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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

मेरे गाँव के गुमनाम शायर


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 अपने  गाँव के कविनुमा व्यक्ति को जब मैंने पहली बार  अपने  घर की बैठक में देखा  , तो मेरे आश्चर्य  का कोई ठिकाना ना रहा | मैं उन्हें आज  अपने घर की बैठक में पहली बार   देख रही थी |इससे पहले मैंने उन्हें अपने गाँव की अलग -अलग  गलियों में निरर्थक  घूमते  देखा था या फिर जहाँ - तहां  मज़मा जोड़कर सुरीले स्वर में गीत जैसा कुछ  सुनाते देखा था  , जिसे सुनकर मज़में  का हिस्सा बने लोग वाह - वाह करने लगते थे | यह गीत जैसा कुछ कभी मेरी समझ में ना सका , क्योंकि एक तो उस समय मेरी उम्र      बारह - तेरह  साल की मुश्किल से होगी |  दूसरे , गाँव में   पुरुषों की इस तरह की सभाओं  को   लडकियों  द्वारा देखा या  सुना जाना , अर्थात किसी भी तरह से इन  इनका हिस्सा बनना  अच्छा नहीं समझा जाता था | पर मुझे ये कविनुमा व्यक्ति , हमेशा  बहुत ही दिलचस्प लगते| ढलती उम्र ,  मझौला  कद  और झुकी कमर , जिस पर हाथ टिकाकर वे फुर्तीली   चाल  से वे  गाँव में इधर उधर घूमते  रहते थे |गाँव- भर से  अलग पहनावा पहने रहते -----सर्दी में चूड़ीदार पज़ामा , बंद गले की काली शेरवानी  के साथ सर पर   टोप नज़र आया करता |गर्मियों में शेरवानी की  जगह  लम्बा सफ़ेद कुरता ले लेता  और सर से  टोप गायब हो जाता  !
उस दिन, बाबाजी  [ दादाजी ] से उन्हें घुलमिल कर बातें करते देख लग रहा था , कि दोनों  की   जान - पहचान   पुरानी है  ! उन्होंने बाबाजी से कुछ देर  बात  की और चले गए |उनके आने और जाने के  बाद  तक  ,  हम बच्चों का  सब्र का बांध टूट चुका था | हमने तत्परता से  बाबाजी से उनके बारे में कई सवाल कर डाले |बाबाजी ने बड़े धैर्य से  हमारी  जिज्ञासा  शांत  की और  उन सज्जन का परिचय देते  हुए कहा  ---'' कि वे उनके सहपाठी  और  हमारे   गाँव के  प्रसिद्ध  पुरोहित और ज्योतिषी  पंडित रमानाथ जी के इकलौते पुत्र  मुरलीधर थे  , जिन्हें उनके पिता अपनी ही तरह एक कर्मकाण्डी ब्राहमण   बनाना चाहते थे , ताकि  वह उनकी खानदानी विरासत को  अच्छी तरह संभाल सके |पर बेटे का रुझान उर्दू की तरफ देख उन्होंने  माथा  पीट लिया |उनके लाख समझाने पर भी मुरलीधर शहर के संस्कृत कॉलेज  में कर्मकांड की पढाई करने नहीं गये , तो वहीँ उर्दू की पढाई पर उनके पिता को घोर आपत्ति थी |क्योंकि  वे नहीं चाहते थे , कि उनका बेटा ब्राहमण  होकर गैरमज़हबी   ज़ुबान [ भाषा ]  पढ़े  | ''मेरी जिज्ञासा अनंत थी  -- मैंने फिर पूछा  - ''गैर मज़हबी क्यों , बाबाजी ?''------
''बेटा , कई संकीर्ण विचारधारा के लोग भाषा को भी धर्म , जाति से जोड़कर देखने लग जाते हैं | किसी  भी भाषा के बारे  में  ऐसी सोच रखना दुर्भाग्यपूर्ण है |'' बाबा जी ने बड़ी निराशा से बताया |उन्होंने आगे बताना जारी रखा ------ तमाम घरेलू  बंदिशों  के मुरलीधर ने  उर्दू भाषा    के प्रति अपने प्यार को तनिक भी कम ना होने दिया |इसी लगाव के चलते  उन्हें  उर्दू शायरी का भी चस्का लग गया | वे उर्दू के बड़े शायरों  के शेर  याद  करते और उन्हें लोगों को सुनाते |उनके पिता ने उनके इस शौक से परेशान होकर  ,    उन्हें  किसी काम पर लगाने की सोची |क्योंकि और किसी काम में तो मुरलीधर का रुझान था ही नहीं , सो उन्होंने   बेटे के लिए घर के पास  ही  राशन की एक  दुकान खुलवा दी |पर दुकान पर बैठकर भी उनका ध्यान  काम में कम और  शेरोशायरी में ज्यादा रहा |लोग उनकी दुकान पर राशन लेने आते तो उनसे अक्सर दो चार शेर सुनाने का आग्रह  करने लगते , जिसे वे सहर्ष  स्वीकार कर लेते और  तुर्त- फुर्त दो चार शेर  सुना डालते , जिस पर उन्हें खूब दाद मिलती |प्रसिद्ध शायरों की शायरी पढ़ते -पढ़ते एक दिन वे खुद भी  अच्छे शायर बन गए और अपने लिखे शेर भी लोगों को सुनाने लगे |उनका काम थोड़ा  जम गया,  तो उनके पिता ने एक सुयोग्य लड़की  देखकर उनकी शादी करवा दी |सुंदर , सुशील   और सुघड़ पत्नी पाकर उनकी शायरी और भी निखरने लगी |इसी बीच आजादी के बाद  उर्दु की जगह हिंदी भाषा  ने ली थी और उर्दू जानने वाले  दिनोंदिन कम होते जा रहेथे |पर फिर भी लोग उनके शायराना अंदाज के दीवाने हो चुके थे |''
