाया है और रचनात्मकता को बढ़ाया है | लोगों नेअपने शौक और हुनर को इस लोकबंदी में खूब संवारा | पढने के शौक़ीन उन किताबों को बड़े चाव से पढ़ रहे हैं , जिनको इस जन्म में छूने तक की भी उम्मीद नहीं थी | संगीत , कला , साहित्य के लिए ये दौर बहुत सुखद है | खूब लिखा जा रहा है -- पढ़ा जा रहा और सीखा जा रहा है | बड़े शौक से घर में एक दूजे से सीखने - सिखाने की कवायद जारी है | इस सदी ने ऐसा स्नेहिल दौर शायद पहले कभी नहीं देखा | लोकबंदी में सभी की चिंतन शक्ति को विस्तार मिल रहा है | स्वहित और जनहित में ये एकांतवास एक समाधि सरीखा सिद्ध हुआ | |
आया कोरोना --- कोरोना क्या आया एक अघोषित युद्ध की -सी स्थिति सामने आ खड़ी हुई |समाज में आपस में मिलने -जुलने से एक खौफ सा व्याप्त है , हर एक इन्सान के भीतर | जनता-कर्फ़्यू से लेकर लोकबंदी से गुजर कर समाज एक नये ढर्रे में ढलने को तैयार है इस दौरान लोगों को चिंतन करने का सुनहरा अवसर मिला -- भले ही इसकी कीमत बहुत बड़ी चुकानी पड़ी !यूँ लगा मानों समस्त भौतिक प्रपंच बेमानी हैं | कीमत है तो बस इंसान की | कोरोना से भयाक्रांत मानव और समाज नये नियम और कायदे गढ़ने को मजबूर हुआ | कल जो चीजें जीवन में बहुत जरूरी थी . इस दौरान हाशिये पर आ गयी | मॉल संस्कृति कुछ समय के लिए सिकुड़ कर लुप्तप्राय हो गयी तो पीज़ा -बर्गर और सैर - सपाटे सेहत की चिंता के आगे गौण हो गए | घर सबसे सुरक्षित स्थान हो गया तो अपने लोग सबसे ज्यादा नजदीक | देखा जाये तो मानव की पलायनवादी प्रवृति अक्सर उसे कोरोना जैसे संकट में डाल देती है , पर साथ ही उसे एक सबक देकर भविष्य के लिए तैयार करती है | कोरोना ने भी मानव समाज को बहुत कुछ सिखाया है | मानव सभ्यता पर आये आकस्मिक संकट कोरोना के बहाने - एक विराट विमर्श की शुरुआत हो चुकी है | आने वाले समय में इस पर किये गये शोध -इस स्थिति का सही -सही मूल्याङ्कन करेंगे कि समाज ने इस महामारी के दौरान क्या खोया और क्या नया सीखा !
नये रूप में धर्म --- धर्म की स्थापना शायद जीवन में कल्याणकारी नैतिक मापदंडों की सीमायें तय करने के लिए हुई थी , जिसमें जीवनपर्यंत बहुजनहिताय सुकर्म की प्रेरणा और जीवनोपरांत मोक्ष पाने के प्रयासों का प्रावधान किया था , पर बौद्धिकता के अनावश्यक हस्तक्षेप से आज धर्म कुत्सित रूप में परिवर्तित हो गया है | धर्मान्धता से मानवता को जो हानि हुई -उसके सही आंकड़े कहाँ उपलब्ध हैं ? पर ये संतोषप्रद है , कि इस संकटकाल में धर्म अपने परिष्कृत रूप में सामने आया है , जहाँ पाखंड और कर्मकांड नहीं , अपितु मानव सेवा से ही धर्म को सार्थकता मिल रही है | गोस्वामी तुलसीदास जी की मानव धर्म की महिमा बढ़ाती उक्ति गली- गली . कूचे -कूचे चरितार्थ हो रही है , ''परहित सरस धर्म नहीं भाई ।'' इसी को चरितार्थ करते और मानव धर्म निभाते चिकित्सक , और अन्य कोरोना योद्धा , मानवता और सद्भावना के शांतिदूत बनकर आमजन की आँखों के तारे बने हुए हैं और दुनिया को समझा रहे हैं कि यही है सच्चा धर्म - ----! निस्वार्थ कर्म जो केवल और केवल मानवता को समर्पित है, जिसमें त्याग भी है , सद्भावना भी है- सच्चे मानव धर्म के रूप में उभरा है | हो सकता है कोरोना की महामारी लोगों को स्थायी तौर पर ये जरुर समझा दे कि सच्चे धर्म की परिभाषा क्या है और साथ में ये भी , कि आज देश को देवालयों से कहीं ज्यादा , चिकित्सालयों और शिक्षालयों की आवश्यकता है |
