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शनिवार, 30 जून 2018

पुण्य स्मरण -- बाबा नागार्जुन -- जन्म दिन विशेष --


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रिचय --- बाबा नागार्जुन हिंदी और मैथिलि साहित्य के    वो विलक्षण व्यक्तित्व हैं    ,जिनकी काव्यात्मक  प्रतिभा के आगे पूरा साहित्य  जगत नत है |  इन  का जन्म 30 जून 1911 को बिहार के दरभंगा जिले के ''तौरानी''नामक गाँव में मैथिली  ब्राह्मण परिवार में हुआ  |संयोग ही रहा कि इस दिन जेठ माह की पूर्णिमा थी | ये वही पूर्णिमा थी  ,जिस दिन  संत कबीर का अवतरण हुआ था | और इससे  भी  बड़ा संयोग रहा कि       उनकी काव्य प्रतिभा ,      फक्कडपन और ओजमयी, निर्भीक वाणी के लिए उन्हें समीक्षकों ने    ''आधुनिक साहित्य के कबीर की उपाधि दे'' उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया
 जन्म के समय     उनका नाम  ' वैद्य नाथ मिश्र' रखा गया |उनके पिताजी मूलतः एक किसान थे और पर पुरोहिती के लिए भी आसपास के गाँव में जाते थे | उनके साथ इन्हें भी घूमने- फिरने का शौक लग गया | इसी शौक के चलते, वे जीवन  भर एक यायावर सरीखे ही रहे ||प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत में हुई, तो बाकि शिक्षा के लिए स्वाध्याय  ही उत्तम समझा गया |लगभग 19 वर्ष की आयु में विवाह के  पश्चात हिंदी , संस्कृत की शिक्षा के लिए बनारस पहुंचे ,जहाँ उनका परिचय राहुल  सांकृत्यायन जी  से हुआ और उन्होंने  बौद्ध धर्म अपना लिया |राहुल जी ने     पालि के एक ग्रन्थ का अनुवाद हिन्दी भाषा में किया था जिसका नाम  '' संयुक्त निकाय  ''था | बाबा नागार्जुन की अदम्य इच्छा शक्ति देखिये  कि इस    ग्रन्थ को  पालि          भाषा में       पढने की       प्रबल  इच्छा  लिए वे   श्री लंका तक जा पहुंचे  |  वहीं  जाकर उन्होंने  बौद्ध धर्म की दीक्षा ली वहीं उन्हें बौद्ध मत  के अनुसार नया नाम ' नागार्जुन '  मिला | श्री लंका में वे बौद्ध भिक्षुओं से पालि भाषा सीखते थे और बदले में उन्हें संस्कृत भाषा सिखाते थे |

|वे मैथिली और हिन्दी दोनों भाषाओँ में समान रूप से लेखन करते रहे  |मैथिली भाषा में वे ''यात्री '' नाम से लेखन कार्य करते थे ,तो हिन्दी के लिए   उन्होंने  नागार्जुन नाम को ही सही समझा | मिटटी से जुड़े व्यक्ति  होने के  कारण उन्हें जनकवि कह पुकारा गया| क्योकि उनका लेखन बिहार के तत्कालीन   लोकजीवन में व्याप्त समस्याओं , कुंठाओं , चिंताओं   को समर्पित था और वे उन पिछड़े लोगों की करुणा   भरी  आवाज बन सके जो सदियों से व्यवस्था और सत्ताधारी लोगों द्वारा पीड़ित और शोषित है |अपने समय की हर  छोटी- बड़ी घटना को उन्होंने अपने शब्दों में अभिव्यक्ति दी |


भाषा ---मैथिलि , हिंदी , संस्कृत के अलावा वे पाली, प्राकृत ,  बँगला , सिहंली ,  तिब्बती  इत्यादि भाषाओँ के जानकार थे | उनका भाषा पर अधिकार देखते ही बनता था | ठेठ देसी भाषा से लेकर संस्कृतनिष्ट क्लिष्ट  शब्दावली    तक अनेक स्तरों की भाषा के रूप में उन्होंने लेखन के जौहर दिखाए   | भावबोध की गहनता   और सूक्ष्म अनुभूति उनके काव्य कौशल की  दूसरी विशेषता थी |कबीर से लेकर आधुनिक कवियों की काव्य परम्परा उनके काव्य में दिखाई पडती है ,जिसमें  भाषा का अहम योगदान है| भाषा  में छंदोंके चामत्कारिक  प्रयोग ने उनकी रचनाओं को भरपूर लोकप्रियता दिलवाई |

