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गुरुवार, 29 नवंबर 2018

समाज के अनसुने मर्मान्तक स्वर ----------------पुस्तक समीक्षा- चीख़ती आवाजें - कवि ध्रुव सिंह ' एकलव्य '---




साहित्य को समाज का दर्पण कहा  गया है | वो इसलिए समय के निरंतर प्रवाह के दौरान साहित्य के माध्यम से हम तत्कालीन परिस्थितियों  और उनके  प्रभाव से आसानी से रूबरू हो पाते हैं | सब लोग हर दिन  असंख्य लोगों की समस्याओं और उनके जीवन के  सभी रंगों को देखते रहते हैं शायद वे उनके बारे में सोचते भी हों पर उनकी पीड़ा उनकी  खुशियों को शब्दों में व्यक्त करने का हुनर हर इंसान में नहीं होता , ये कार्य एक कलम का धनी इंसान ही बखूबी कर सकता है | आज रचनाधर्म से जुड़े अनेक लोगों की रचनाएँ हमारी नजर से गुजरती हैं | उनके विषय अनेक हो सकते हैं और उनके भीतर  के स्वर भी अलग -अलग भावों में गूंथे होते  हैं  |  अमूमन हर  कवि या साहित्यकार  की शुरुआत प्रेम विषयक रचनाओं  से शुरू होती है | उसके अस्फुट स्वर प्रेम  को  रचने के लिए    लालायित रहते हैं जो  सपनों की दुनिया में लेजाकर कुछ पल को  पढ़ने   और लिखने वाले  को  अपार  सुकून देता है |  पर कुछ ऐसे रचनाकार भी होते हैं जो किसी के दर्द को देख कभी  खाली  नहीं लौटे और उस दर्द को उन्होंने अपने  अंतस  में संजो इसकी वेदना  अनुभव करने के बाद --  शब्दों में पिरो अनगिन लोगों तक पहुंचाने का स्तुत्य  प्रयास   किया है | ध्रुव सिंह 'एकलव्य 'एक  ऐसे ही  रचनाकार   हैं ,जो समाज के शोषित वर्ग की वेदना की जड़ तक पहुंच उसे रचना में  ढालने का हुनर रखते हैं |    |