चकित कर रहे ये बदलाव ---- लोकबंदी के दौरान दुर्घटनाओं और . आत्महत्याओं में कमी के साथ प्रदूषण का घटता स्तर बहुत सुखद लगा । भागती-दौड़ती जिन्दगी ने खुलकर साँस ली | साथ में रोचक है -- सुबह -सुबह शोर प्रदूषण में अपना अतुलनीय योगदान देने वाले -- धर्म स्थानों पर मौज कूट रहे कथित धर्मावलम्बियों की जमात , ना जाने किसे मांद में जाकर छिप गयी है !! --- होई हैं वहीँ जो राम रचि राखा पर -- उन्हें आज कतई विश्वास नहीं हो रहा | वे कोरोना से इतना भयाक्रांत हो गये हैं, कि उनके दर्शन दुर्लभ हो गये हैं | जिन्हें ना किसी बीमार की चिंता , ना परीक्षाकाल में छात्रों के भविष्य की चिंता थी -- जो बस लाउड स्पीकर में भजनों के द्वारा- भीषण हाहाकार को ही धर्म की शक्ति मानते थे - आज मौन हैं !कथित उपदेशक बाबा लोग तो अदृश्य से होगये हैं | उन्हें जाने कैसा सदमा लगा - समझ नहीं आता | पर उस अनचाहे शोर से मुक्ति ने आमजन की नींद को बहुत मधुर बना दिया है तो एकाग्रता को बढ़ा दिया है |
निखरी नये रूप में प्रकृति -- प्रकृति के लिए आमजन ने जो किया --उससे उसकी कितनी हानि हुई --- इसके सही -सही आंकड़े उपलब्ध नहीं, पर इतना तो तय है , कि हमने उसे कुरूप करने में कोई कसर नहीं छोडी | धर्मयात्रायें मौजमस्ती का माध्यम बन गयी | बड़े बुजुर्गों से सुना करते थे -- कि कभी जटिल तीर्थ स्थानों की यात्राओं के लिए सिर्फ बुजुर्ग लोग ही जाते थे , वो भी सर पर कफन बाँध कर , ताकि उनके जीवन का अंत यदि इन यात्राओं के दौरान हो जाए तो उन्हें मोक्ष मिल जाए | पर कालान्तर में लोगों ने इसे पारिवारिक आनन्द का माध्यम मानकर सपरिवार जाना शुरू कर दिया | पहाड़ों - पर्वतों पर तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए निर्माण हुए -- सड़कें बनी , होटल निर्मित किये गये और इन प्रक्रियाओं में प्रकृति अपना सौंदर्य गंवा बैठी | अब लोकबंदी के दौरान सोशल मीडिया पर आने वाली सुखद तस्वीरें बता रही हैं , कि करोड़ों रूपये की परियोजनाएं जो ना सकी वह लोकबंदी ने कर दिया | निखरे पहाड़ - पर्वत और घाटियाँ , उन्मुक्त उड़ान भरते पक्षी दल ना जाने कितने दिनों बाद नजर आये | नदियाँ निर्मल हो मन मोह रही हैं |प्रदूषण का स्तर घट रहा है | शासनादेश को जनहित में पहली बार लोगों ने बहुधा ईमानदारी से अपनी स्वीकार्यता दी , जो नितांत संतोष का विषय है |
करुणा के नाम रहा संकटकाल - कोरोना काल में लोगों ने सदी की सबसे करुणा भरी तस्वीरें देखी| दूरदराज गाँव से आजीविका के लिये आये श्रमिक वर्ग की विकलता ने जनमानस को भावविहल कर दिया |हफ़्तों पैदल गाँव- गली की और भागते साधनविहीन लोग और उनके साथ हुई अमानवीयता -- पहले कभी नहीं देखी गयी | मजदूर वर्ग ने पग- पग पर अनगिन विपदाओं का सामना किया | बहुत बड़ी संख्या में उनकी मौतों ने सम्पूर्ण मानवता को शर्मसार और स्तब्ध कर किया ! अपने गाँव - गली लौटकर अपनी जड़ों में समाने को आतुर- कम शिक्षित श्रमिकों के रूप में सामने आई सामूहिक भावना अपठित और अबूझ है | शायद