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शुक्रवार, 15 जून 2018

उतराखंड त्रासदी ---- हिमालय का आक्रांत स्वर -----लेख --


 उतराखंड त्रासदी ---- हिमालय का आक्रांत स्वर -----लेख --

हिमालय पर्वत सदियों से भारत का रक्षक और पोषक रहा है |इसकी प्राकृतिक सम्पदा ,चाहे वह वन संपदा हो या खनिज संपदा - ने जनजीवन को  धन -  धान्य से भरपूर किया है , तो इसके हिमनद सदानीरा नदियों के एकमात्र  जल स्त्रोत हैं |   इसके प्रांगण में वेद्र- पुराण रचे गये | ऋषि- मुनियों   ने  इसे अपनी तपस्थली बना अपना जीवन सफल किया तो गृहस्थ लोगों ने इसके दर्शन मात्र में अपने आपको  धन्य समझा |क्या नहीं है हिमालय के पास भारत वर्ष के लिए |शिवशंकर  का  चिर निवास   कैलाश  भी यही है तो माँ जगदम्बा  ने  भी अपने लिए सबसे सुरक्षित जगह हिमालय को ही मान विभिन्न रूपों में   इसी पर    वास  किया  | हिन्दू धर्म के साथ साथ -जैन  बौद्ध इत्यादि धर्म भी हिमालय की ही गोद में फले   -फूले|  इसने साइबेरियाई    बर्फीले तूफानों और   विदेशी   आक्रमणों से भारत को सुरक्षित रख    एक  सजग  प्रहरी की भूमिका अदा की |  हिमालय मानव मात्र के लिए आध्यत्मिक और साहसिक  यात्राओं का कौतूहलपूर्ण  गन्तव्य रहा है | पुरानों में वर्णित स्वर्ग  का  कल्पित पथ भी इसी से होकर जाता है ऐसा  माना जाता है | मोक्ष  का  प्रतीक  मानी जानी वाली चार धाम  की यात्रा इसका प्रमुख आकर्षण है |हिमालय तो अपने आप में  ही सम्पूर्ण  स्वर्ग है | हिम आच्छादित ऊँचे शिखरों से सजे  हिमालय में  अनेक तरह की वनस्पति और अनगिन  जीव - जन्तु  पाए जाते है  | विश्व की सर्वोच्च शिखर ' माउन्टएवरेस्ट ' भी इसी का  एक शिखर है , तो भारत की सबसे बड़ी नदियों का उद्गम स्थल भी यही है |इन नदियों ने प्राचीन  काल से ही अनगिन सभ्यताओं और संस्कृतियों को पोषित  किया है  साथ में अनगिन  जलचर , थलचर और नभचर भी पोषित हुए हैं |पर मानव की प्रगतिवादी  सोच ने  अपनी सुविधा  -सम्पनता के लिए पर्यावरण  के सबसे  बड़े प्राकृतिक प्रतीक हिमालय को भी नहीं बक्शा और इसके प्राकृतिक संसाधनों का अँधा धुंध प्रयोग  किया | इसकी जल धाराओं  को मोड़कर और  इसके अटल अस्तित्व को विस्फोटकों से खंडित कर बड़े - बड़े बांध बनाये गये  जिससे पर्यावरण को विशेषकर वन संपदा को बहुत नुकसान पहुंचा है |नदियों के तट पर बहुमंजिला इमारतें और  अत्यधिक बढ़ता औद्योगिकीकरण  नदियों और इन के अमृत तुल्य जल के लिए अभिशाप बन गया| पहले छोटी- मोटी  भूस्खलन और बाढ़ की खबरें तो आती रहती थी पर  जून 2013 में   प्राकृतिक आपदा ने सारे प्रबन्धन को धराशायी  कर दिया और अकल्पनीय  जान माल का नुकसान हुआ | इस  नुकसान  के सही आंकड़े ना तो उपलब्ध  हैं और ना हो सकते हैं | स्थानीय लोगों के अलावा  पूरे  भारत वर्ष से चार धाम की यात्रा पर आये तीर्थ यात्री इस आपदा का शिकार बने |  केदारनाथ   के प्राचीन मन्दिर को भी बहुत नुक्सान पहुंचा  | यूँ तो  इस  त्रासदी  का कारण लगातार होने वाली मॉनसून की बारिश थी पर  भूस्खलन ने वर्षा के कारण  लबालब भरी गंगा  नदी  को  अवरुद्ध कर दिया जिससे   बाढ़ जैसी  स्थिति  पैदा हो गयी गंगा के तट इस बेकाबू जल प्रवाह में बह गये और अपने साथ  जो कुछ भी मिला उसे भी बहा ले गये | सदियों  से शांत , जड़ प्रकृति का ऐसा रौद्र रूप कभी देखने में नही आया जैसा उस साल   आया ||ऐसी  तबाही के लिए  वैज्ञानिक  और पर्यावरणविद भले ही  सालों से चेता रहे थे पर फिर भी ये तबाही उस अनुमान से कहीं अधिक और भयावह थी | |इस आपदा को  पांचसाल हो गये पर  इसकी तबाही के निशान आज भी केदार नाथ और बद्रीनाथ के साथ  अनेक गाँवों और गंगा तटीय शहरों में मौजूद होंगे | भुक्त भोगी जीते जी तबाही के उन भयावह दृश्यों को कभी ना भुला पाएंगे | ऐसी दुखद घटनाओं की पुनरावृति ना हो इसके लिए  ठोस कदम उठाये जाने जरूरी हैं जिनमे वन पोषण को बढ़ावा देना सबसे जरूरी है | क्योकि हिमालय हमारे लिए वरदान है, उसका संरक्षण होना जरूरी है ||  ये  त्रासदी   हिमालय की चेतावनी देती  दहाड़  है |हमे हिमालय के इस आक्रांत स्वर को  अनदेखा  नही करना चाहिए ,ताकि फिर कभी मानव सभ्यता के इतिहास में  उतराखंड त्रासदी जैसी  कोई  प्राकृतिक आपदा दर्ज ना हो |