अपने शायर  मित्र के बारे में  बाबा जी ने आगे बताया  , कि   साहित्य प्रेमी होने के नाते वे स्वयं भी  अपने दोस्त की  शायरी से बहुत प्रभावित थे |वे उन्हें समझाते  कि वे अपनी लिखी रचनाओं को किसी अखबार , पत्रिका आदि में प्रकाशनार्थ भेजें या फिर सारी रचना सामग्री को संग्रहित किसी किताब की शक्ल में छपने हेतु भेंजे  ,  पर उन्होंने उनकी  बात को कभी गंभीरता से नहीं लिया |इसका कारण था  उनकी उर्दु प्रकाशन संस्थानों तक उनकी पहुँच ना होना |साथ ही वे अपनी दुकान पर बैठकर  शेरोशायरी   करने में ही असीम आनंद  और  संतुष्टि  का अनुभव करते थे |
बाबा जी ने हम बच्चों को बताया किअब उनके शायर मित्र ने  अब उनकी सलाह मानकर , अपनी सभी  रचनाओं को एक  पुस्तक  की शक्ल में छपवाने का मन बनाया है |क्योंकि जीवन के ढलते पड़ाव  पर वे  भीषण आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे  थी |इसका एक कारण था  बड़े बेटे द्वारा उनकी दुकान पर कब्जा    करना  ,  दूसरे  उनकी गिरती सेहत |छोटे बेटे की नौकरी किसी दूसरे शहर में थी  , अतः वह सपरिवार वहीँ जा बसा था |उसके बाद उसने माता - पिता की खोज खबर लेना मुनासिब ना समझा था |दुकान हाथ से जाने  बाद एक मामूली बुखार से पत्नी  की मौत ने उन्हें भीतर तक हिलाकर रख दिया |मायूसी  और तंगहाली के इस दौर में उन्हें  बाबाजी की सलाह बिलकुल  सही लगी |आज इसी संदर्भ में वो बाबा जी से मिलने आये थे | बाबाजी ने उन्हें मदद करने का पूरा भरोसा दिया | उन्होंने हम   बच्चों को   समझाया कि हम सब बच्चे उनके शायर मित्र  को  उन्हीं  की तरह  ही   बाबाजी    कह्कर  बुलाएं  और जब कभी वे हमारे घर आयें उनका  पूरा आदर -सत्कार करें | वे आगे बोले ,'' वे     अत्यंत  विद्वान्  व्यक्ति हैं  और हमारे  गाँव के इकलौते शायर |''उनकी ये पंक्तियाँ सदा के लिए मेरे मन में बस गई|
--------दो चार दिन बाद वे फिर आये और एक फटी पुरानी ड़ायरी  बाबाजी के हाथ में पकड़कर तुर्त-फुर्त वापस चले गये |बाबा जी साहित्य प्रेमी थे और उर्दू के अच्छे जानकार भी | वे अक्सर किताबें पढ़ते नज़र आते जिनमें  ज्यादातर उर्दू की होतीं || उस दिन उन्होंने अपने शायर मित्र की शायरी में दिलचस्पी दिखाते हुए , पूरा दिन उनकी डायरी  पढने में लगाया | अगले दिन उन्होंने अपने मित्र को पुनः बुलाया और   उनकी डायरी  के साथ , अपने  बक्से  में से एक नया कोरा रजिस्टर निकालकर उन्हें पकडाते हुए  कहा कि  वे अपनी डायरी में लिखी सभी रचनाएँ पुनः उस रजिस्टर में लिख कर दें |ताकि   वे शहर के उर्दू प्रकाशन संस्थान में जाकर  उनकी रचनाओं को एक दीवान के रूप में  छपवाने  के लिए प्रयास कर सकें |बाबाजी ने बड़े उत्साह से हम बच्चों को बताया कि  यदि  ये  किताब  छप  गई , तो लोग उर्दू के बड़े-बड़े शायरों के साथ उनके मित्र  मुरलीधर का नाम भी लिया करेंगे | यही नहीं लोग हमारे गाँव को भी     मुरलीधर  के नाम से जानेंगे |
सबसे बड़ी बात ये होगी,  कि इस किताब के प्रकाशन से इस मुफ़लिस    और परिवार द्वारा   दुत्कारे गए शायर को नाम और पैसा दोनों मिलेंगे | बाबा जी की इन बातों ने  शायर   बाबाजी में मेरी दिलचस्पी और बढ़ा दी  थी  |मेरा मन रोमांचित हो उस दिन की कल्पना करने लगा जिस दिन किताब छपकर  आयेगी और हमारा गाँव उर्दू के इस उम्दा शायर के नाम से जाना जाएगा |हो सकता है कभी हम हिंदी में भी उनकी रचनाएँ पढ़ पायें |मेरे  किशोर मन  उम्मीद की नई  उड़ान  भरने लगा था |
 इस बात को कईं दिन गुजर गये | बाबाजी को पता चला कि उनके मित्र ने नये रजिस्टर में अपनी सभी रचनाएँ लिखने का काम लगभग पूरा कर दिया है