आत्मीयता के इस अद्भुत रसायन का कोई विकल्प संसार में नहीं | और कोई प्रयोगशाला इसका विश्लेषण कर पाने में सक्षम हो--- ऐसा नहीं लगता | माटी के लाल श्रमवीर ने जो संस्कार संजो कर रखा है --वह है जननी , जन्म भूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है | शहर में बहुत साल बिता देने पर भी उसे छोड़ते समय उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता , पर गाँव में बहुत कुछ है जिसे वह गाँव से पलायन के समय छोड़ आया था-- जो उसे लौटकर फिर मिल जाएगा | अपनी माटी की गंध उसे हमेशा अपने भावापाश में बांधे रखती है | उनके असुरक्षित मन का एक मात्र सुरक्षा कवच , मानो उनकी जन्म भूमि ही है। उनकी छटपटाहट कोई राजनैतिक स्वांग नहीं ---उनकी अपनी माटी और अपनों के प्रति अगाध आत्मीयता है, जिसे वे सबको बताना चाहते हैं!उनकी प्रगाढ़ आत्मीयता को शहर की चकाचौँध अभी तक आच्छादित नहीं कर पाई है , क्योंकि वह प्रगति के उस शिखर को कभी छू नहीं पाया -जहाँ संवेदनाएं शून्य हो जाती हैं ।यूँ भी जीवन ऐसे वर्ग के प्रति बहुत अधिक कठोर रहा है , जैसे उसके गाँव प्रयाण में भी उसने बहुत परीक्षाएं दी हैं , जिनमें वह बहुधा अपनी जीवटता से विजयी माना गया है | उसकी जीवटता को कोरोना संकट ने और प्रबल कर दिया | अंतस में असीम करुणा जागते . मानवसंघर्ष के ये पल जनमानस के लिए अविस्मरणीय रहेंगे और इनकी स्मृतियाँ मन को सदैव विचलित करती रहेंगी |
जीना होगा कोरोना के साथ -- सदियों से ही दुनिया महामारियों से बहुत त्रस्त रही है |नाम बदल-बदल कर , नए नए रूपों में बीमारियाँ मानव को सताती रही हैं और अनगिन जिंदगियां लीलती रही हैं क्योंकि किसी भी अप्रत्याशित बीमारी का उपचार उसके आने से पहले पता हो ये शायद मुमकिन नहीं | इसी तरह कोरोना के उपचार के साधन ढूंढें जा रहे हैं | दूसरे शब्दों में कहें , कोरोना जैसी महामारी के एकदम मिटने की कोई गुंजाईश फिलहाल नजर नहीं आती , पर फिर भी अपनी सजगता और समर्पण से हम इसे काबू जरुर कर सकते हैं | स्वच्छता के साथ सामाजिक दूरी का पालन करते हुए हमें उन दुर्व्यसनों को छोड़ना होगा , जो बढ़ती सम्पन्नता से पैदा हुए थे | माल और बार संस्कृति से दूरी बनानी होगी , तो अनावश्यक भीड़ का मोह त्यागना होगा | साथ में लोकबंदी के दौरान मिले आत्मीयता के संस्कार को दीर्घजीवी बनाना होगा , तभी हम इस विपति से पार आ पाएंगे | तेजी से भाग रहे जीवन का ये ठहराव - काल यही कहता है कि हमें वैभव विलास से इतर अपने बारे में -- अपने अपनों के बारे में या फिर देश - समाज के कल्याण के बारे में जरुर गंभीरता से सोचना होगा | बहुत ज्यादा बड़े नहीं , बल्कि छोटे से छोटे प्रयास जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं , कि जीवन में ये ठहराव आवश्यक था -- जो हमें सब कुछ गंवाने के स्थान पर - बचे हुए को सहेजने की अनमोल सीख देकर जा रहा है |
ईश्वर से प्रार्थना है महामारी कोरोना का ये भीषण संकट काल मानवता का नवप्रभात हो |
चित्र --- गूगल से साभार |
जी रेणु दी, कोराना के प्रभाव से समाज में क्या परिवर्तन आया है, इसको आपने अपने लेख के माध्यम से बहुत ही सुंदर तरीके से दर्शाया है।