रचनाएँ ---बाबा नागार्जुन ने किस विषय पर नहीं लिखा  ? हर विषय को गहराई  से छूती   उनकी  रचनाओं का एक विपुल साहित्य भंडार है | एक दर्जन काव्य संग्रह , दो खंड काव्य ,  दो मैथिली    [जिनका  हिन्दी में भी अनुवाद हो   चुका  है ], एक मैथिली उपन्यास , एक  संस्कृत  काव्य '' धर्मलोक शतकम '' तथा  संस्कृत से अनुदित  कृतियों के रचयिता रहे |
गद्य में  रतिनाथ की चाची , वरुण के बेटे , नई पौध , दुखमोचन ,  उग्रतारा , बाबा बटेसरनाथ , कुम्भीपाक इमरतिया  इत्यादि औपन्यासिक कृतियाँ  तो कहानी संग्रह में  आसमान में चंदा तेरे ,
उपन्यास -- बाबा  बटेसर नाथ , रतिनाथ  की चाची  ,  बलचनामा , नयी पौध , वरुण के बेटे , दुखमोचन  म उग्रतारा   ,  ,  अभिनन्दन,कुम्भीपाक  उग्रतारा, इमरतिया के साथ  निबन्ध संग्रह -अन्नहीनम- क्रियाहीनंके अलावा --बाल साहित्य -- कथा  मंजरी भाग एक , कथामंजरी  भाग दो , मर्यादा पुरुषोतम राम  , विद्यापति की कहानियां  और संस्मरण -- एक व्यक्ति एक  युग , बमभोले नाथ के साथ -- नागार्जुन रचनावली  -- सात खंडों में   उनकी प्रकाशित रचनाएँ हैं | इस्जे अलावा संकृत और मथिली की  रचनाएँ और अप्रकाशित साहित्य भी है |
पुरस्कार --- यूँ तो उनकालोकप्रिय  जनकवि होना ही उनका सबसे बड़ा सम्मान था पर 1969में साहित्य  अकादमी पुरस्कार और 1994 में साहित्य  अकादमी फेलोशिप  उनके नाम रहे |

जीवन दर्शन-हिंदी में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी बाद  कविता की प्रखरता  ,  नये  छंद विधान के साथ नये काव्य शिल्प के लिए  उनका ही नाम आता है |उन्होंने समय समय पर काव्य में नए प्रयोग करने से कतई गुरेज नहीं किया और अपनी कविताओं को  अलग -अलग  रूपों में सजाया संवारा | बहुमुखीप्रतिभा के धनी  बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व और चिंतन में अनेक विचारधाराओं और संस्कृतियों का समन्वय देखा जा सकता है |  |वे अपने जीवन   में समय समय पर कभी मार्क्सवादी  विचारधारा  तो कभी  बौद्ध दर्शन  से प्रभावित रहे |अपने समय की समस्याओं .  चिंताओं और संघर्षों  से वे प्रत्यक्ष  रूप से जुड़े और  जनमानस की आवाज बन कर उभरे | अनेक जन-आंदोलनों में भाग लेते हुए कई बार उन्हें जेल यात्रा भी करनी बड़ी | वे कलम  के ऐसे यौद्धा  थे जो किसी भी सत्ता या व्यक्तिविशेष के आगे कभी नही  झुके  |उन्हें जो कहना था वह कहकर ही दम लेते |  उस समय साहित्य के     गलियारों  में ये भी प्रसिद्ध था-- कि वे भले ही ज्यादा नही बल्कि थोड़ा ही --अपने सम्मान समारोह और  काव्य गोष्ठियों में जाने के लिए मेहनताना  मांग लिया करते थे | इस के लिए उनकी आलोचना भी होती थी पर   उनका तर्क  था कि   कवि में फक्कडपन ही सही  पर जीवन की  जरूरतें  तो उसमें भी  होती है  |
आलोचकों से अलग  दूसरा वर्ग जो बुद्धिमान और उनका   प्रशंसक  था  --- उनकी इस बात से सहमत होते हुए उस व्यवस्था पर  लानत भेजता था ,  जो एक  इतने ऊँचे दर्जे के लेखक  को जीवन की मूलभूत जरूरतें  मुहैया  कराने में असफल रही | इस तरह हम देखते हैं , कि बाबा इस तरह के   लोक व्यवहार  में भी  अपनी  विलक्षणता  दिखाने से पीछे नही  हटे और एक नया उदाहरण साहित्य जगत के समक्ष रख  ही  दिया | और यूँ भी वे अपने तीखे  और मारक  व्यंगबाणों   के लिए  प्रसिद्ध थे  ही -चाहे अपने  बारे में हो या व्यवस्था पर | 
 वे अपने जीवन काल में और उसके बाद भी अपनी उपस्थिति  दर्ज करवाते रहे हैं | हालाँकि उनकी  रचनात्मकता  का अभी तक सर्वांग मूल्याङ्कन होना शेष है पर फिर भी वे साहित्यकारों के लिए सदैव एक प्रणेता  रहे हैं |उनका   कवि के रूप में उनका व्यक्तित्व पुराने अनेक कवियों  से प्रभावित रहा पर उन्होंने अपने मौलिक  लेखन के जरिये अपनी  अलग पहचान बनायीं और   नये कवियों के लिए एक उदाहरण बने |    मूलतः उन्हें प्रगतिशील कवियों की श्रेणी में रखा जाता है पर उनके  लेखन की धारा का रुख  कब और किस परिस्थिति में परिवर्तित हो जाये ये कहना बड़ा मुश्किल था|अपने जीवन की  दीर्घ अवधि में उन्होंने साहित्य के भंडार  को भरने में कोई कसर नही छोडी |उनकी रचनाएँ,  गद्य में  लोकजीवन का विहंगम चित्र प्रस्तुत करती हैं तो  काव्य में जीवन के विभिन्न बिम्बों , प्रतिबिम्बों का दर्पण है|
 'पांच   पूतभारत माता के , युगधारा ,  विप्लव देखा हमने , प्यासी पथराई आँखें , मैं मिलिट्री का   बूढा घोड़ा , इस गुब्बारे की छाया में , सतरंगे पंखों वाली , पत्रहीन नग्न गाछ , इत्यादि रचनाओं के माध्यम से आम जनता में चेतना  पैदा करने में   काफ़ी हद   तक  सफल  भी रहे | उनकी सबसे बड़ी सफलता थी आम लोगो में उनकी लोकप्रियता | खेत -खलिहानों से लेकर गली -मुहल्ले तक उनकी बात समझने   और करने  वाले लोग मौजूद थे  क्योंकि वे उनका दर्द अनुभव कर ,उसे बयाँ करने में सक्षम थे | उनकी एक प्रसिद्ध कविता में विपन्नता का मार्मिक चित्र देखिये --