विशेष ----------- एक रचना जो  इसी  त्रासदी  पर लिखी गयी थी --------
उतराखंड त्रासदी -- 
ये रुदन है हिमालय का
जो हर बंध तोड़ बह रहा है 
मिट जाऊंगा तब मानोगे -
आक्रांत हो कह रहा है !

''कर दिया नंगा मुझे -
नोच ली हरी चादर मेरी ,
जंगल सखा भी मिट चले -
जिनसे थी ग़ुरबत मेरी , ''
चीत्कारता पर्वतराज -
खोल दर्द की गिरह रहा है !

शिव की जटाओं से उतरी थी जो
शीतल - अविरल गंगा कभी ,
सब से निर्मल- पावन थी - -
 हिमराज की ये बेटी कभी ;
 हो मैली उद्विगन है -
व्यथित पिता सब सह रहा है !!

सदियों से सुदृढ़ रहा -
रक्षक है भारतवर्ष का ,
हिम  शिखरों  से सजा --
है भागी जन के उत्कर्ष का ;
ये गौरव इतिहास होने को है -
शेष बचा विरह रहा है ! !

जड़ नहीं चेतन है ये -
निशक्त नहीं - नि शब्द है ,
उपेक्षा से आहत - विकल -
गिरिराज स्तब्ध है ;
बवंडरों से जूझता पल - पल -
टुकड़ों में ढह रहा है !
मिट जाऊँगा तब मानोगे -
आक्रान्त हो कह रहा है !!!!!!!!!!!

चित्र --- गूगल से साभार -------
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 धन्यवाद  शब्द नगरी --

रेणु जी बधाई हो!,

आपका लेख - ( उतराखंड त्रासदी ---- हिमालय का आक्रांत स्वर -----लेख -- ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
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29 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा सन्देश !
    प्रकृति से छेड़ छाड़ महंगी पड़ रही है.