वे उन्हें छपवाने के लिए शहर जाने ही वाले थे, कि इसी बीच  उन्हें किसी काम से एक    रिश्तेदारी में  जाना पड़ गया |और उन्हें वहां से लौटने में कई दिन लग गये
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इसी  बीच  बाबाजी के बताये  शायर   बाबाजी  के निवास पर जाने का मेरा  मन  हो आया  क्योकि मेरे मन में इस अलबेले शायर के बारे में  ये  जानने की इच्छा प्रबल  होने लगी थी कि वे कहाँ और कैसे रहते हैं |पर  उनके बताये  अनुसार , उनका घर मेरे स्कूल से विपरीत  दिशा में था और काफी दूर भी अतः वहां जाना संभव ना हो सका | तभी   एक अन्य प्रसंग ने मेरा ध्यान अपनी ओर  खींच  लिया |
स्कूल में सुना,  कि हमसे वरिष्ठ कक्षा में पढने वाली , और हमारी जान पहचान  वाली एक  लडकी  सरिता के दादा जी का स्वर्गवास हो गया | सरिता की कक्षा  में पढने वाली कुछ लडकियां , उसके घर जाकर  संवेदना प्रकट करना चाहती थी | उनमें से एक ने मुझे भी साथ ले लिया |
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उस दिन कडकडाती सर्दी का दिन था |ठंड के मारे मानों जान ही निकली जा रही  थी | सरिता   के  घर जब हम सब लड़कियाँ पहुंची  , तो देखा उनके  घर के सब लोग अंगीठी जलाकर  आग  ताप रहे    थे । अंगीठी में लाल दहकते  अंगारे कमरे की ठण्ड  में बहुत राहत दे रहे थें |सरिता की माताजी ने  हम सब  लड़कियों  को  भी अंगीठी  के  पास  ही  बिठा लिया | वे  एक   रजिस्टर  भी  अपने हाथ  में  लिए  बैठी थी, जिस में से पैन  फाड़कर वे  अंगीठी  की  धधकती  आंच  में डालती  जा  रही  थी। मैंने जैसे ही रजिस्टर देखा , मैं हक्की - बक्की रह गई!
ये वही रजिस्टर था , जो मेरे  बाबा जी ने  अपने  कवि मित्र  को    लिखने के लिए दिया था |अब मात्र चार - पांच पन्ने ही बचे थे  - वो भी बिलकुल कोरे |एक अनजानी आशंका से मेरा मन  दहल -सा  गया और मैंने लगभग रोते हुए सरिता से पूछा -- ;;  क्या तुम्हारे दादाजी का नाम मुरलीधर था  और वो  शायर थे ?'' 
उत्तर सरिता की माँ    ने दिया  , वो भी बहुत  रूखे स्वर में '' वो  शायर ही थे --बस शेरो शायरी ही करते थे - उसके अलावा  कुछ नहीं | यहाँ- वहां मज़मा जोड़कर  , लोगों को अपनी शायरी सुनाते रहते थे | ना जाने कितनी डायरियाँ भर रखी थी  लिख - लिखकर || अपनी उन  डायरियों  को सीने से लगाये   घूमते थे दिन भर | दो  दिन बुखार आया और  चल बसे |''
 मैंने देखा , परिवार  के  किसी भी सदस्य  को उन की मौत    का जरा भी अफ़सोस नहीं था ||मैंने फिर से रुंधे गले से मुश्किल से पूछा , ;; वे डायरियां अब कहाँ हैं ?''तो सरिता की माँ ने बड़ी ही लापरवाही से कहा , '' वे तो हमने उनके अंतिम संस्कार के समय , उनकी चिता पर रखवा दी थी , ताकि उनकी आत्मा ना भटके ! एक  रजिस्टर  में भी लिख रहे थे  -- ये भी आज  आग  सेकने  के काम आ गया | हम लोग उन डायरियों और रजिस्टर का करते भी क्या ? आज ना परिवार में किसी को उर्दू आती है ना गाँव में | '' -------
इससे ज्यादा कुछ ना सुनकर,  बड़े बोझिल मन से   मैं सब लडकियों के साथ , अपने घर आ गई|तब तक   हमारे बाबाजी जी भी    रिश्तेदारी से वापिस आ चुके थे | आते ही उन्हें अपने मित्र के स्वर्गवास का पता चला तो उन्हें बहुत दुःख हुआ | उससे भी कहीं अधिक पीड़ा उन्हें  ,   उनकी    अनमोल रचनाओं के नष्ट होने  जाने से हुई |अपने मित्र के घर जाकर ,उन्होंने उनकी  बाकि बची रचनाओं का पता लगाने का भी प्रयास किया , पर पुनः  निराशा ही हाथ लगी |वे जब तक  जीवित रहे , उन्हें अपने मित्र की रचनाओं  के  ना बचा पाने का  बहुत मलाल रहा | वे अक्सर  पछताते  कि , काश  , वे उनके स्वर्गवास के समय उनके पास होते | शायर बाबा जी की मौत के साथ मेरा रोमांच भरा  सपना भी धराशायी  हो गया ,कि हमारा  गाँव  एक उर्दू शायर के नाम  से  जाना जाएगा | उसके बाद आज तक हमारे गाँव में कोई  ऐसा शायर  या शायरी का दीवाना नहीं हुआ  , जो मज़मा जोड़कर लोगों को ग़ज़लें  या गीत सुनाता हो  और  अब गाँव में शायद ही इस गुमनाम शायर को कोई याद करता हो | 
चित्र -- गूगल से  साभार 