कई दिनों तक चूल्हा रोया, 
चक्की रही उदास. 
कई दिनों तक कानी कुतिया
 सोई उसके पास.
कई दिनों तक लगी भीत पर
 छिपकलियों की गश्त.
 कई दिनों तक चूहों की भी
 हालत रही शिकस्त.
दाने आए घर के अंदर
 कई दिनों के बाद.
 धुआं उठा आंगन के ऊपर 
कई दिनों के बाद.
चमक उठी घर- भर  की आंखें
 कई दिनों के बाद. 
कौवे ने खुजलाई पांखें
 कई दिनों के बाद.!!!!!!!!!!

 वहीँ  जीवन से हारे हुए लोगों को प्रणाम करती उनकी दिव्य रचना -
उनको प्रणाम 
जो नहीं हो सके पूर्णकाम / मैं उनको करता हूं प्रणाम / 
कुछ कुंठित और कुछ लक्ष्य भ्रष्ट / जिनके अभिमंत्रित तीर हुए / 
रण की समाप्ति के पहले ही / जो वीर रिक्त तूणीर हुए /
 उनको प्रणाम जो छोटी सी नैया लेकर / उतरे करने को उदधि पार 
/ मन की मन में ही रही / स्वयं हो गए उसी से निराकार / 





इसके साथ प्रकृति के विहगम दृश्य को साकार करती  एक रचना --

बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर

छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था

मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर

दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।



बाल सुलभ अंदाज में हल्की फुलकी रचना देखिये -

चन्दू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हरनौटा
चन्दू, मैंने सपना देखा, भभुआ से हूं पटना लौटा
चन्दू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू
चन्दू, मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू


चन्दू, मैंने सपना देखा, कल परसों ही छूट रहे हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, खूब पतंगें लूट रहे हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ बाहर
चन्दू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलेण्डर--
अपने समय के प्रबुद्धऔर कालजयी  कवि का दूसरे कालजयी  कवि कालिदास से   मार्मिक  प्रश्न साहित्य में कालातीत  बनकर रह गये हैं --कालिदास रचना में देखिये -- 

कालिदास! सच-सच बतलाना 
इन्दुमती के मृत्युशोक से 
अज रोया या तुम रोये थे? 
कालिदास! सच-सच बतलाना! 

शिवजी की तीसरी आँख से 
निकली हुई महाज्वाला में 
घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम 
कामदेव जब भस्म हो गया 
रति का क्रंदन सुन आँसू से 
तुमने ही तो दृग धोये थे 
कालिदास! सच-सच बतलाना 
रति रोयी या तुम रोये थे? -

इस तरह   बाबा की रचनाओं के बारे में लिखना सूरज को दीपक  दिखाने के सामान है |   5नवम्बर 1998 को अनंत यात्रा पर गये इस  यायावर  ने साहित्य  पटल  पर  अपनी ऐसी छाप छोडी  जो हर दौर में प्रासंगिक रहेगी | आने वाली पीढियां इस फक्कड बाबा से   प्रेरणा पाकर   उनके साहित्य रस  में सराबोर होती रहेंगी |--
माटी के इस लाल को   शत -शत नमन
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धन्यवाद   शब्द नगरी --


रेणु जी बधाई हो!,

आपका लेख - (पुण्यस्मरण बाबा नागार्जुन -- जन्म दिन विशेष -- ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 

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पाठको के लिए विशेष---- बाबा  का दुर्लभ वीडियो यू tube के सौजन्य से ---
मेरा आग्रह जरुर देखें -- बाबा नागार्जुन की फक्कड मस्तानी  जिन्दगी  की सरल सादगी भरी साँझ का  बहुत ही  करुण चित्र, जिसे देख कर ये जरुर पता चलता है  है  कि इतने  कालजयी साहित्य के रचियता में कितनी सादगी थी जिसने उन्हें  आधुनिक कबीर की संज्ञा दिलवाई ,---साथ में उनकी बाल सुलभ निश्छल मुस्कान  के  तो क्या कहने !!!!!!!!!!!