जवाब देंहटाएंनिश्चित हमारी संवेदनाएँ जगी हैं। सड़क दुर्घटनाएँ भी काफ़ी कम हुई हैं। पारिवारिक संबंधों में सुधार भी आया है। श्रमिक वर्ग वापस अपने गाँव- घर की ओर लौटा है , जिसे वर्षों पहले उसने आजीविका की तलाश के लिए छोड़ दिया था ।
...किंतु सिक्के का दूसरा पहलू भी होता है। अतः अधिक समय तक पुरुषों की घर में उपस्थिति से घरेलू हिंसा बढ़ने की ख़बर भी हम पत्रकारों के पास है। मदिरा की दुकान खुलते ही गृहिणियों की स्थिति नाजुक हो गई है। आयेदिन महिलाओं द्वारा आत्महत्या करने का समाचार प्राप्त हो रहा है। बंद प्रतिष्ठानों में चोरों का डंका बजने लगा है । रही संवेदनाओं की बात ,तो उन श्रमिक से पूछें जरा, जिन्हें सरकार ने विशेष ट्रेन से घर भेजने की व्यवस्था की थी, उनका टिकट निःशुल्क था, किन्तु पुलिस की उपस्थिति में उनसे छहः सौ से आठ सौ रुपये तक दलालों ने वसूल लिये। वहीं आज दैनिक जागरण के पहले पेज यह समाचार प्रमुखता से छपा है कि प्रवासी श्रमिक के लिए रोटी ही भगवान है, इसलिए ट्रेन से वापस महानगरों को जाने के लिए उन्होंने टिकट आरक्षित करवा लिए है।
शशि भैया , सबसे पहले आपकी सशक्त प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार | आपने सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में समाज औए प्रशासन के अनदेखे तथ्यों से अवगत कराया | मेरा कहने का तात्पर्य ये बिलकुल भी नहीं था कि लोकबंदी से जीवन की हर समस्या का जादुई समाधान हो गया है | पर मुझे ये जरुर लगता है, इस ठहराव ने हमें बहुत कुछ सोचने का मौक़ा देकर हमारी जड़ संवेदनाओं को झझकोरा है | श्रमिकों की समस्याएं निश्चित रूप से बड़ी हैं| ये लोग प्रकृति और मानव दोनों के अन्याय का शिकार हुए |और सचमुच रोटी सबके लिए भगवान् है |पर किसी को सहज सुलभ हो जाती है, कोई जिन्दगी भर इसके कारण दरबदर भटकता रहता है |श्रमिकों की घर वापसी हो या घरेलू हिंसा के बढ़ते मामले , सबके रूप में कोरोना काल एक सामाजिक क्रांति बनकर उभरा है | निश्चित रूप से इस पर आने वाले समय में खूब शोध होंगें | पुनः आभार विषय पर आपके सार्थक विमर्श के लिए |
हटाएंबहुत सुंदर आलेख। कोरोना काल में आए परिवर्तनों का बख़ूबी चित्र खींचा गया है। ऊपर 'व्याकुल पथिक' की व्याकुलता भी उतनी ही जायज़ है किंतु जिन प्रवृतियों पर उन्होंने व्याकुलता प्रदर्शित की है वह अब समाज के चरित्र का सामान्य पक्ष-सा हो गया है जहाँ इंसान अपनी इसी हैवानियत से चरित्र से लेकर पर्यावरण तक में प्रदूषण की ढेर सारी समस्यायों को ले आया है। कोरोना काल में जिन दृष्टिगत परिवर्तनों की ओर लेखिका ने इस लेख में संकेत किया है वह निश्चय ही, चाहे अल्पकालिक हों या दीर्घकालिक (यह तो भविष्य के गर्भ में है), घुटन भरे और दिन पर दिन बोझिल होते जा रहे इंसानी जीवन में बही एक ताज़ी हवा के समान है जिसने एहसासों के एक नए आयाम का उद्घाटन किया है। इस काल से जुड़े सभी पक्षों का बड़ी बारीकी से विश्लेषण किया गया है और बौद्धिक समाज के समक्ष आगे के होने वाले परिवर्तनों पर विमर्श और विश्लेषण का बीज बोया गया है। एक गम्भीर और विवेचनापूर्ण विषय पर आपकी परिपक्व लेखनी का आभार। भविष्य में कविताओं से तनिक विश्राम लेकर यूँ ही निबंध-लेखन को भी समृद्ध करती रहें। बधाई!