ध्रुव सिंह 'एकलव्य '  जी की रचनाओं से मेरा परिचय शब्द नगरी के मंच पर हुआ जहाँ मैंने उनकी पहली रचना पढ़ी तो मैं बहुत प्रभावित हुई, क्योंकि    एक अत्यंत युवा कवि  से बहुत ही संवेदनशील  कविता की उम्मीद प्रायः नहीं होती पर ध्रुव जी का लेखन बहुत ही सधा और शब्दावली  प्रगतिवादी कवियों की याद दिला रहा था  |  उस रचना के बाद भी मैंने  उनकी  कई  रचनाएँ और  पढ़ी , सभी बहुत ही उम्दा  थी और चिंतन परक थी  |   बाद  में   जब  मैंने  जुलाई 2017  में    अपना ब्लॉग  बनाया तो पता चला , कि अपने  ब्लॉग के माध्यम से ध्रुव जी  बेहद सजग और धारदार लेखन कर ब्लॉग जगत में अपनी  अलग पहचान  रखते  हैं  साथ में   साहित्य में  नयी प्रतिभाओं को खोजकर लाने में   निष्पक्ष और प्रभावशाली  चर्चाकार  की  भूमिका अदा कर रहे हैं | मैंने ब्लॉग पर उनकी जितनी भी  रचनाएँ पढ़ी-उनमे कवि  समाज के  उन पात्रों पर पैनी दृष्टि से अवलोकन कर मंथन और चिंतन करता  है जो सदियों से  समाज द्वारा दमित औरउपेक्षित है  |
 पिछले दिनों 'एकलव्य ; जी का  प्रथम  काव्य संग्रह  -- ''चीख़ती-आवाज़ें ''  अस्तित्व में आया  जिसे  पढ़ने का मुझे भी  सौभाग्य मिला  | इस पुस्तक से मुझे    एक  कवि  की  प्रखर अंर्तदृष्टि  से रूबरू होने का अवसर मिला |  इस पुस्तक में  शामिल रचनाओं के माध्यम से   मेरा  प्रकृति और प्रेम की  दुनिया से कहीं दूर  संवेदनाओं के ऐसे संसार  का परिचय  हुआ जो मन को  झझकोरती हैं | सभी रचनाओं   में समाज के शोषित वर्ग की एक मार्मिक तस्वीर सजीव हुई है  | सभी  विषय समाज में अनदेखी का शिकार   वो  करूण  पात्र  हैं ,जिन्हें दुनिया  ने  सदैव  अपनी ठोकर पर रखा | संभ्रांत वर्ग ने जिनके श्रम  के बूते  खुशहाल   जीवन जिया , लेकिन  खुद उनकी पीढियां इसी उम्मीद में खप  गईं  कि उनका जीवन बेहतर करने  कोई मसीहा आयेगा   , पर  ऐसा कोई भाग्यविधाता  उनका  भाग्य  संवारने कभी नहीं आया |    सत्तायें बदली , समय बदला लेकिन  इन अभागों के नसीब नहीं | | उनके प्रति एक  युवा   कवि   ने एक सूत्रधार की भूमिका निभाई है जो उनका दर्द दुनिया को सुनाना चाहता है   , उनकी कहानियां  अपनी रचना में रच  उनके जीवन का कड़वा सच सबके आगे   प्रकट करना चाहता है | ये   अति संवेदन शील रचनाएँ    सोचने पर विवश करती हैं  कि  हम किस समाज में जी रहे हैं ?   इस सुसभ्य और सुशिक्षित  दुनिया में अभी भी इस   शोषित ,  दमित वर्ग  को  औरों की तरह  जीवन  जीने का अधिकार कब मिलेगा ?   इस पुस्तक को  पढ़ने के दौरान मेरा मन अनेक  तरह की संवेदनाओं और   चिंतन से गुजरा  जिसका अनुभव मैं अपने सहयोगी रचनाकारों और पाठकों के साथ बांटना चाहती हूँ |
पुस्तक परिचय -- काव्य संग्रह ''   'चीख़ती-आवाज़ें ' में ध्रुव  सिंह  जी की 42 काव्य रचनाएँ संगृहित की गयी हैं  पुस्तक की भूमिका ब्लॉग जगत के  सशक्त  रचनाकार और  प्रखर चिंतक  आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी ने लिखी है जो  पुस्तक के मर्म को उद्घाटित करते हुए पाठकों के समक्ष  एक  विराट चिंतन का विल्कप संजोती है  |  पुस्तक की  भूमिका निहायत शानदार  बन पड़ी है, जो पाठकों को पुस्तक पढने के लिए प्रेरित करने में सक्षम है | तत्पश्चात  ध्रुव जी ने मात्र कुछ शब्दों में अपने लेखन को  परिभाषित करते हुए  इसे  अपना  सामाजिक  कर्तव्य मानते हुए अपना सुस्पष्ट आत्म कथ्य लिखा है ,जिसमे उन्होंने अपने भीतर व्याप्त  नैतिक मूल्यों का श्रेय अपने  पिताजी के  अनुशासन और न्यायप्रियता के अक्षुण प्रभाव को दिया है | पुस्तक में छपे उनके परिचय से ज्ञात होता है स्वयं एक कृषक परिवार से  होने के कारण कवि कृषक वर्ग की दुविधाओं और पेशेवर विसंगतियों से बखूबी वाकिफ है  | उनके साहित्यिक जीवन  की शुरुआत       उनके  विद्यार्थी जीवन के दौरान काशीहिन्दू विश्वविद्यालय  के प्रांगण से      हुई   - जिसे  साहित्य और दर्शन की उर्वर भूमि कहा  जाता है |वहां से  शुरू हुआ सफर  दिनोदिन उनके सतत अभ्यास और प्रयास से निखर रहा है ,जिसका  एक सुंदर  पड़ाव इस पुस्तक के रूप में आया है |पुस्तक की  कई रचनाएँ  नारी विमर्श को समर्पित है   जो विभिन्न  नारियों के जीवन में व्याप्त पीड़ा और संघर्ष के रूप में   शब्दों में  व्यक्त होते हैं  तो कभी मन को भिगोते हैं तो कभी  उसकी जीवटता पर उसे नमन करने को बाध्य करते  हैं | पुस्तक की पहली ही रचना '' मरण तक ''  में कवि  ने बीडी  बनाने  के लिए  पत्तों  को  ले जाती   एक महिला पात्र   का मर्मस्पर्शी चित्र शब्दों में उकेरा   है जिसे  ट्रेन के सफर के दौरान  देखकर  उसके बदन से उठती  दुर्गन्ध से  नाक सिकोड़ते  लोगों से उसका कहना है  कि आज  वे  लोग   भले ही उसे देखकर  नाक भौं सिकोड़ रहे  हैं  | कल बीडी के रूप में इन पत्तों से धुंए के छल्ले उड़ाते हुए   उन्हें इस दुर्गन्ध का  एहसास  नहीं रहेगा  अपितु   उन्हें  वह तब एक सुन्दरी सी नजर आयेगी |  वह कहती है --
बाबूजी
 मत देखो |
विस्मय से मुझे और
 मेरी  दुर्दशा जो हुई
उन पत्तों को लाने में |
आग में धुआं बनाकर
 जो लेगें कभी
तब दिखूंगी |
सुन्दरी सी मैं !!!!!!!!!!
एक अन्यरचना ''  जुगाड़ '' में    आकंठ गरीबी में डूबी माँ  के जाते यौवन और अनायास खो गयी रूप आभा को बहुत ही मार्मिकता से प्रस्तुत करते कवि लिखता है -
यौवन जाता रहा -
झुर्रियां आती रही 
बिन  बुलाये हर रोज 
आकस्मिक बुलाया 
मेहमान की  बनकर 
प्रसन्न थे हम 
 दिन प्रतिदिन 
खो रही थी वो 
हमें प्रसन्न करने के जुगाड़ में !!!!!!! 
एक  अन्य रचना '' सती की तरह ' में एक नारी के अन्तस् की घनीभूत पीड़ा को  बड़ी स्पष्टता से  शब्द दिए हैं  समाज  ने उसे अदृश्य  वर्जनाओं में जकड़   उसके  मूक और बन्ध्या रूप  को ही  सदैव   मान्यता दी   है |हर दौर में उसके सती रूप को ही पूजनीय  और सम्मानीय   समझा गया , जिससे बाहर आने पर  उसके   समर्पण की गरिमा खंडित मानी जाती है | वो बड़ी वेदना से कहती है --
 मुख बंधे हैं मेरे 
समाज की वर्जनाओं से 
खंडित कर रहे है - तर्क मेरे 
वैज्ञानिकी  सोच रखने वाले 
अद्यतन सत्य ,
 भूत  की वे ज्योति रखने वाले :
इसी तरह  ''महाप्राण  निराला ''   की मूल रचना  वह तोडती पत्थर  की नायिका  को आधुनिक सन्दर्भ    में    एक नई सोच के साथ प्रस्तुत  करते हुए कवि ने अपनी रचना ''फिर वह तोडती पत्थर '' में नैतिकता   मापदंडों से   दूर जाने की विवशता  को उकेरते लिखता है
 अब तोड़ने  लगी  हूँ
 जिस्मों  को 
उनकी फरमाईशों से 
भरते नही थे की तुडाई से ;
अंतर शेष है केवल 
कल तक तोडती थी 
बे - जान से उन पत्थरों को | 
अब तोड़ते हैं , वे मुझे 
निर्जीव सा 
पत्थर सा समझकर !!!!
श्रम  से जीवन यापन करती  एक श्रमी नारी को जीवन मूल्यों की आहुति दे अपने दैहिक शोषण  के  साथ जीना कितना दूभर होता  होगा ये रचना  उस सच्चाई से रूबरू  करवाती है |
 रचना  ''सब्जी वाली ''  में नायिका  दुनिया की  कुत्सित निगाहों का शिकार होती है-- हर  रोज़ और हर पल | लोग  सब्ज़ी से ज्यादा उसकी आकर्षक देह -यष्टि  अवलोकन करते हैं | वह आक्रांत हो वेदना भरे स्वर में कह उठती हैं --
सब्जियां कम खरीदते हैं 
लोग 
मैं ज्यादा बिकती हूँ !!
नित्य ,
उनके हवस भरे चेहरे 
हंसती हूँ केवल यह
 सोचकर 
बिकना तो काम है मेरा 
कौड़ियों में ही सही |
कम से कम 
चौराहे पर बिक तो 
रही हूँ ,
ओ !
  खरीदारों ! 
एक अन्य मर्मस्पर्शी रचना ' दीपक जलाना ' में शिक्षा   के  अभाव में नर्क भोग  संसार से विदा होती बेटी की शिक्षा की अनंत  कामना को  पिरोया  गया है जो बहुत ही मार्मिक शब्दों में माँ  से अनुरोध करती है कि
 स्कूल  की किताबों से भरे बैग 
टांगे मेरे कांधों पर | 
दूसरा  जन्म हो ,
इस तरह 
 विश्वास दिलाना 
 माँ दीपक जलाना !
  क्योंकि बेटी को  पता है  इस  नरक  से बचने का उपाय एक मात्र शिक्षा   है|  उसे  मलाल है कि
काश !  माँ ने     चौके के बर्तन थमाने के स्थान पर    उसके हाथों में कलम पकडाई होती | एक नन्ही बालिका  मुनिया अपनी बकरी को अपने रूप में देखती अपनी ' मुनिया समझती है  और उसके बड़ा ना होने की कामना करती है | ये समाज में जी रही हर बालिका के मन की असुरक्षा को इंगित करता है |