सादर ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------




बुधवार, 27 जून 2018

संत कबीर ------ लेख --


हिंदी साहित्य  में कबीर   भक्ति  काल के प्रतिनिधि कवि के रूप में जाने जाते हैं | इसके अलावा वे  भारत वर्ष  के सांस्कृतिक और अध्यात्मिक जीवन को ऊर्जा देने वाले  प्रखर प्रणेता हैं |  उनकी ओजमयी फक्कड वाणी आज भी  प्रासंगिक है | कौन है जो कबीर के नाम से  अपरिचित होगा  | मन में थोड़ा सा भी अध्यात्मिक भाव रखने वाले लोग  कबीर की वाणी से भली भांति परिचित हैं, चाहे वे किसी भी  धर्म अथवा सम्प्रदाय से हों | | उन्हें  कबीर दास एवं  संत कबीर इत्यादि  नामो से भी जाना   जाता है || उन्होंने  धर्म के नाम पर पाखंड  और समाज में व्याप्त अनेक अंधविश्वासों का विरोध  करके   ईश्वर के  निर्गुण  रूप  को मानने का आह्वान किया  | भक्ति अथवा उपासना में  ईश्वर की भक्ति दो रूपों में करने का प्रावधान किया गया है | जिनमे एक है  सगुण अथवा साकार उपासना  और दूसरी को निर्गुण अथवा निराकार कह पुकारा गया अर्थात एक उपासना को हम लौकिक उपासना कह सकते हैं तो दूसरी को आलौकिक || सगुण पूजा का  सीधा  अर्थ है कि हम ईश्वर को एक आकार अथवा मूर्त रूप में देखते हैं  |   अपनी कल्पना के अनुसार मूर्ति रूप में   विभिन्न  देवताओं और अवतारों की पूजा   सगुण उपासना का ही  रूप है |  इस उपासना में भी जब हम ईश्वर को दृष्टिगत आधार पर देखते हैं ये तमोगुणी उपासना है तो  मन के  स्तर की पूजा रजोगुणी  कही जाती है पर जो पूजा आत्मा के धरातल पर  की जाती है उसे  सतोगुणी   कहा गया है | निर्गुण पूजा में   ब्रह्म  का विस्तार अनंत माना गया  है | उसका कोई शरीर नहीं अपितु वह निराकार और अनंत है | वह एक ऐसी परम सता है जिसका कोई भी ओर-छोर नही है |वह ब्रह्माण्ड   के कण - कण  में  प्याप्त है | यत्र -वत्र  सर्वत्र उसकी  ही  माया  है - हर प्राणी उसका ही रूप है | इसी निर्गुणंवाद        को कबीर ने  बखूबी परिभाषित किया है और  माना भी है | सच तो ये है कि इस विचारधारा को उन्होंने खुद जिया तभी वे इसका मूल्याङ्कन भली भांति कर पाए |  हिंदी         साहित्य में    निर्गुणवाद की  दो शाखाएं मानी जाती हैं ज्ञानाश्रयी  और प्रेमाश्रयी | कबीर  को ज्ञानाश्रयी  शाखा  का प्रवर्तक  माना जाता है |

जीवन परिचय ----- कबीर जी का जन्म  के बारे में अनेक मत  और किंवदंतियाँ प्रचलित हैं |  कबीर पंथी लोग मानते हैं की कबीर जी का जन्म  काशी जी के  लहरतारा  नामक  तालाब में कमल के ऊपर  शिशु रूप           में हुआ || उनके जन्म के विषय में कबीरपंथियों में यह पद्य  प्रसिद्ध है ---
चौदह  सौ  पचपन  साल   गये  , चन्दवार एक ठाठ गये |
जेठ सुदी   बरसायत को पूरनमासी  तिथि प्रकट भये || 
घन गरजें दामिनी दमकैं बूंदें बरसैं जहर लाग गये -
लहर तलाब  में कमल खिले - कबीर भानु प्रगट भये ||

पर  आम  तौर पर सबसे ज्यादा    माने  जाने वाला मत है कि    उनका जन्म   काशी  जी में सन  1398   में जेठ माह की पूर्णिमा के दिन -एक विधवा ब्राह्मणी  के घर हुआ था , जिसे उनके गुरु       रामानंद   ने  गलती से पुत्रवती  होने का वरदान दे दिया था |  उस वरदान के  फलीभूत होने, पर  उसने लोकलाज के भय से   अपने नवजात  शिशु को काशी  जी में लहरतारा नाम के तालाब  के किनारे फेंक दिया था,  जहाँ से  एक  निः संतान जुलाहा दम्पति  नीमा  और  नीरू   ने इस शिशु को उठाकर बड़े प्रेम से इसका लालन पालन किया | उनके गुरु  तत्वदर्शी  समकालीन संत  रामानंद जी माने जाते हैं |वैसे कहा जाता है कि रामानन्द जी ने उन्हें औपचारिक रूप से गुरुज्ञान  नहीं दिया था ,क्योकि वे एक ऐसी   जाति से  सम्बन्ध रखते थे जिसे उन दिनों गुरु दीक्षा का अधिकार नहीं था | कहते हैं कबीर जी एक  बार  एक पहर  रात रहते ही  पञ्चगंगा  घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े  जहा से गुरु रामानन्द जी गंगा स्नान के  लिए सीढियां उतर रहे थे कि  उनका  पैर   कबीर जी के शरीर पर  पड़ गया और उनके मुंह  से '' राम -  राम  शब्द निकल पडा जिसे कबीर जी ने गुरु मन्त्र के   रूप  में स्वीकार कर लिया और  रामानन्द जी को अपने आराध्य गुरु के रूप में  |  हालाँकि कहा जाता है कि  बाद में उनके ज्ञान और समर्पण  को देख उन्होंने उन्हें अपना सबसे  योग्य शिष्य मान लिया | स्वयं कबीर जी  के शब्दों में  --
हम कासी में प्रगट भये हैं -
 रामानन्द चेताये  हैं | 