गुरुवार, 25 जुलाई 2019

कारगिल युद्ध --- _शौर्य की अमर गाथा



 कोई भी राष्ट्र कितना भी शांति प्रिय क्यों ना हो , अपनी सीमाओं की हर तरह से सुरक्षा करना उसका परम कर्तव्य है | यदि कोई देश अपनी सुरक्षा में जरा सी भी लापरवाही करता है उसे पराधीन होते देर नहीं लगती | , क्योंकि राष्ट्र की सीमाओं के पार बसे दूसरे राष्ट्र भी शांति प्रिय हों , ऐसा सदैव नहीं होता || भारत को भी समय -समय पर अपनी सीमाओं पर छद्म शत्रुओं से निपटना पड़ता है, जिनकी रक्षा के लिए एक विशाल सेना दिन रात निगरानी में तैनात रहती है | पर हर सजगता के बावजूद कभी ना कभी शत्रु मौक़ा ढूंढ ही लेते हैं ,जिसके लिए छोटे -मोटे प्रयास पर्याप्त नहीं होते और सीधे युद्ध की नौबत आ जाती है ||
भारत के पड़ोसी देश पकिस्तान से भारत के चार युद्ध हुए हैं , जिनमें पकिस्तान को हर बार करारी हार का सामना करना पड़ा है | इनका उद्देश्य कश्मीर पर अधिकार करना रहा है , जबकि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है , उसकी और देखने वाले शत्रु पकिस्तान को हर बार भारत ने कड़ा सबक सिखाया है |
दोनों के बीच शांति की कई संधियाँ और समझौते हुए , पर हर बार पकिस्तान ने इन सब को भुलाकर भारत को सताने में कोई कसर नहीं छोडी | 1948 , 1965, 1971 के बार 1999 के कारगिल युद्ध में भी भारतीय सेना से पाकिस्तानी सेना को मुंह तोड़ जवाब दिया |
क्यों खास है कारगिल ? कारगिल कश्मीर का एक सीमान्त क्षेत्र है , जिसपर मई 1999 में कश्मीरी उग्रवादियों के साथ पाकिस्तानी सेना ने घुसपैठ कर की कोशिश की थी , यही जिसके बारे में पाकिस्तानी सेना ने दावा किया था की घुसपैठिये कश्मीरी थे | जबकि लडाई में दस्तावेजों के आधार पर पता चला, कि पाक सेना उसमें सीधे तौर पर शामिल थी , जिसका मकसद छद्मयुद्ध से इस क्षेत्र पर कब्ज़ा करना था , ताकि बाद में सम्पूर्ण कश्मीर पर अधिकार जमा लिया जाये | पर ऐसा ना हो सका भारतीय सेना ने डटकर शत्रु का सामना किया और अंततः 26 जुलाई मे 1999 के दिन पाकिस्तानी सेना को खदेड़ विजय श्री प्राप्त की थी |
ताशी बने मसीहा ----- स्थानीय शेरपा ताशी नाग्याल को यदि कारगिल की लड़ाई का मसीहा कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति ना होगी | 2 मई 1999 को अपने अचानक गुम हुए याक को खोजने गए ताशी को, बर्फ़ में इंसानी पैरों के निशान दिखे जिसके बारे में उसने सेना के हवलदार को बताया , जिसने ताशी की सूचना को निराधार ना मानते हुए , त्वरित कदम उठाते हुए खोजबीन शुरू की | जिसे आधार पर उसी सप्ताह सेना को घुसपैठ के खिलाफ़ कार्यवाही करनी पडी जो 81 दिन तक चली और अंत में हमारी सेना ने विजयश्री हासिल करने में सफलता प्राप्त की | ये बात स्वीकार करनी होगी , यदि ताशी ने उस दिन हिम्मत और सूझबूझ ना दिखाई होती , तो इस घुसपैठ के परिणाम और भी भयंकर हो सकते थे | इस तरह ताशी का नाम कारगिल विजय के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया , जिसे लिए सेना ने ताशी को सम्मानित भी किया था और उनके परिवार की बेहतरी के लिए कई काम भी किये पर यह पर्याप्त नहीं | ताशी इससे भी कहीं अधिक सम्मान के अधिकारी हैं | उन्होंने अपनी जान की परवाह ना करते हुए मातृभूमि की सुरक्षा को अधिक महत्त्व दिया जिसके लिए राष्ट्र उनका ऋणी रहेगा |