जवाब देंहटाएंआदरणीय विश्वमोहन जी , रचना पर आपकी सकारात्मक प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार |आपने सच कहा प्रकृति के प्रति इन्सान की प्रवृति ने सृष्टि को घोर संकट में डाल दिया है | अदूरदर्शिता के चलते उसके कदम गलत दिशा की ओर अग्रसर थे | शादी व्याह दिखावे का अखाड़ा बन गये थे | जहाँ पहले घर से ऐसे अवसरों पर , एक दो सदस्य शामिल होता था , वहां अब सपरिवार धावा बोला जा रहा था |इस पर किसी के पास होने की ख़ुशी तो दूसरे के पास ना होने के बावजूद दिखावे के लिए खर्चने की मज़बूरी | ना जाने कितना कचरा हर शादी और व्यर्थ के जगराते - कीर्तनों और पार्टियों के बहाने पैदा हो रहा था |सब कुछ फिलहाल तो बंद सरीखा है |लोग यदि अपना व्यवहार बदलते हैं तो ये बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति होगी |आपका स्नेहासिक्त सुझाव जरुर याद रखूंगी और इसे अम्ल में लाने की पूरी कोशिश करुँगी | आपकी ब्लॉग पर उपस्थिति के लिए पुनः सादर आभार |
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (01जून 2020) को 'ख़बरों की भरमार' (चर्चा अंक 3719 ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
आदरणीय रवीन्द्र जी , आपके साथ चर्चा मंच का हार्दिक आभार , जिससे लेख नियमित और नये पाठकों तक पहुंचा |
हटाएंअच्छा चिन्तन।
जवाब देंहटाएंपत्रकारिता दिवस की बधाई हो।
आपको भी बधाई और शुभकामनाएं आदरणीय गुरु जी | ब्लॉग पर आपकी नियमित उपस्थिति मेरा सौभाग्य है |सादर -
हटाएंजी दी प्रणाम।
जवाब देंहटाएंमहामारी के इस अव्यवस्थित दौर का सूक्ष्म अन्वेषण,सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष पर विस्तृत व्याख्या... समूचे काल का निचोड़
लिख दिया है आपने।
गहन चिंतन पर विस्तृत आलेख सराहनीय है।
जी दी समय के बदलावों को स्वीकार करना ही होगा। जीवन के अच्छे बुरे रंग को विस्तार से आकार लेते देखने का अनुभव आपने साझा करने का प्रयास किया है।
बधाई दी।
बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने।
सादर
प्रिय श्वेता , लेख पर तुम्हारे विचार जानकर अच्छा लगा | परिवर्तन संसार का अटल नियम है , पर आकस्मिक आपदाएं और महामारियां इस परिवर्तन में पंख लगा देती हैं जिनसे अनवरत जूझना इंसान की मज़बूरी बन जाती है | निश्चित रूप से कोरोना जैसी महामारी के प्रभाव दीर्घकालिक होते हैं | इन प्रभावों में क्या अच्छा है क्या बूरा यह तो भविष्य ही बताएगा , पर फिलहाल दुनिया एक नाज़ुक दौर से गुजर रही है और इन प्रभावों से बच पाना किसी के लिए भी संभव नहीं | हम बस प्रार्थना ही कर सकते हैं कि सब अच्छा हो | सार्थक प्रतिक्रिया के लिए तुम्हारा हार्दिक आभार | |