असली मत चाहे जो भी हो कबीरदास जी का  अवतरण संसार  में एक महत्वपूर्ण आलौकिक घटना जैसा है क्योकि उनके विचारों और मार्गदर्शन ने  जन -जीवन  को गहराई  तक  प्रभावित किया  और सदियों  बाद  भी उनकी विचारधारा की छाप अमिट है | |
हिंदी साहित्य के  प्रखर समीक्षक आदरणीय हजारीप्रसाद द्विवेदी  जी ने  कबीर जी को बिरला व्यक्तित्व  करार दिया है  |उन्होंने  माना  महिमा में केवल तुलसीदास उनके समकक्ष टिकते है ,पर उनकी साहित्यगत  विशेषताएँ और विचारधारा भिन्न है  | वे एक गृहस्थ साधू  कहे जाते हैं जिनकी पत्नी का नाम 'लोई ' और संतान रूप में 'कमाल -- क्माली' नाम के पुत्र -पुत्री  बताये जाते हैं | उनके जीवन का सबसे प्रेरक तथ्य है कि उन्होंने   साधू जीवन को  भिक्षा पर  आधारित होने के  मिथक को तोड़ ,स्वाभिमान से जुलाहा कर्म करते हुए साधुता को जिया |और लोगों का मार्ग प्रशस्त किया  | उन्होंने   मूर्ति पूजा की तुलना में  जीवन यापन -कर्म  को  सर्वोपरि माना |  उनके  एक दोहे में कहागया है -
पत्थर पूजे हरी मिले - तो मैं पूजूं पहाड़ -
 ताते ये चाकी भली पीस खाए संसार --
 अर्थात - यदि   पत्थर  पूजने से हरी मिलते तो  मैं पहाड़   को पूजता | उस [  निरर्थक ]पूजा से  तो ये चक्की भली जिसेमें   [अन्न  ]  पीसने से  संसार  पेट तो भर सकता है |
साहित्यिक भाषा और शैली --- कबीर दास कहते हैं  ''कि मसि     कागद  छूवो नहीं , कलम गहि नही हाथ ''   अर्थात   उन्होंने कागज ,मसि  , कलम को छुआ तक नहीं | वे अनपढ़ होते हुए भी भाषा पर जबरदस्त पकड़ रखते थे | वे जो भी बोलते उनके शिष्य उसे शब्द बद्ध कर लेते |  उनकी  भाषा
आम बोल चाल   की भाषा थी इसमें    उन्होंने जो कहना चाहा वही कहा , वो भी बड़ी ही  रोचक और मनभावन अंदाज में | उनकी ओजमयी वाणी के आगे बड़े बड़े विद्वान  भरते थे || उनके समकालीनो से लेकर आज भी  काव्य -  रसिक उनकी वाणी के      फक्कड अंदाज में  डूब   से जाते हैं |उनकी वाणी एक ऐसे आत्म वैरागी व्यक्तित्व को साकार करती है जो आत्म बोध में लींन   अदृश्य  से  सीधा तादाम्य स्थापित  करने  में सक्षम है | |उन्होंने पाखंडी पंडितों ,मुल्ला मौलवियों को बिलकुल भी नही बख्शा और अपने  मारक व्यंग से उनकी पाखंडी और प्रपंची   विचारधारा को धराशायी  कर समाज और जनमानस में नये चेतना और  आडम्बर विरोधी  मानसिकता   का प्रादुर्भाव किया |अपने एक दोहे में वे कहते हैं -----
 कांकर पाथर जोरि के - मस्जिद लई बनाय -
  ता चढ़ मुल्ला बांग दे -- बहरा हुआ खुदाय -
 तो दूसरे में कहते हैं -------
माला फेरत जुग गया फिरा ना मनका फेर -
करका मनका डारि  दे -- मन   का मनका  फेर |
कबीर की भाषा   'अरबी , फ़ारसी , पंजाबी , बुंदेलखंडी , खड़ी बोली इत्यादि   कई भाषाओँ के शब्द मिलते हैं|
 साहित्य में उनकी भाषा को  सधुक्कड़ी कहकर सम्मान  दिया गया है और भाव शैली   इत्यादि के आधार पर उसका  ऊंचा  मूल्याकंन   किया गया है | भले ही कोई उनकी विचार धारा  और चिंतन से सहमत ना हो पर  उनके काव्य रस में आकंठ ना डूब जाए - ऐसा कभी नहीं होता | एक अनपढ़ व्यक्ति  की भाषा का ओज हर मन से  प्रवाहित हो अध्यात्म  की   गंगा प्रवाहित किये बिना नहीं रहता | ये भाषा ऐसे संसार से साक्षात्कार कराती है जहाँ  कोई धर्म विशेष नही ,   जाति विशेष नहीं , कोई  ऊँच नही , नीच नहीं | समभाव को प्रेरित करती कबीरवाणी अपने आप में विस्मयबोधक है | उनकी  भाषा आध्यात्मिकता के उजास में  मानवता को जीने की नयी राह दिखाने में सक्षम है |
जीवन दर्शन ---कबीर के जीवन काल में   समाज अनेक  बाहरी  आडम्बरों और पाखंडों का शिकार था जिस से बाहर निकलने के लोगों को एक यथार्थवादी  मानसिकता  की और प्रेरित करने की जरूरत थी | इसके लिए कबीर दास  के जीवन दर्शन ने     बहुत बड़ी भूमिका अदा की     , जबकि उनका  जीवन दर्शन किसी धर्म विशेष से प्रेरित नहीं था -- वे स्वयं को भी  हिंदू  -मुसलमान  कहाने      की    बजाय     एक इंसान मानते थे | | उन्होंने एक ईश्वर को मानने और जानने  पर बल दिया || ईश्वर को उन्होंने विश्वास को ईश्वर प्राप्ति  का साधन माना | आपके एक पद में वे कहते हैं -- 
 मोको कहाँ ढूंढे  से बंदे मैं तो तेरे पास में -
ना तीर्थ में ना मूर्त में ना एकांत निवास में -
ना मंदिर में ना मस्जिद में  ना काबे कैलाश में | |
ना मैं जप में ना मैं  तप में  ना  व्रत उपवास में |
ना मैं क्रिया -क्रम में रहता - ना ही योग सन्यास में | | 
न ही  प्राण  में  -ना पिंड में - ना ब्रह्मांड  आकाश में |
ना मैं  त्रिकुटी  भवर में , सब स्वांसों के साँस में | | 
खोजी होए  तुरत मिल जाऊं - एक पल की तलाश में -
 कहे कबीर सुनो भाई साधो  - मैं तो हूँ विश्वास में !!!!!
  