ऑपरेशन विजय था नाम --- आज से ठीक 20 साल पहले , सेना ने कारगिल में अपनी कार्यवाही को ऑपरेशन विजय का नाम दिया , जिसकी सफलता के लिए 18 हजार फ़ीट की ऊँचाई पर ला लड़े गये इस यद्ध में भारतीय सेना के 527 से ज्यादा वीर जवानों ने सर्वोच्च बलिदान दिया था और 1300 से ज्यादा जवान घायल हुए थे साथ में एक कैप्टन नचिकेता को बंदी बनाया गया था | इसमें थल सेना के साथ वायुसेना ने भी कंधे के साथ कंधा मिलाकर अपनी विशेष भूमिका अदा की थी
| वायुसेना ने अपने विमानों से शत्रुसेना पर गोले बरसाए और मिसाइलों से भी हमले किये | कहते हैं कि विश्व युद्ध के बाद कारगिल की लड़ाई ही ऐसी थी जिसमें इतनी बड़ी संख्या में गोले बारूद का इस्तेमाल किया गया था | इसमें बड़ी संख्या में रॉकेट और बम छोड़े गये | एक अनुमान के अनुसार इसमें दो लाख पचास हज़ार गोले दागे गए , जिनके लिए 300 से ज्यादा मोर्टार , तोपों और रॉकेटन से काम लिया गया | लड़ाई के अंतिम 17 दिनों में तो हर रोज प्रतिदिन प्रति मिनट में एक राउंड फायर किया गया |

बिना किसी पूर्व तैयारी के लड़ा गया युद्ध --- कारगिल की लड़ाई के लिए ना तो कोई तैयारी थी ना पूर्व सूचना | यहाँ तक कि शेरपा ताशी की सूचना के आधार पर खोज खबर लेने गये , खोजी दस्ते के पांच सदस्य सैनिकों की भी पाकिस्तानी सेना ने निर्मम हत्या कर दी थी | इस कारण ये विश्व के सबसे जोखिम भरे युद्धों में से एक बन गया गया जिसके लिए वतन के दीवाने वीरों ने अपने अद्भुत पराक्रम और शौर्य का प्रदर्शन करते हुए माँ भारती की झोली में विजय श्री का तोहफा डाल दिया |जहाँ रणनीति , सैन्यबल और मारक अस्त्र भी काम ना आये , उनके अपने साहस और वीरता ने देश के भाल को झुकने नहीं दिया और राष्ट्र के सम्मान की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति ख़ुशी - ख़ुशी दे दी | वह लम्हा समय के भाल पर ठहरा अमर पल है जब वीरों ने कारगिल पर तिरंगा फहराया था |
बीस साल हुए पूरे -- कारगिल विजय को आज बीस साल पूरे हो गये | जिन परिवारों ने अपने होनहार लाल गंवाए उनकी पीड़ा की शायद ही कोई सांत्वना हो , पर उनके प्रति हम सम्मान में कभी कमी ना आने दें , यही उन वीरों के प्रति सच्चा सम्मान होगा | प्रत्येक कार्य के लिए सरकार पर निर्भर ना रहते हुए , स्थानीय स्तर पर खुद भी प्रयास कर वीर जवानों के बलिदान के सम्मान में ठोस कदम उठाने होंगे | वीरों का सम्मान इसलिए जरूरी है , कि आने वाली पीढियां उनके शौर्य और पराक्रम से प्रेरणा लेकर मातृभूमि के प्रति प्रतिबद्ध रहें ताकि शत्रु फिर कभी देश की ओर आँख उठाकर देखने का साहस ना कर सके | शहीदों के परिवारों के प्रति विशेष सम्मान देकर हम वीरों को सच्ची श्रद्धान्जलि दे सकते हैं |

दो शब्द शहीदों के नाम ---
वे भी किसी की आँखों का सपना
माता पिता के दुलारे थे
नन्हे बच्चों का संसार- सम्पूर्ण
बहनों के भाई प्यारे थे !

' तेरा वैभव रहे जग में
माँ दे अपना बलिदान चले ''
ये कहकर मिटे लाल माँ के
जो घर आंगन के उजियारे थे !

धुन थी ना झुके तिरंगा ,
तन जान भले ही मिट जाए ;
शत्रु ने लाख जतन किये -
पर ये दीवाने कब हारे थे ?

उनकी याद मिटादें जो ,
कहाँ हम सा कोई कृतघ्न होगा ?
उनकी क़ुर्बानी याद रहे ;
यही उनका पूजन -वन्दन होगा |
वीर शहीदों को कोटि कोटि नमन !!