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही ख़ूबसूरत लेख, शब्द चयन श्रेष्ठ, पर्वतराज हिमालय से लेकर उसमें बसने वाले लोग, ऋचाओं, श्रेणियों, मौसम और नदियों के उद्गम से परिपूर्ण यह लेख वाकई बेहतरीन है। निस्संदेह प्रकृति से छेड़छाड़ महँगी पड़ती है। मगर आज के इस युग में मानव को आधुनिक बनाने वाले लगभग सभी कर्म प्रकृति को क्षति पहुँचाते हैं।
    जैसी क्रिया, वैसी प्रतिक्रिया। कीमत तो चुकानी ही होगी।
    माँ प्रकृति के साये में सभी जीव सुखी रहते हैं, मानव भी कभी इन्हीं का हिस्सा था, मगर परिवर्तन की चाह, आधुनिकता, या यूँ कहें स्वार्थपरायणता की प्यास, अन्य जीव के प्रति वैर भाव। आख़िर इनका परिणाम समय-समय पर देखने को मिलता है।
    .
    आदरणीया, "उत्तराखंड त्रासदी" संभवतः आपकी ही रचना है। बख़ूबी आपने इस ख़ूबसूरत कविता में पर्वतराज के मन की बातों को बयां किया है।...
    जड़ नहीं चेतन है ये -
    निशक्त नहीं - नि शब्द है ,
    उपेक्षा से आहत - विकल -
    गिरिराज स्तब्ध है ;...
    . जड़ नहीं चेतन है ये. वाकई चेतन ही है। हम सबको सभी प्राकृतिक घटकों को सजीव मानना चाहिए। और यही तो सनातनी संस्कृति भी हमें समझाती है। जिसके मुताबिक हवा, पानी इत्यादि सभी पूजनीय हैं।
    .
    एक अद्भुत कृति के लिए ढेरों शुभकामनाएँ एवं सादर श्रद्धाभाव🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय अमित -- सबसे पहले तो क्षमा प्रार्थी हूँ कि आपके साथ इस लेख के सभी स्नेही पाठकों की टिप्पणियों के उत्तर देने में देर हो गयी | और आपके अनमोल शब्दों ने वो कह दिया जो मैं लिख में ना कह पायी शायद कह भी ना पाती !!हम साहित्य प्रेमी तो हिमालया के प्रति अपना प्रेम बस लेख और कविताओं के माध्यम से ही प्रकट कर सकते हैं | हिमालय अपने अंदर बहुरंगी संस्कृति को संजोये सदियों से खडा है | कितना हल्के में लिया इंसान ने इसे | इंसान की यायावरी प्रकृति में जब इसको जानने उत्कंठा प्रबल हुई तभी से इसके विघटन की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी | पहले लोग मोक्ष केलिए हिमालय जाते थे आज शौक और पर्यटन के लिए जाते थे | अगर सरकार इनकी सहूलियत के लिए काम नहीं करती तो लोग नाराज हो जाते हैं | दुसरे दुर्गम यात्रा के दौरान यात्रियों की सुरक्षा इत्यादि सौ मसले हैं साथ में कोई भी सरकार यात्रियों की सहूलियत के लिए उनके सामान या कचरा पैदा करने वाली सामग्री पर रोक नहीं लगा पाती | रास्तों के नाम पर तो कभी बांध के नामपर विस्फोटों से घायल हिमालय चीत्कारेगा नहीं तो क्या करेगा ? तभी उतराखंड जैसी त्रासदियाँ जन्म ले रही हैं जिनसे भयंकर जान माल की हनी हो रही है |ये चेतन तो है ही चेतना का स्त्रोत और चैतन्यता को प्रश्रय देने वाला एक प्रखर यौद्धा है | और इस विषय पर उपरोक्त लिखी रचना त्रासदी के साल लिखी थी | इस स्नेहासिक्त और बुद्धिमता पूर्ण विवेचन के लिए मेरा आभार अनहि अपितु मेरी हार्दिक स्नेह भरी शुभकामनायें !!!!!!!!!!!!