कबीर की रचनाओं में रहस्यवाद और मार्मिकता है | ये हिन्दुओं के अद्वैतवाद  को दर्शाता है तो दूसरी ओर मुस्लिम सूफी मत  को छूता दिखाई पड़ता है | अद्वैतवाद में आत्मा - परमात्मा  को एक  मान  एक  दूसरेका पूरक माना गया है जिसे सांसारिक  माया  ने अपने आवरण से आच्छादित कर  अलग - अलग कर दिया है | पर ज्ञान और विश्वास से ये आवरण उतार कर  आत्मा - परमात्मा एक हो जाते हैं -- वे लिखते हैं --
 जल में कुम्भ - कुम्भ में जल है - बाहर भीतर पानी 
फूटा जल - जल ही समाना यह तत कथो मियानी 
 जीवन  की क्षणभंगुरता  को भूल जीवन प्रपंच में खोये मानव को चेताते हैं 
 उड़ जाएगा  हंस अकेला - जग दर्शन का मेला !!!!!
उन्होंने आत्मा  को चादर की संज्ञा दी और मानव से  इसे मैली ना करने का  आह्वान किया -पर जब ये आत्मा सांसारिक राग  द्वेष और माया मोह से  मलिन हो गयी तो वे कह उठे -- 
 लागा चुनरी में दाग छुड़ाऊँ कैसे  ?
 इसी तरह वे कह उठे -- 
 चदरिया झीनी रे झीनी -
राम नाम रस भीनी - 
चदरिया झीनी रे झीनी ||

अष्ट-कमल का चरखा बनाया,
पांच तत्व की पूनी ।
नौ-दस मास बुनन को लागे,
मूरख मैली किन्ही ॥
चदरिया झीनी रे झीनी...

जब मोरी चादर बन घर आई,
रंगरेज को दीन्हि ।
ऐसा रंग रंगा रंगरे ने,
के लालो लाल कर दीन्हि ॥
चदरिया झीनी रे झीनी..


चादर ओढ़ शंका मत करियो,
ये दो दिन तुमको दीन्हि ।
मूरख लोग भेद नहीं जाने,
दिन-दिन मैली कीन्हि ॥
चदरिया झीनी रे झीनी...

ध्रुव-प्रह्लाद सुदामा ने ओढ़ी चदरिया,
शुकदे में निर्मल कीन्हि ।
दास कबीर ने ऐसी ओढ़ी,
ज्यूँ की त्यूं धर दीन्हि ॥
के राम नाम रस भीनी,
चदरिया झीनी रे झीनी ।-
आत्मज्ञानी कबीर ने पाखंडी  ज्ञानियों को  खरी खरी सुनाते हुए  कहा --
कि तू कहता कागद की लेखी --
मैं कहता अँखियाँ की देखि !!!!!
 अहम् भाव और ईश्वर प्राप्ति को एक दूसरे का  विरोधी मानते वे कहते हैं -
जब मैं था तब हरि नही -- अब हरि हैं मैं नाहि-
 प्रेम गली अति सांकरी-- ता में दो ना समाहि !!!!!!!!!
उन की  विचारों  से अनेक लोगों ने प्रेरणा ली और  उन्हें अपने जीवन में अपनाया | सिख धर्म के सबसे बड़े ग्रन्थ  ''श्री   गुरु ग्रन्थ साहिब '' में भी कबीर जी के  दो सौ से ऊपर  दोहों को लिया गया है |इसके अलावा   आम   जीवन में उनकी अनेक - उक्तियाँ   अत्यंत प्रसिद्ध हैं  |

रचनाये----कबीरकी रचनाये ' बीजक ' नमक ग्रन्थ में संग्रहित हैं |इसके तीन भाग हैं -
रमैनी , शब्द और साखी|- जिनमे    रचना की दोहा , सोरठा , पद उलटबांसी   इत्यादि   विधाएं हैं |