 स्वरचित   -- रेणु
चित्र -- गूगल से साभार

मंगलवार, 14 मई 2019

नहीं भूलती वो माँ --सस्मरण

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बात जनवरी  1992 की है जब मैं अपनी  बुआ जी  के यहाँ अम्बाला कैंट गई  हुई थी | उन दिनों   मेरे फूफाजी , जो मर्चेंट नेवी  में काम करते थे   ,  भी घर आये हुए थे |  इसी बीच उनके साथ  उनके एक रिश्तेदार के यहाँ  शादी में  अम्बाला शहर जाने का अवसर मिला | शादी रात में थी | शादी में ही  फूफा जी के  दूसरे रिश्तेदार  चौहान साहब और उनकी पत्नी  मिल गये |  यूँ तो  वे पास के गाँव   के   रहने वाले थे लेकिन  क्यूँकि      दोनों कामकाजी  थे  इसलिए वे अम्बाला  में ही    रहते  थे  उनका घर  यहाँ शादी वाले घर   से   ज्यादा दूर नहीं     था | वे फूफा जी को  अपने घर  आने का  आग्रह  करने लगे  जिसे फूफा जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया | हम तीनों उनके साथ उनके घर पहुंचे  तब  तक रात के   बारह बज चुके थे | चौहान साहब ने जैसे ही  घर के दरवाजे की घंटी बजाई उनकी माँ ने दरवाजा खोला ,जो इन दिनों गाँव से उनके घर रहने आई हुई थी | उनकी माँ को देखकर सब हैरान और परेशान  हो गये |  लग रहा था वे अभी -अभी नहाकर आई  हैं | जनवरी की कंपकंपाती  ठण्ड में भी  उन्होंने  बहुत ही घिसा -पिटा सा सूती  सूट  पहन  रखा  था   जोकि उनके सिर के बालों से टपकते पानी से बिलकुल  तर हो उनके बदन से  चिपका  हुआ था |   वे मानो नींद में चल रही थी |चौहान साहब की पत्नी ने तत्परता से उन्हें  संभाला  और पूछा कि वे  इस समय क्यों  नहाई  ?  वे समय जानकर बहुत ही लापरवाही से बोली कि उन्हें लगा सुबह  के  पांच बजे हैं इसीलिये वो नहा आई | चौहान साहब की  की पत्नी ने  अंदर के कमरे में ले जाकर  उन्हें ऊनी कपडे पहनाये  और बाल सूखे तौलिये  में लपेटकर   उन्हें  सुखाया | साथ में हम सभी को  बाहर वाले कमरे में बिठाकर  सबके  लिए चाय बनाने चली गई| इस कमरे   की सामने की दीवार पर  एक अत्यंत युवा  लडके की  बड़ी सी हार चढी फोटो   टंगी थी |  यूँ तो फूफा जी पहले से ही जानते  थे पर चौहान साहब बताने लगे कि वह चित्र उनके दिवंगत छोटे भाई   ऋषिपाल का था   जिसकी मौत  आकस्मिक सडक दुर्घटना में  आठ वर्ष पूर्व  हो गयी थी | माँ तब से  विचलित थी और  कोई भी सांत्वना उन्हें उस दुखद याद से मुक्त नहीं कर पायी थी  |   माँ  उस मर्मान्तक  घटना को    कभी भी भूल नहीं पाई | हालाँकि   वे उसी दिन से   शहर के अत्यंत जाने  माने  मनो चिकित्सक  से उनका इलाज भी करवा रहे हैं  पर  वे ऋषिपाल को कभी भूल नहीं पाती  क्योकि वह तीन भाइयों में सबसे छोटा  और संबका लाडला था | खुद चौहान साहब के  अपनी कोई  संतान नहीं थी अतः वे  अपने इसी भाई को  अपनी संतान  की तरह   मानते थे  और पढने- लिखने के लिए   प्रोत्साहित  करते थे  | | इसी बीच उसका चयन वायुसेना में हो गया .  जिसके लिए उसे दो दिन बाद ही ट्रेनिंग पर जाना था  पर जाने से पहले ही  सड़क दुर्घटना में   उसकी जान चली गयी |सब बातें बताते हुए उनकी  आँखें  नम  होती रही |
इसी बीच माँ नाजाने क्यों  मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अंदर  अपने कमरे में  ले गई | उनका कमरा  सुरुचिपूर्ण  ढंग  से सजा था | साफ सुथरे बिस्तर के अलावा दवाई और पानी के साथ माँ की  जरूरत की हर चीज वहां मौजूद थी | इस कमरे में भी उनके दिवंगत बेटे की एक और मुस्कुराती हुई तस्वीर  मेज पर उनके बिस्तर के बिलकुल सामने रखी थी  | वह अचानक ना जाने किस  रौ में  तस्वीर  में अ अपने  दिवंगत बेटे के चेहरे को सहलाती हुई  
मुझे बताने लगी कि उनका बेटा ऋषिपाल  उस दिन उन्हें कहकर गया था  कि बाद कुछ देर बाद आ रहा हूँ पर     वो    निष्प्राण होकर लौटा !! वह मुझे बहुत ही व्यथित हो बताती गई कि जिस  घड़ी वो शहर जाने के लिए तैयार हुआ  घर की मजबूत दीवार अपने आप दरक गई और घर के सामने  खड़े   आम के पेड़ की सबसे  मोटी डाली  ना जाने कैसे अनायास टूट कर धरती पर गिर  पड़ी | माँ  की   आँखें   कौतूहल और अनजाने डर   से फैलकर  आज भी   उस दृश्य को मानो सजीवता से अपने आगे  ही  देख रही थी  और आत्म मुग्धता की स्थिति  में वे कहती जा रही थी कि उस दिन कोई आंधी तूफ़ान नहीं आया तो कैसे दीवार और  आम   की टहनी टूट गई थी !!
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था उन्हें  क्या कहूं !!! मैं  निःशब्द   बैठी उन्हे एकटक निहार रही थी और उनकी  करुणा से  भरी   बातों      से   मेरे भीतर एक  वेदना पसरती जा रही थी |  वे उस पल के पास  आज  भी उसी तरह से जुडी बैठी थी मानो ये अभी इसी पल की बात हो | लाडले  बेटे  शादी के सपने ,  हंसी खुश मिजाजी  के दृश्य और माँ को  लाड मनुहार के कितने ही दृश्य कुछ ही पल में उनकी बातों में साकार हो गये | उनकी  सब बातें  मेरी आँखें नम किये दे रही थी  पर इस दौरान अपने मुंह से    सांत्वना  का    एक भी शब्द  उनके लिए कह पाने में खुद को असमर्थ  पा रही थी | इसी बीच मेरी बुआजी ने  मुझे   बाहर  आने के लिए कहा क्योकि रात के    दो बजने वाले थे   और हमें  वापिस घर जाना था | हमने  चौहान साहब और उनकी  पत्नी के साथ माँ  से भी विदा मांगी | पर माँ   निर्विकार  शून्य में तकती रही और हम वहां से  बोझिल मन लेकर   निकल  चल पड़े |  कितने साल बीत गये पर मुझे   बेटे  की यादों में खोयी वह स्नेही माँ  कभी नही भूलती जिन्हें   कोई सांत्वना उनके बेटे  की  यादों से दूर नहीं ले जा पाई | |