हटाएंआदरणीया रेनू जी, आपने अपने इस विचारोत्तेजक लेख में कोरोना काल की उपलब्धियों और विसंगतियों का आकलन करने की कोशिश की है। अभी लॉक डाउन खुलने के समय यह लेख पिछले बीते समय की समीक्षा और भविष्य के उज्जवल होने का भी संकेत दे रहा है। आपने सूझ - बुझ और तल्लीनता से सारी सकारात्मक और नकारात्मक प्रसंगों को समेटने की सार्थक कोशिश की है। आपके कई विश्लेषणों से असहमति हो सकती है, जैसा की "व्याकुल पथिक" जी ने लिखा है परन्तु आपकी पारदर्शिता और सहज सम्प्रेषणीयता पर कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। सुन्दर लेख के लिए साधुवाद !--ब्रजेन्द्र नाथ
जवाब देंहटाएंआदरणीय सर , ब्लॉग पर आपकी उपस्थिति से बहुत ख़ुशी हुई | अच्छा लगा कि आपने मनोयोग से लेख पढ़ा और उस पर सार्थक प्रतिक्रिया भी दी | और अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहती हूँ कि मेरे विचारों से पाठकों का सहमत होना बिलकुल भी अनिवार्य नहीं | असहमत पाठक भी विमर्श में अपना अहम् योगदान देते हैं | शशि भाई की चिंताएं अपनी जगह सही हैं | वे जनप्रतिनिधि और जागरूक पत्रकार होने के नाते सामाजिक सरोकारों का बहुत ज्ञान रखते हैं |हर घटना को नजदीक से देखने का अनुभव भी उनके पास है |हम भी बस यही आशा रखें कि भविष्य में प्रत्येक बदलाव सार्थकता भरा हो | | लेख के रूप में आपको मेरा प्रयास अच्छा लगा , उसके लिए आपका हार्दिक धन्यवाद और आभार | | सादर -
हटाएंरेणु जी, आपके इस लेख के बाद समझ में नहीं आ रहा क्या प्रतिक्रिया दूं, आपने तो नि:शब्द कर दिया ... इतना अच्छा और समग्रता के साथ सभी बदलावों पर लिखा है कि बस.... लााााााजवाब
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपका आना ही मेरे लिए उत्तम उपहार है आदरणीय अलक जी | आपकी सराहना अनमोल है | हार्दिक आभार और शुभकामनाएं | स्नेह बनाएं रखें |
हटाएंबेहतरीन आलेख आदरणीय रेणु दीदी. महामारी में हो रही त्रासदी को सुंदर ढंग से समेटा है मज़दूर की मार्मिक व्यथा वह कैसे टिके एक जगह पेट की भूख कहाँ टिकने देती है. बहुत बहुत बधाई सुंदर सारगर्भित आलेख हेतु.
जवाब देंहटाएंसादर
प्रिय अनीता , लेख पर तुम्हारी उपस्थिति से बहुत संतोष हुआ |तुमने सच कहा कोरोना के संकट काल में मजदूर सबसे ज्यादा पीड़ित हुए | उनकी व्यथाओं का निवारण करने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयासों की जरूरत है ||सार्थक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार और शुक्रिया |
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सामयिक आत्मसात योग्य लेख , बधाई रेणु !!
जवाब देंहटाएंआपने लेख को पढ़कर सार्थक किया और मेरे ब्लॉग का मान बढ़ाया, जिसके लिए आभारी हूँ सतीश जी🙏🙏
हटाएंआपकी लिखी कोई रचना सोमवार 28 जून 2021 को साझा की गई है ,
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
मेरा लेख एक बार फिर से पाठकों के रूबरू करने के लिए हार्दिक आभार प्रिय दीदी |
हटाएंव्वाहहहहह..
जवाब देंहटाएंबढ़िया
गहन सोच..
सादर..