 समाज  का  सबसे शोषित पात्र  ''  बुधिया '' अनेक रूपों में    रचनाओं के माध्यम से साकार होता है |   सड़क बनाने  वाले  मजदूर   के हिस्से में भरसक  मेहनत के बावजूद  भोजन के रूप में दो जून की  सूखी रोटी ही आती है   | एक रचना में  उसकी करुण-गाथा का एक अंश ----
पाऊंगा परम सुख
सुखी रोटी से 
फावड़ा चलाते हुए 
 उबड खाबड़ 
 रास्तों पर | 
समतल बनाना है |सडक
दौडती - भागती चमचमाती  
जिन्दगी के लिए 
जीवन अन्धकार में ,
स्वयं का रखकर | 
किसान'  बुधिया 'की वेदना को उसके खेत के हरे भरे धान  भी अनुभव करते हैं ,  जो  अपने   हाथों  से खेत में घुटनों तक पानी में उन्हें रोपता है  और उनकी लहलहाती फसल को नम आखों से   निहार कर  खुशहाली के सपने सजाता है | वे उन परदेसियों के आगमन से भयभीत है जो उन्हें लेजाने  आयेंगे | वे डरे से कहते है
डरे भी हैं|
प्रसन्न भी
कारण है 
वाज़िब
परदेसियों के आगमन का |
मेहनत बिना ले
 जायेंगे हमको 
हाथों से हमारे
पालनहार के ,
 जिन्हें   हम
'बुधिया '
बाबा कहते हैं | 