      हटाएं
  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-06-2018) को "पितृ दिवस के अवसर पर" (चर्चा अंक-3003) (चर्चा अंक-2997) (चर्चा अंक-2969) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  4. रेणु बहन,यहाँ आपके इस लेख को पढ़कर अपना एक अनुभव बता रही हूँ। अपनी चार धाम यात्रा के दौरान 30 मई 2012 को मैं केदारनाथ में थी। उसके बाद 7 जून 2012 तक बद्रीनाथ और आसपास के स्थानों की यात्रा की। अगले ही वर्ष जून 2013 में इस भयानक त्रासदी की खबर मिली तो मैं काँप गई क्योंकि हमारा ग्रुप अगले वर्ष यानि 2013 में ही उत्तराखंड जाने का कार्यक्रम बना रहा था। 2012 में जाने वाले थे द्वारका की तरफ लेकिन बाद में सबके कहने पर उत्तराखंड चले गए थे। मैं टेलिविजन पर उन दृश्यों को देखती और रोती थी। इस यात्रा में मुझे कुछ अलौकिक अनुभव हुए थे, कभी लिखूँगी ब्लॉग पर। आपका ये लेख मेरी यादों को ताजा कर गया। बहुत ही अच्छा लेख और मर्मस्पर्शी कविता। सार्थक संदेश।

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    उत्तर
    1. प्रिय मीना बहन -- आपसे भी क्षमा प्रार्थी हूँ कि आपने अपना अनुभव सांझा किया और मैं किन्ही कारणोंवश त्वरित उत्तर न दे पायी |और बहन ,''जाको रखे साईंया-- मार सके ना कोय ''| जिसके सर पर भगवान का हाथ उसे कोई हानि कहाँ पहुंचा सकता है ? ईश्वर अपने चहेतों को बचाने के लिए अनेक कारण बना देता है | आपको भगवान बद्रीनारायण ने बुलाया ये आपका सौभाग्य है| मुझे एक तो पहाडी यात्रायें बहुत ज्यादा सेहत की दृष्टि से रास नही आती दूसरे पतिदेव की प्राइवेट जॉब है -भगवान के आदेश के बिना उनके दर तक जाना कहाँ मुमकिन है ? और आपने सच कहा भले ही कोई वहां जाकर आया या नहीं पर त्रासदी के मार्मिक , भयावह दृश्य हर मन को कंपकंपा गये साथ में रुला भी गये | हर आँख इस अप्रत्याशित आपदा से भीग गयी | | और हिमालय की यात्रा तो सदियों से जोखिम भरी रही है | सयाने लोग कहते हैं पहले जीवन के सन्यास आश्रम में लोग मोक्ष के लिए हिमालय जाते थे और अपने सर पर कफन लपेट कर जाते थे , क्योंकि उन्हें अपने लौटने की उमीद शून्य होती थी | पर आजकल युवा लोग पर्यटन की तरह अनेक तरह की सामग्रियों से लैस हो जाते हैं | साथ में बच्चो को भी ले जाते हैं | बढती सम्पन्नता और अनेक तरह की प्रगति ने कचरे के लिए कोई कमी नहीं रख छोडी है | पहले लोग दिवंगत परिवारजनों की अस्थि विसर्जन के लिए बड़ी सादगी से अकेले ही चले जाया करते थे आज पूरा परिवार जाता है | जितने लोग उतने फूल , उतने दीप ,और बाती --और गाड़ियों का धुंआ मुफ्त में --- क्यों नदियाँ मैली ना होंगी ? क्यों पर्वत प्रभवित ना होंगे ?ग्लोबल वार्मिंग और जनमानस की अति श्रद्धावश इन प्राकृतिक मसीहाओं को जो हानि पहुंची है उसकी पूर्ति सम्भव ही नहीं है | प्रसंगवश मुझे हिमालय की दूसरी श्रृंखला का स्मरण हो आया | मेरा गाँव पंचकुला जिले में शिवालिक श्रृंखलाओं के नजदीक पड़ता है | बचपन में हमारे घर की छत से हम उन श्रृंखलाओं की हरियाली बड़े चाव से निहारा करते थे , पर आज नंगे सुरमई पहाड़ दीखते हैं नाम भर की वन संपदा बची है | मेरे मायके में बच्चों के मुंडन संस्कार माँ ज्वाला जी के मन्दिर में जिला कांगड़ा हिमाचल में होते हैं | इसी बहाने मुझे भी कई बार वहां दर्शन का सौभाग्य मिला | बहुत बचपन में सालोंपहले रास्ते में पडती दो पहाड़ों के बीच बहती विराट रावी नदी की नीली धार इतनी दर्शनीय थी कि मन्त्र - मुग्ध हो देखते ही जाएँ पर उसके बाद जितनी बार भी गये पोलोथिन और कचरे से भरी नदी की घाटी और मलिन जलधारा मायूस कर गई | अब इसे इंसानी गलतियों ने ही मैला किया है इसमें दो राय नहीं | आपको मेरा लेख और कविता पसंद आई मेरा लिखना संतोष दे गया मुझे | हर्दिक आभार और स्नेह आपके अतिरिक्त स्नेह के लिए |