   उसी समय    इन्ही माँ पर एक कविता लिखी थी -- जिसे यहाँ लिख रही हूँ |
माँ अब तक रोती है 
 माँ अब तक रोती है 
 उस युवा अनब्याहे बेटे की याद में -
 चला गया था    आठ साल पहले 
जीवन के उस पार अचानक 
 जो कहकर गया था 
 आ रहा हूँ पल दो पल में .
पर आई थी उसकी निर्जीव देह '
माँ स्तब्ध  है उसी पल से 
 और  रातों को नहीं सोती है !!

 बिन तूफ़ान के  ही 
आम की   मोटी टहनी का टूटना 
 या फिर दरक जाना  अचानक 
 आंगन की मजबूत दीवार का ;
 सब उसकी मौत की आहट तो नहीं थी ?
 उसके हंसते विदा होने पर अंतिम बार 
 भीतर  लरज़ी  थी   कोई  डरावनी लहर  सी ;
  क्यों वह अनुमान ना लगा पाई थी 
 अनहोनी के घटने का !
पछतावे में    माँ  पल -पल गलती  है !
 और अब तक  रोती है  !!

पिता भूल चुके हैं -
 भाई  मगन हैं अपनी गृहस्थी में 
बहनें   अक्सर  राखी पर 
 कर लेती हैं आँखें नम ;
पर माँ को याद है 
 बिछड़े बेटे का  हंसना ,मुस्कुराना 
 और लाड  में भर माँ के पीछे -पीछे आना ,
 उसका सेहरा देखने का अधूरी चाहत 
  अब भी   कसकती है मन में; 
 उस जैसा कोई मिल जाए -
 हर चेहरे में झांकती माँ
 ढूंढती अपना खोया मोती है   |
 माँ अब तक रोती है !!!!!!!


स्व लिखित --  रेणु
चित्र गूगल से साभार 

मंगलवार, 26 मार्च 2019

फूल ! तुम खिलते रहना !


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  जीवन में बसंत ---  
  चारों ओर बसंत   का  शोर है  |  हो   भी क्यों ना !जीवन में  बसंत का   आना  असीम खुशियों का परिचायक है | प्रश्न उठता है  बसंत  क्या है ? क्या है इसकी परिभाषा ?यूँ तो बसंत को हर  किसी  ने अपनी परिभाषा दी है पर सरल शब्दों में कहें तो फूलों की खिलना ही सृष्टि में बसंत का परिचायक है ,  ये   मन की वेदना को चीरकर निकली एक    आशा उम्मीद  का   प्रतीक है | बुझे  मन  के पतझड़   में एक ख़ुशी की कामना  ही बसंत है | बसंत आया तो सृष्टि मानों सोते-सोते आँखें मलती  जग  पडती  है| कितना कुछ अनोखा सा घटित होता प्रतीत होता  है | | ठण्ड में सिमटे  दिनों का     आकार बढ़ता है तो सुहानी सी भोर   के साथ गर्माहट  भरी  धूप मन को एक नयी चेतना   से भर    असीम आनन्द  की  अनुभूति  करवाती है |  आकाश की  नील आभा और  गहराती प्रतीत होती है तो पक्षियों के दल  पूरी क्षमता से  मानों आकाश से होड़ लगाते   दिखते  हैं |  बासंती बेला में  नील गगन में रंग बिरंगी पतंगों का उड़ना  उत्साह  के चरम का द्योतक है |ठूंठ  प्रकृति  में नवयौवन  की आहट जड़ता में चैतन्य लाती है |जो वृक्ष - पौधे , लताएँ  पतझड़ में  पत्रविहीन हो निर्जीव   ,उदासीन और   उजड़े से  नजर आते हैं वही  बसंत के  आते ही   स्वर्ण , ताम्र  और  रजत वर्णी  नव कोपलों से सुसज्जित हो   बसंती बयार के संग        झूम झूम कर इतराने लगते हैं  | यही  है बसंत   जिसे  सृष्टि के   छः ऋतुओं  का    शिरोमणि कहा गया है |हवा  भी  बहुत सुहानी और  मादक   हुई जाती है मानों  जीवन से पीड़ा विदा हो गयी और अनंत आनन्द  दस्तक   दे रहे हों  | नवागत ऋतु की पदचाप भर से जीवन की निष्क्रियता  -  सक्रियता     में बदलने को आतुर हो  उठती है  |  मयूरों का नर्तन ,   भवरों   का गुंजन  और कोयल  की कूक   मानो इसके स्वागत का  मधुर  गान है  | आम के पेड़ों पर उमड़ी  मंजरी  और नीम के सफेद फूलों  से महकती गलियां तो कहीं गेंदे के फूलों की कतारें   देखते ही बनती है    बसंत  में चार  चाँद  लगाने के लिए  होली  , फाग , रसिया जैसे लोकरंग इसमें समाहित हो जाते हैं तो  इसका लालित्य बढ़ाने के लिए फगुवा  के आह्लादित स्वर चारो दिशाओं में  गूंजने लगते हैं |ये लोकजीवन का वो रंग है जो  हर मन की कलुषता को धोकर  समाज में      आपसी सौहार्द  की भावना को  बढ़ाने में अपना अभूतपूर्व योगदान देता है 