तो कहीं  ऊँची   अट्टालिकाओं  से बहिष्कृत एक आम आदमी 'बुधिया 'जो  फूटपाथ  पर आकर खुली हवा में  चैन की नींद  में सोया है  ,का    सुकून भरा दर्द पिरोया गया है |  विडम्बना है , कि किसी समय वह इसी  फुटपाथ पर कूड़ा फैंका करता था जहाँ आज उसे सोने के लिए खुली फिज़ां मिली है | वह इस का पता बताने वाले इन्सान का शुक्रिया अदा करता हुआ कहता है --
भला हो
उस इंसान का
 बताया जिसने
इस    फुटपाथ का  पता
मेरी ही चार  मंज़िलों के नीचे
दुबका पड़ा था
जो |
कल परसों 
कूड़ा फैंका करता था 
जहाँ   |
'बुधिया ' सोता है
 वहीँ |चैन की नींद ,
हमारी फैंकी हुई 
दो रोटी खाकर 
बड़े आराम से | 
पेट की भूख ही सब गुनाहों  और सांसारिक कर्मों  का मूल है | अगर ये ना हो तो कोई  मजदूरी सरीखा असाध्य का कर्म क्यों करने पर विवश हो  ? यही प्रश्न करता एक आक्रांत श्रमिक --