      हटाएं
  5. सार्थक और सचेत करता आलेख
    बहुत सुंदर
    बधाई

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    उत्तर
    1. आदरणीय सर -- मेरे ब्लॉग पर आने कर रचना पढने के लिए सादर आभार आपका |

      हटाएं
  6. आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.com/2018/06/74.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

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    उत्तर
    1. आदरणीय राकेश जी -- आपके सहयोग के लिए आभारी हूँ | सादर --

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  7. प्रिय बहन रेनु ,बहुत ही खूबसूरत लिखा है आपनें । सुंदर शब्दों से सुसज्जित और हम सभी को सचेत करता हुआ ..। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का खामियाजा तो भुगतना ही पडता है ,आधुनिकता की अंधी दौड़ मे भावनाहीन होता जा रहा है मानव ।
    कविता बहुत ही लाजवाब !

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    उत्तर
    1. प्रिय शुभा बहन -- आपने रचना पढ़ी और इसका मर्म ग्रहण किया मुझे अपार संतोष हुआ | सस्नेह आभार |

      हटाएं
  8. सारगर्भित, शिक्षाप्रद और संवेदनशील लेख! बधाई और आभार!

    जवाब देंहटाएं
  9. हिमराज की ये बेटी कभी ;
    हो मैली उद्विगन है -
    व्यथित पिता सब सह रहा है !!
    प्रकृति के विकृत दोहन की टीस की वेदना का अद्भुत मानवीयकरण!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय विश्वमोहन जी -- आपके उत्साहवर्धन करते अमूल्य शब्दों के लिए आभारी हूँ | सादर आभार आपका |

      हटाएं
  10. रेणु दी आपके इस गंभीर संदेश भरे लेख में मुझे अपने विंध्य पर्वत की पुकार सुनाई पड़ रही है। वह क्रंदन करता रहा और इंसान अपने स्वार्थ में दशकों से उसके हृदय स्थल को विस्फोटकों से दहलाता रहा। अवैध खनन ने उसकी हरियाली को नष्ट प्रायः कर दिया है। और अब हमारे नुमाइंदे दफ्तरों में बैठें-बैठें ही हरियाली ला रहे हैं।

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    उत्तर
    1. प्रिय शशि भाई -- अपने क्षेत्र के लिए विन्ध्या पर्वत की कीमत हिमालय से कम नही | पर हाल तो हर पर्वत , हर पहाड़ और पहाडी का एक ही जैसा है | आपने सही कहा उसकी हरियाली छीन कर दफ्तर में प्रलाप करने वालों की कोई कमी थोड़े ही है | आप पत्रकार होने के नाते उनके असली चेहरे पहचानते हैं ,ये आपके लिए और भी मर्मान्तक है |लेख के बहाने आपकी राय जानी अच्छा लगा | सस्नेह आभार आपका |

      हटाएं
  11. हिमालय क्षेत्र की शौचनीय अवस्था को लेखर लिखा आपका ये आलेख आत्मचिंतन करने वाला है न सिर्फ भारत देश के लोगों बल्कि हर क्षत्र जो हिमालय के आस पास है और उसके प्रभाव क्षेत्र में है ...
    पूरे क्षेत्र का विकास और आस्था इसी इलाके से जुडी है और हम अपने स्वार्थ के चलते इस बात पे गौर नहीं करना चाहते ... बरफ पिघल रही है ... पेड़ कट रहे हैं .... वाजिब चिंतन है आपका ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपने सही कहा आदरणीय दिगंबर जी | हिमालय हो या मैदान सौ मर्ज की एक दवा बस वृक्षारोपण !!! आस्थाओं ने कितनी हानि पहुंचाई है इन पर्वतों और जल धाराओं को ये हिसाब जब आने वाली पीढियां मांगेगी तो कोई दे नहीं पायेगा |लेख पर सार्थक चिन्तन के लिए सादर आभार आपका ---