हार्दिक आभार आदरणीय दीदी |
हटाएंकोरोना काल के विषय में जो एक साल पहले लिखा था व्व आज भी उतना ही सत्य है । बेहतरीन आलेख ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार प्रिय दीदी |
हटाएंपहले तो क्षमा चाहती हूँ सखी तुम्हारे इस अनमोल लेख को मैं आज पढ़ पाई। देरी इसलिए हुई क्योंकि मैं खुद उन दिनों कोरोना के जुल्मो-सितम को झेल रही रही थी,परिवार से दूर...खुद को उनके पास ले जाने के जदोजहद में फंसी थी....ब्लॉग से नाता टुटा था। बहुत ही विचारणीय लेख लिखा है। तुमने बेहद सूक्ष्म अन्वेषण कर ,सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष पर विस्तृत व्याख्या की है। आज भी इस पर मंथन करने की आवश्यकता है,सादर स्नेह सखी
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार प्रिय कामिनी | क्षमा मत कहो जानती हूँ उन दिनों तुम कितनी परेशान थी | तुम्हें लेख पसंद आया ख़ुशी हुई ||
हटाएंकठिन समय बहुत बार सकारात्मकता के पक्ष उजागर कर जाता है। सुन्दर विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार प्रवीण जी ||
हटाएंसही कहा आ.संगीता जी ने कि कोरोना काल के विषय में जो एक साल पहले लिखा था वह आज भी उतना ही सत्य है
जवाब देंहटाएंसकारात्मक बदलाव जो भी आपने लिखे हैं वे अक्षरशः सत्य हैं
कुल मिलाकर लोगों को साँस लेने की फुरसत मिली इस दौरान। सम्भवतः उस भागमभाग जिन्दगी को विराम देने का सिर्फ और सिर्फ यही साधन बचा होगा प्रकृति के पास।अब रहे नकारात्मक पहलू...तो ये भला कब नहीं थे और कब नहीं होंगे... हाँ प्रवासी मजदूरों पर जो गुजरी वो अत्यंत खेद का विषय है। और ये इतना भयावह शायद ना भी होता अगर यहाँ भी सियासी खेल न खेला जा रहा होता।
बहुत ही सार्थक, एवं सारगर्भित...
लाजवाब लेख।
प्रिय सुधा जी , आपकी सारगर्मित प्रतिक्रिया मेरी रचना को विशेष गरिमा प्रदान करती है |खुश हूँ की आपने मनोयोग से लेख पढ़ा |हार्दिक आभार और प्यार आपके लिए |
हटाएंइस कथित लोकबंदी के दौरान भावनाओं को नया जीवन मिला है -- अगाध आत्मीयता का सुधारस रिक्त -मनों को सिक्त कर रहा है | सयुंक्त परिवार की एकजुटता का आनन्द युवा पीढ़ी ने इतनी बेफिक्री के साथ -- पहली बार लिया |सभी को जीवन का ये आनंदकाल अविस्मरनीय रहेगा | ...सही एकदम सही कहा आपने रेणु जी,मेरा भी यही अनुभव रहा, इसके अलावा मैंने तो खुद बहुत से अपनी रुचि के कार्य किए, सालों बाद ब्रश उठाया और पेंटिंग की,कई पुरानी और नई खाने की रेसिपी ट्राई की,और ढेरों मास्क सिलकर दान किए ।बहुत से लोगों ने कुछ न कुछ सकारात्मक कार्य किया परंतु कुछ लोग केवल पूरे समय रोते रहे,कोरोना को,सरकार को दोष देते रहे.....हाँ कई बार परिस्थितियाँ विषम हुईं,जैसे कि सुधा जी ने उद्घृत किया है,परंतु ये महामारी का दौर है ये सोचकर हमें जीवन को आगे ले जाना चाहिए..आपका ये लेख बहुत ही तथ्यपरक तथा प्रेरक भी है,बहुत शुभकामनाएँ आपको मेरी तरफ़ से तथा सादर नमन।
जवाब देंहटाएंप्रिय जिज्ञासा जी , सबसे पहले मेरे ब्लॉग मीमांसा पर आपका हार्दिक स्वागत है | आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया से लेख के भावों को विस्तार मिला | आपने कोरोना काल में इतने सुरुचिपूर्ण कार्य किये ये आपकी जीवटता और कर्मठता को दर्शाता है |खासकर मास्क बनाकर जरुरतमंदों को बाँटना एक बहुत ही प्रेरक कार्य किया आपने , जिसके लिए जितनी सराहना करूं कम है | लेख पर इतने गंभीर अवलोकन के लिए हार्दिक आभार आपका | |
हटाएंविषम परिस्थितियों में आपदा में अवसर को नकारात्मक रूप दिया गया. परंतु आपने इसके सकारात्मक रुख को स्पष्ट किया.