बुझ जाए

 ये आग 
सदा के लिए 
 ताकिआगे  कोई मंजिल 
निर्माण की 
 दरकार ना बचे 
कभी 
  अंत में यही कहना चाहूंगी कि भौतिकता की दौड़ में अंतहीन  मंजिलों की ओर भागते   युवाओं  के बीच एक  अत्यंत प्रतिभाशाली युवा कवि का समाज के विषय में ये  संवेदनाओं से भरा चिंतन शीतलता भरी बयार की तरह है , जो ये सोचने पर विवश करता है कि हम   क्यों समाज का वो सच देखने  की इच्छा   नहीं रखते -जो हमारे    आँखें फेर लेने के बावजूद भी समाज का  सबसे मर्मान्तक सच   है  |  कवि ने  उस नंगे सच को  देखने का सार्थक प्रयास  किया है | अपने आत्म कथ्य को  कवि ने ''  मैं फिर उगाऊँगा '' सपने नये ''  नाम दिया है || सचमुच  प्रखर   कवि ध्रुव सिंह  'एकलव्य ' साहित्य समाज में   सामाजिक चिंतन  का एक नया अध्याय  लेकर आये हैं  ,  जिनकी   धारदार कलम   के साथ पैनी  अंतर्दृष्टि  बहुत  प्रभावित   करती   है  |  ये   भीतर की सुसुप्त संवेदनाओं को जगाने का काम  भी करती है  और  उस अधूरे सामाजिक न्याय पर भी ऊँगली  उठाती  है,  जिसमें  समाज का शोषित तबका बस शोषित ही बनके रह  गया है  |   बहुमंजिला इमारतों को  गगनचुम्बी बनाने  का   कवायद  में  उम्र भर  मेहनत करते' बुधिया  ' सरीखे  पात्रों  को कभी अपनी एक छत नसीब नहीं होती    -- ये क्या  विडम्बना  नहीं  है ? 
    रचनाओं को    बड़ी  सरल भाषा   में बड़ी सतर्कता से लिखा गया है  |   पाठक की  संवेदनाएं   बड़ी आसानी से इन रचनाओं  के  पात्रों  से  जुड़ जाती हैं |  काव्य - संग्रह   में उर्दू ,  हिन्दी   के शब्द विशुद्धतम  रूप में नज़र आये हैं ,जिसके लिए कवि ध्रुव  अत्यंत सराहना के पात्र हैं | 
 नए  कवि के  रूप में  ध्रुव सिंह  जी  के    प्रथम काव्य - संग्रह  '' चीख़ती-- आवाज़ें '' का हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिए | उनका साहित्यानुराग अनुकरणीय  है | अपनी आजीविका के साथ - साथ साहित्योपार्जन सरल कार्य नहीं | ना जाने  कितनी  लगन  और  समर्पण  से ये शब्द संपदा अर्जित होती है !  उनकी इस अप्रितम उपलब्धि पर मेरी तरफ से उन्हें   सस्नेह हार्दिक बधाई और शुभकामनायें |  माँ सरस्वती उन्हें   साहित्य पथ पर चलने की अदम्य शक्ति  प्रदान     करती रहे | 
साहित्य प्रेमी पाठकों  और रचनाकार सहयोगियों से   - पाठकों से विनम्र आग्रह है ,कि जिन सहयोगियों की पुस्तकें प्रकाशित हों, उन्हें उनकी  पुस्तक खरीदकर प्रोत्साहित करें  | | इस तरह  रचनाकार को  स्नेह के रूप अतुलनीय प्रोत्साहन    दें और       पुस्तकों के  अस्तित्व को बचाने में  सहयोग  करें | आज माना  पुस्तक पढने के लिए पर्याप्त समय नहीं पर  कल  जरुर होगा | और वैसे भी  सस्ती से सस्ती चीजों से सस्ती हैं हिन्दी की पुस्तकें | साभार | 