      हटाएं
  12. एक गंभीर लेख रेणु जी , जिसने कई मुद्दों पर सोचने को विवश कर दिया |

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय वन्दना जी -- ब्लॉग में आपकी रूचि और उत्साहवर्धन करते शब्दों के लिए सस्नेह आभार आपका |

      हटाएं
  13. सत्यता का बोध कराता सुंदर लेख
    बेहतरीन कविता

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    उत्तर
    1. आदरणीय लोकेश जी -- आपके सहयोग और मनोबल ऊंचा करते शब्दों के लिए सादर आभार आपका |

      हटाएं
  14. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 15 जनवरी 2023 को साझा की गयी है
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  15. चेत जाए तो मनु कैसे कहलाए
    त्रासदी के बाद भी चेतना नहीं जगी

    जवाब देंहटाएं
  16. प्रिय सखी, हिमालय की विकट स्थिति का गहन अवलोकन दिख रहा है आपके इस चिंतनपूर्ण और विचारणीय आलेख में.. आपके लेखन की हमेशा से प्रशंसक हूं, जिस समय का आपका ये आलेख और कविता है,उसी वक्त की एक रचना आपके भावों को समर्पित है..

    मनुजता और प्रकृति के मध्य एक संघर्ष जारी है

    मनुज सौ दिन प्रकृति को छल के, चढ़ता शीश पर उसके,
    प्रकृति ने चाल उसकी, एक क्षण में यूँ उतारी है ।

    कि पर्वत ऋणखलाएँ टूट कर, गिरती हैं तृण बनके
    औ चट्टानों में दबकर सिसकतीं साँसें हमारी हैं ।।

    घने वन के दरख़्तों ने हमें क्या कुछ है कम झेला ?
    वो रोते रह गए, हमने चलायी उनपे आरी है ।

    मनुज ही ऐसा प्राणी है, जो साँसों का करे सौदा,
    तो मानव ही जगत में, श्वाँस का दिखता भिखारी है ।।

    अनर्गल क्षत विक्षत करते धरा जो, स्वार्थ वश अपने,
    उन्हीं के वंश पर चलती, प्रकृति की भी कुल्हारी है ।

    चमन में डाल पर बैठा उजाड़े घोसला जो खुद,
    धरा भी फिर कहाँ उनके लिए आँचल पसारी है ।।

    चलो माना प्रगति की राह में आती हैं ये मुश्किल,
    मगर जो ठान ले कोई तो बाधा उससे हारी है ।

    बड़ी विपदा भी टल जाती, प्रकृति का नियम मानें गर,
    मगर मानव कहां माने, वो लिप्सा का पुजारी है ।।

    **जिज्ञासा सिंह**

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  17. समसामयिक चिंतन परक लेख सखी,आज उत्तराखंड में जो भी प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं,वह मनुष्य के अनियोजित विकास का परिणाम है।हम लोग प्रकृति की उपेक्षा और स्वसुखों की अपेक्षा में हिमालय और भारत की संस्कृति में उसकी पहचान और स्थान व महत्व को भूल गए है।बधाई आपको आपकी कलम से हिमालय का दर्द बयान हो रहा है।इसी भाव से प्रेरित मेरी रचना है।

    https://experienceofindianlife.blogspot.com/2023/01/blog-post_10.html?m=1

    जवाब देंहटाएं
  18. प्रिय बहन बहुत सुन्दर यथार्थ दर्शाता आपका लेखन बहुत कुछ कह जाता है,हिमालय का दर्द जो आपकी की कलम से निकला है मन को झिंझोड़ देता है । अद्भुत लेखन

    जवाब देंहटाएं

yes

ब्लॉगिंग का एक साल ---------आभार लेख

 निरंतर  प्रवाहमान होते अपने अनेक पड़ावों से गुजरता - जीवन में अनेक खट्टी -   समय निरंतर प्रवहमान होते हुए अपने अनेक पड़ावों से गुजरता हुआ - ...