अवसान -- कहते हैं सन 1518 मगहर उत्तर प्रदेश में कबीर दास जी  ने देह त्याग दी | तब उनके शिष्यों में उनके अंतिम संस्कार  को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया | पर इसी बीच जब उनके शव से कपड़ा हटाया गया तो   उनके शव की जगह   फूलों  का ढेर मिला , जिसे दोनों धर्मों के लोगों ने आधा- आधा बाँट लिया  और अपने अपने रीति- रिवाज के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया |
संक्षेप में  कबीर हर कालखंड में प्रासंगिक है  | आज के समय में जब  धर्म एक अत्यंत संवेदनशील  दौर से गुजर रहा है और इसके नाम पर अनेक लोग पाखंड और  व्यभिचार का बाजार सजाये बैठे हैं ,कबीर के यथार्थवादी          विचारों से सीखने की जरूरत है | गुरु की महिमा  को खंडित करते  अनेक  कथित ' गुरु ' आज  अपनी भ्रामक और  पाखंडी गुरुता के साथ हर शहर -हर  गाँव , में फैले हैं |  कबीर की रचनाये   इन्हें    सच्चाई का आईना दिखाती हैं |
कबीर के कालजयी  दोहे  जो आम जीवन में लोकोक्तियों की तरह  प्रयोग किये जाते हैं 
  माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर
आशा, तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर

दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमिरन करें, दुख काहे को होय
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय
जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में परलय होएगी, बहुरी करोगे कब
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होए 
धीरे-धीरे रे मन, धीरे सब-कुछ होए
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए
साईं इतनी दीजिए, जा में कुटुंब समाए
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए
जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग
पोथि पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए
ढाई आखर प्रेम के, पढ़ा सो पंडित होए
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए
वैद बिचारा क्या करे, कहां तक दवा लगाए 

चित्र -- गूगल से साभार -------------------------------------------
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धन्यवाद शब्दनगरी 

रेणु जी बधाई हो!,

आपका लेख - (संत कबीर लेख ---------- कबीर जयंती पर विशेष ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 

-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- पाठकों के लिए विशेष ------संगीत शिरोमणि  आदरणीय  कुमार गन्धर्व  जी द्वारा गया  कबीर दास जी का भावपूर्ण भजन | मेरा आग्रह है कि पाठक इसे जरुर सुने --