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग मीमांसा पर आपका हार्दिक स्वागत है वाणी जी | लेख पर आपकी अनेहिल प्रतिक्रिया से ख़ुशी हुई जिसके लिए आपका हार्दिक आभार |
हटाएंअच्छे शब्द चित्र, अच्छी कामना, किंतु....
जवाब देंहटाएंकिसी ने कुछ नहीं कुछ सीखा, दुनिया फिर से पुराने ढर्रे पर चल पड़ी है रेणु जी! न जीवन शैली में कोई उल्लेखनीय सुधार हुआ और न मानवता जाग सकी । लड़ पड़े न यूक्रेन और रूस । उधर चीन भी ताइवान पर सवार होने के लिये बेचैन हुआ जा रहा है ।
घर के बाहर कोरोना है /डरा हुआ आदमी
जवाब देंहटाएंघर में क़ैद है / चूँचूँ चिड़िया बहुत ख़ुश है
बिना शोर के ख़ामोश शहर / अब उसे अच्छे लगने लगे हैं
मुर्दा जैसे शहर में / चिड़ियों के कलरव
चाशनी घोलने लगे हैं / हिरण-नीलगाय-भालू-बाघ-चीता...
जंगल से निकलकर / शहर की सड़कों पर घूमने लगे हैं
गगनचुम्बी इमारतें उन्हें हैरान करती हैं
जरा सा आदमी / इत्ती ऊँची-ऊँची गुफ़ाओं में
घुसता कैसे होगा / जंगल के खग-मृग सोचने लगे हैं ।
हाथी गुस्से में हैं / हमारे जंगल पर कब्जा करके
कितना तहस-नहस कर दिया है इन बेवकूफ़ों ने
कैसी-कैसी गुफायें खड़ी कर दी हैं
मैं आज इन सारी गुफाओं को गिरा दूँगा
गंदे शहर को जंगल बना दूँगा ।
समझदार भालू ने सुझाव दिया / आओ !
आज हम ज़श्न मनाएँ / आदमी तो
मुँह छिपाकर / अपनी गुफा में क़ैद है
गुफा के मुहाने पर / कोरोना का कहर है
इन पापियों से उलझकर / आप अपनी इमेज
ख़राब क्यों करना चाहते हैं
आदमी तो / अपने पाप के बोझ से दबकर
यूँ ही मर रहे हैं
शहर कब्रिस्तान बन रहे हैं / ट्रम्प और जिनपिंग
एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं
बचे हुये बेबस लोग / दो वैश्विक दबंगों के झगड़े का
छिप-छिपकर तमाशा देख रहे हैं
सबकी हेकड़ी निकल रही है /
मुस्कुराता हुआ नन्हा कोरोना
विश्वभ्रमण पर निकला है / हम भी /
शहर की सूनी सड़कों पर चहल क़दमी करें
थमी हुई चमचाती कारों पर हगें-मूतें
शहर के चप्पे-चप्पे पर कब्ज़ा कर लें
नाचें-गायें-उछलें-कूदें / ज़श्न मनाएँ ।
नन्हे कोरोना! तुम कित्ते अच्छे हो!
आदरणीय डॉ कौश्लेंद्र्म जी , हार्दिक आभार है आपका इस सुंदर काव्य रचना के लिए , जो कि मानों मेरे लेख का ही काव्यात्मक रूप है| सच में कुछ नहीं सीखा किसी ने पर उस ठहराव ने दुनिया को ठहर कर सोचने का मौक़ा जरुर दिया , कुछ दिनों के लिए प्रकृति भी अपने निर्मल रूप की अनुभूति कर प्रसन्न अवश्य हुई होगी || इन सबके बावजूद कोई अगर कुछ ना समझे तो ये उसकी नादानी हैं | आपकी ये काव्य रचना मेरे ब्लॉग की अनमोल थाती है | कोटि आभार और अभिनन्दन आपका |
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