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रविवार, 25 फ़रवरी 2018

होली गीतों की भूली बिसरी परम्परा -- लेख --

 होली गीतों की  भूली  बिसरी परम्परा
होली का पर्व अपने साथ ऐसा उल्लास और उमंग ले कर आता है जिसमे हर इन्सान आकंठ डूब जाता है | ये फाल्गुन मास में आता है | फाल्गुन मास में बसंत ऋतुअपने चरम पर होतीहै | कहना अतिशयोक्ति ना होगा कि फागुन मास में प्रकृति का उत्सव मनता है | धरती सरसों के पीले फूलों और गेहूं की धूसर बालियों से सजी होती है | पतझड़ में वृक्षों से पुराने पत्ते झड जाते हैं - और वे नए चिकने पत्तों से सजे होते हैं -- आम बौराने लगते है -- हर रंग के फूल इस मौसम में खिलकर प्रकृति की शोभा में चार चाँद लगते हैं | ये प्रकृति के महारास की बेला है-- जहाँ संगीत है -- तो गीत और नृत्य भी है | लोक जीवन में इस त्यौहार के आसपास गीत - संगीत की सुदीर्घ परम्परा रही है | लगभग दो दशक पूर्व तक उत्तर भारत के लगभग हर गाँव में- होली से कई दिन पहले से ही रातों में होली के गीत- संगीत की शुरुआत हो जाती थी | महिलाये रात में इकठ्ठी हो कर करतल ध्वनि के साथ गोल दायरे में घूम कर होली के गीत गाती | जब महिलाएं होली के गीतों का गायन कर रही होती तो कच्चे लिपे पुते आँगन में धूल उठ जाती , जो उड़कर आसमान छूती प्रतीत होती| मस्ती और उमंग से भरी इन रातों में - पायल की झंकार और ढोलकी की थाप पर गीतों की होली का सिलसिला देर रात तक चलता | प्राय ये गीत - संगीत फाल्गुन मास के प्रारम्भ से ही शुरू हो जाता , पर इसमें तेजी अमावस के बाद आती , जब ठण्ड नाममात्र की रह जाती और चन्द्रमा अपने यौवन की तरफ बढ़ने लगता | फाल्गुन मास की उन दूधिया चांदनी से भरी रातों में होली के गीतों की सुरीली ताने अद्भुत होती |समाज में व्याप्त कई वर्जनाये , पीड़ा प्रेम , विरह आदि इन लोक गीतों विषय होते | इन गीतों के बाद लोकनृत्य और चुहलबाजी का दौर शुरू हो जाता | वैसे पुरुषवर्ग को इन आयोजनों में आने की सख्त मनाही थी , फिर भी अक्सर वे लुकछिप कर इन गीतों भरी रातों का दीदार करते देखे जाते !
समय बदल गया और भौतिक प्रगति के फलस्वरूप टीवी संस्कृति का आगमन हुआ | और होली के मधुर लोकगीतों का ये सुनहरी दौर अतीत बनकर रह गया | पर जिन लोगों ने भी उन जादुई लम्हों को जिया है   -- कच्चे आँगन से आसमान तक जाती धूल की सौधी खुशबू में लिपटे वे गीत उनकी यादों में हमेशा गूंजते रंहेगे| आज गाँव के बड़े - बड़े आँगन भी सिमटकर छोटे - छोटे रह गए हैं -- वो भी कंक्रीट के बने ! उनमे उस नैसर्गिक संगीत की कल्पना करना भी दुष्कर है | गीतों की विलुप्त होती परम्पराओं में रातों की संगीतमयी होली भी शामिल हो गई है | हो सकता है अब भी कोई ऐसा गाँव बचा हो जहाँ आज भी होली की ये अद्भुत परम्परा निभाई जाती हो |

चित्र ------- गूगल से साभार 

12 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २६ फरवरी २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

    निमंत्रण

    विशेष : 'सोमवार' २६ फरवरी २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने सोमवारीय साप्ताहिक अंक में आदरणीय माड़भूषि रंगराज अयंगर जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है।

    अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य"

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    उत्तर
    1. प्रिय ध्रुव -- मेरे नये ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है | आपका सहयोग अनमोल है |

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  2. आपने पुराना समय याद दिला दिया , हमारे त्यौहार आधुनिक हो गए हैं, लोकगीतों की सौंधी महक कहीं खो गयी है, गुझिया में भी अब वो मिठास कहाँ ...सार्थक आलेख रेनू जी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय वंदना जी-- मेरे नए ब्लॉग पर आपका हार्दिक अभिनन्दन | आपने सच कहा -- वो पुराने राग रंग अब कहाँ ? पर जिन्होंने उन रोमांचक लम्हों को जिया है वे उन्हें कभी नहीं भुला सकते | सादर आभार |

      हटाएं
  3. वाह!
    आदरणीया रेणु जी आपकी क़लमकारी की कलात्मकता बेजोड़ है. अतीत में लौटकर कुछ महसूसने और आल्हादित होने का अवसर दिया आपने इस सारगर्भित प्रस्तुति के ज़रिये.
    समय की अपनी नियति है जो बदलाव को इस प्रकार लाता है कि हम बीते कल को पछतावे के साथ याद करते हैं.
    बधाई एवं शुभकामनायें.

    जवाब देंहटाएं

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