शुक्रवार, 15 जून 2018

उतराखंड त्रासदी ---- हिमालय का आक्रांत स्वर -----लेख --


 उतराखंड त्रासदी ---- हिमालय का आक्रांत स्वर -----लेख --

हिमालय पर्वत सदियों से भारत का रक्षक और पोषक रहा है |इसकी प्राकृतिक सम्पदा ,चाहे वह वन संपदा हो या खनिज संपदा - ने जनजीवन को  धन -  धान्य से भरपूर किया है , तो इसके हिमनद सदानीरा नदियों के एकमात्र  जल स्त्रोत हैं |   इसके प्रांगण में वेद्र- पुराण रचे गये | ऋषि- मुनियों   ने  इसे अपनी तपस्थली बना अपना जीवन सफल किया तो गृहस्थ लोगों ने इसके दर्शन मात्र में अपने आपको  धन्य समझा |क्या नहीं है हिमालय के पास भारत वर्ष के लिए |शिवशंकर  का  चिर निवास   कैलाश  भी यही है तो माँ जगदम्बा  ने  भी अपने लिए सबसे सुरक्षित जगह हिमालय को ही मान विभिन्न रूपों में   इसी पर    वास  किया  | हिन्दू धर्म के साथ साथ -जैन  बौद्ध इत्यादि धर्म भी हिमालय की ही गोद में फले   -फूले|  इसने साइबेरियाई    बर्फीले तूफानों और   विदेशी   आक्रमणों से भारत को सुरक्षित रख    एक  सजग  प्रहरी की भूमिका अदा की |  हिमालय मानव मात्र के लिए आध्यत्मिक और साहसिक  यात्राओं का कौतूहलपूर्ण  गन्तव्य रहा है | पुरानों में वर्णित स्वर्ग  का  कल्पित पथ भी इसी से होकर जाता है ऐसा  माना जाता है | मोक्ष  का  प्रतीक  मानी जानी वाली चार धाम  की यात्रा इसका प्रमुख आकर्षण है |हिमालय तो अपने आप में  ही सम्पूर्ण  स्वर्ग है | हिम आच्छादित ऊँचे शिखरों से सजे  हिमालय में  अनेक तरह की वनस्पति और अनगिन  जीव - जन्तु  पाए जाते है  | विश्व की सर्वोच्च शिखर ' माउन्टएवरेस्ट ' भी इसी का  एक शिखर है , तो भारत की सबसे बड़ी नदियों का उद्गम स्थल भी यही है |इन नदियों ने प्राचीन  काल से ही अनगिन सभ्यताओं और संस्कृतियों को पोषित  किया है  साथ में अनगिन  जलचर , थलचर और नभचर भी पोषित हुए हैं |पर मानव की प्रगतिवादी  सोच ने  अपनी सुविधा  -सम्पनता के लिए पर्यावरण  के सबसे  बड़े प्राकृतिक प्रतीक हिमालय को भी नहीं बक्शा और इसके प्राकृतिक संसाधनों का अँधा धुंध प्रयोग  किया | इसकी जल धाराओं  को मोड़कर और  इसके अटल अस्तित्व को विस्फोटकों से खंडित कर बड़े - बड़े बांध बनाये गये  जिससे पर्यावरण को विशेषकर वन संपदा को बहुत नुकसान पहुंचा है |नदियों के तट पर बहुमंजिला इमारतें और  अत्यधिक बढ़ता औद्योगिकीकरण  नदियों और इन के अमृत तुल्य जल के लिए अभिशाप बन गया| पहले छोटी- मोटी  भूस्खलन और बाढ़ की खबरें तो आती रहती थी पर  जून 2013 में   प्राकृतिक आपदा ने सारे प्रबन्धन को धराशायी  कर दिया और अकल्पनीय  जान माल का नुकसान हुआ | इस  नुकसान  के सही आंकड़े ना तो उपलब्ध  हैं और ना हो सकते हैं | स्थानीय लोगों के अलावा  पूरे  भारत वर्ष से चार धाम की यात्रा पर आये तीर्थ यात्री इस आपदा का शिकार बने |  केदारनाथ   के प्राचीन मन्दिर को भी बहुत नुक्सान पहुंचा  | यूँ तो  इस  त्रासदी  का कारण लगातार होने वाली मॉनसून की बारिश थी पर  भूस्खलन ने वर्षा के कारण  लबालब भरी गंगा  नदी  को  अवरुद्ध कर दिया जिससे   बाढ़ जैसी  स्थिति  पैदा हो गयी गंगा के तट इस बेकाबू जल प्रवाह में बह गये और अपने साथ  जो कुछ भी मिला उसे भी बहा ले गये | सदियों  से शांत , जड़ प्रकृति का ऐसा रौद्र रूप कभी देखने में नही आया जैसा उस साल   आया ||ऐसी  तबाही के लिए  वैज्ञानिक  और पर्यावरणविद भले ही  सालों से चेता रहे थे पर फिर भी ये तबाही उस अनुमान से कहीं अधिक और भयावह थी | |इस आपदा को  पांचसाल हो गये पर  इसकी तबाही के निशान आज भी केदार नाथ और बद्रीनाथ के साथ  अनेक गाँवों और गंगा तटीय शहरों में मौजूद होंगे | भुक्त भोगी जीते जी तबाही के उन भयावह दृश्यों को कभी ना भुला पाएंगे | ऐसी दुखद घटनाओं की पुनरावृति ना हो इसके लिए  ठोस कदम उठाये जाने जरूरी हैं जिनमे वन पोषण को बढ़ावा देना सबसे जरूरी है | क्योकि हिमालय हमारे लिए वरदान है, उसका संरक्षण होना जरूरी है ||  ये  त्रासदी   हिमालय की चेतावनी देती  दहाड़  है |हमे हिमालय के इस आक्रांत स्वर को  अनदेखा  नही करना चाहिए ,ताकि फिर कभी मानव सभ्यता के इतिहास में  उतराखंड त्रासदी जैसी  कोई  प्राकृतिक आपदा दर्ज ना हो |

विशेष ----------- एक रचना जो  इसी  त्रासदी  पर लिखी गयी थी --------
उतराखंड त्रासदी -- 
ये रुदन है हिमालय का
जो हर बंध तोड़ बह रहा है 
मिट जाऊंगा तब मानोगे -
आक्रांत हो कह रहा है !

''कर दिया नंगा मुझे -
नोच ली हरी चादर मेरी ,
जंगल सखा भी मिट चले -
जिनसे थी ग़ुरबत मेरी , ''
चीत्कारता पर्वतराज -
खोल दर्द की गिरह रहा है !

शिव की जटाओं से उतरी थी जो
शीतल - अविरल गंगा कभी ,
सब से निर्मल- पावन थी - -
 हिमराज की ये बेटी कभी ;
 हो मैली उद्विगन है -
व्यथित पिता सब सह रहा है !!

सदियों से सुदृढ़ रहा -
रक्षक है भारतवर्ष का ,
हिम  शिखरों  से सजा --
है भागी जन के उत्कर्ष का ;
ये गौरव इतिहास होने को है -
शेष बचा विरह रहा है ! !

जड़ नहीं चेतन है ये -
निशक्त नहीं - नि शब्द है ,
उपेक्षा से आहत - विकल -
गिरिराज स्तब्ध है ;
बवंडरों से जूझता पल - पल -
टुकड़ों में ढह रहा है !
मिट जाऊँगा तब मानोगे -
आक्रान्त हो कह रहा है !!!!!!!!!!!

चित्र --- गूगल से साभार -------
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 धन्यवाद  शब्द नगरी --

रेणु जी बधाई हो!,

आपका लेख - ( उतराखंड त्रासदी ---- हिमालय का आक्रांत स्वर -----लेख -- ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
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ब्लॉगिंग का एक साल ---------आभार लेख

 निरंतर  प्रवाहमान होते अपने अनेक पड़ावों से गुजरता - जीवन में अनेक खट्टी -   समय निरंतर प्रवहमान होते हुए अपने अनेक पड़ावों से गुजरता हुआ - ...