शनिवार, 17 नवंबर 2018

वो एक रात के अतिथि -- संस्मरण -


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जनवरी 1996 की बात है |कडकडाती    ठंड में उस दिन  बहुत  जल्दी धुंध बरसने लगी थी और  चारों तरफ वातावरण धुंधला जाने से  थोड़ी सी दूर के बाद कुछ भी साफ दिखाई नहीं देता था |   इसी बीच हमारे दरवाजे पर  किसी ने दस्तक दी तो देखा  एकअत्यंत बूढ़े बाबा    खड़े थे जिनकी पीठ पर  एक गट्ठर लदा था | बाबा    ठंड से ठिठुरते हुए  मानों पीले पड़ चुके थे और उनके मुंह से कोई बात  नहीं निकल पा रही थी | यद्यपि  उनके  शरीर  पर ठण्ड  के मौसम के लिए पर्याप्त  कपड़े थे |   वे  पैरों में बहुत ही घिसी सी चप्पल पहने थे | उन्होंने  चाय   पीने  की इच्छा जाहिर की ,  जिसे वे बड़ी मुश्किल से कह पाए | मेरे पिताजी उस समय घर पर ही थे | उन्होंने बाबा को घर के अंदर बुलाकर ,  बरामदे में पडी खाट पर बिठायाऔर  उनके लिए  सेकने  के लिए आग मंगवाई | आग   सेकने  और गर्म चाय पीने के बाद  उनकी  ठण्ड  थोड़ी उतरी और वे आसानी से बोल  कर बता पाए कि    उनका  नाम हाज़ी अली है और   वे एक  कश्मीरी शाल विक्रेता हैं  |अपने  अन्य शाल विक्रेता साथियों से  अनजाने में बिछुड़  कर रास्ता भूल गये हैं | उन्होंने पिताजी से निवेदन किया कि वे उन्हें ऐसी  किसी धर्मशाला  इत्यादि का  रास्ता बता दें जहाँ वे  रात गुजार सकें  ,क्योंकि इस समय  तक  उनके साथी तो  स्थान पंचकूला  लौट चुके  होते थे , जहाँ से वे रोज शाल बेचने के लिए बस द्वारा  आते थे | मेरे पिताजी ने उन्हें हमारी बैठक जो कि हमारे घर से थोड़ी ही दूर है - में रात गुजारने की   बात कही , जिसे बाबा ने सहर्ष  मान लिया | उसके बाद  पिताजी बाबा को लेकर लेकर बैठक में चले गये और उनके लिए बिस्तर   की  व्यवस्था की    |हमें उनका रात का भोजन   बैठक में  ही  पंहुचने के लिए कहा |भोजन करवाने के बाद पिताजी ने बाबा  को आराम से सो जाने के लिए कहा | उन्होंने  बाबा की शालों   का गट्ठर कमरे में बनी अलमारी में रख दिया  |     पिताजी ने देखा बाबा रात को आराम से सो नही पा रहे हैं  और लिहाज़वश कुछ कह भी नही पा रहे |   पिताजी उनकी  आशंका समझ गये और उन्होंने बाबा का गट्ठर उनके पास उनकी  खाट पर रख दिया  जिसके बाद ही वे चैन की नींद सो   पाए |   सुबह उठकर  पिताजी ने उनके लिए चाय- नाश्ता आदि पहुँचाने के लिए  मुझे कहा तो मैं बैठक में बाबा  के लिए नाश्ता लेकर गई | मैंने देखा  बाबा इत्मिनान से बैठे थे और मेरे पिताजी को  बहुत कृतज्ञतापूर्वक  धन्यवाद दे रहे थे | उन्होंने हमें बताया कि  कई साल पहले  उन्हें एक राज्य विशेष में  इसी तरह   रास्ता भूल कर किसी के घर ठहरना   पड़ गया    |घर के मालिकों ने इसी तरह उनके गट्ठर को अलमारी में रख दिया और सुबह जब गट्ठर उन्होंने देखा तो  इसमें  से चार -पांच शाल गायब थी | उस दिन के बाद वे किसी के घर नहीं ठहरे और ना ही उस राज्य  के लोगों का  विश्वास किया |  मेरे पिताजी  को उन्होंने  बहुत दुआएं दी  |  मुझे भी बहुत स्नेह भाव  से  आशीर्वाद दिया  और बोले  कि जब तुम्हारी शादी हो जाए तो कश्मीर आना तुम्हे बोरी भर अखरोट दूंगा | उन्होंने पिताजी को एक  कागज़ के पुर्जे पर अपना पता लिख कर दिया और कहा कि वे कश्मीर आयें और उन्हें भी मेज़बानी का मौक़ा दें | थोड़ा दिन चढ़ जाने के बाद पिताजी ने मेरे छोटे भाई को साईकिल  पर  बाबा को बस स्टैंड  पर छोड़ने   भेजा जहाँ  पंचकूला  से उनके साथियों का दल   बस से नौ बजे पंहुचने वाला था |  बाबा   हमारे राज्य और पिताजीको  को सराहते हुए  बड़ी सी मुस्कान के साथ रुखसत हो गये  | मेरे पिताजी जब तक  रहे वे कहते थे वो बाबा कोई दरवेश थे  जो उन्हें दुआ  देकर चले गये क्योकि  फरवरी में ही पिताजी को हार्ट अटैक  आया और वे बाल -बाल बच गये |
 चित्र -- गूगल से साभार -- 
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ब्लॉगिंग का एक साल ---------आभार लेख

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