फूलों  की बहार के क्या कहने -- 
इन सबके बीच में जो पूरी क्षमता   से अपने अस्तित्व का आभास कराते हैं --वो है फूल  !|इनके   माध्यम  से ही तो जीवन गा उठता है | फूल ही तो हैं  जो   खिलकर , झूमकर --अलसाई सृष्टि में   एक जागरण का गान रचते हैं |ये मानव मन की अधूरी कामनाओं की पूर्णता का प्रतीक बन  खड़े हो जाते हैं |  ये ना होते तो  मधुमास  की परिभाषा ही अधूरी रहती | इनके बूते ही तो बसंत को  ऋतुराज  कहकर सृष्टि ने सर माथे पर बिठाया है |   सच है फूलों का खिलना ही तो सृष्टि  का बसंत है| फूल जीवन से इसी तरह जुड़े हैं, जैसे देह से प्राण  | फूल सब अनकहा कहने में सक्षम है | प्रेम ,समर्पण ,   विश्वास  सब भावनाएं   फूलों  के माध्यम से   बड़ी सरलता से व्यक्त हो जाती हैं|  ये  सकारात्मक  ऊर्जा से भर   मन  को  नई उमंग से भर  देते हैं| फूलों से मन्त्र मुग्ध  दिशाएं  और सुगंध से सराबोर वसुंधरा   नये रंगों में सजकर  बासंती  परिधान  धारण कर इतराती सी नजर आती है |   

कहाँ नहीं हैं फूल ?---    जहाँ  तक नज़र जाती हैं फूल  दिखायी पड़ते हैं   |  इस पूरी सृष्टि में  कहाँ  नहीं हैं फूल ?  पहाड़ों -पर्वतों की घाटियों में , जंगल में  , उपवन में , रास्तों पे , क्यारियों में ., खेतों में , जल में थल में -- कौन सी ऐसी जगह  है जहाँ फूलों ने अपना वर्चस्व स्थापित ना  किया  हो |  कौन सा ऐसा मौसम है जब किसी तरह के फूल ना खिलते हों | भले   बसंत और पावस   ऋतु  में इनका यौवनकाल होता है |पर फागुन में नीम  के सफ़ेद  फूलों की मादक गंध से  महकती  गलियों  का अपना ही आनन्द है  तो बसंत में गेंदे के  पौधे  पर लगे  फूल तो महकते ही हैं,  साथ में उसके पत्ते भी हवा को  सुवासित कर इसकी मादकता को बढ़ाने मे अपना अतुलनीय योगदान देते हैं |   शीतकाल   में गुलाब , पारिजात , चमेली ,  रात रानी   , डेहलिया  गुलदाउदी इत्यादि सब फूलों की अपनी गंध है और अपनी ही प्रकृति   जो अपनी  नैसर्गिकता से   जीवन में  ख़ुशी का संचार करते हैं | सर्द ऋतू में सरसों के  बासंतीफूलों  का अपना महत्व है   |       होली के रंगों  से अबीर बनाने  के लिए  ही  मानों    टेसू  को ईश्वर ने उसी मौसम का राजा बनाया है ,तो  गर्मी  बढ़ने  के साथ  - सब फूलों के मुरझाने  के बाद हर नजर में  गुलमोहर   ही छाया रहता है | इस  तरह   हर मौसम के अपने फूल हैं अपनी गंध है  और अपना ही मिज़ाज़ है |फूलों के रंग  ,  आकार  कीकहें तो  जितने फूल  उतने ही कलात्मकता से भरपूर  |    सृष्टा  की ये अनुपम   रचनाएँ  सदैव ही विस्मय से   भरती  हैं और कई अनुत्तरित प्रश्नों को जन्म देती हैं |    सब वनस्पति जड़   सी थी   -पर  जैसे  ही ऋतुराज आया -- नए  कलेवर में  सज संदेश देने लगी   | लगा मानो
 जीवन से पीड़ा विदा हो गयी और अनंत आनन्द  दस्तक   दे रहे हों  | नवागत ऋतु  की   पदचाप भर से जीवन  में  नया उल्लास और कामनाओं का उजास छा जाता है | 
फूलों की अपनी दुनिया है --  कहा जाता है  कि  दुनिया में  फूलों के ढाई लाख से भी अधिक पौधों की प्रजातियाँ पायी जाती हैं | फूलोंकी अपनी दुनिया है जो  कौतूहल से भरी है और बहुत अनूठी कही जा सकती है |जैसे कमल  का  फूल  सूर्योदय के समय खिलता है तो सूर्यास्त के साथ मुरझा जाता है | ये फूल  अपने  सौन्दर्य के  साथ    लिए कलात्मकता के बारे में  भी जाना  जाता है |  सूरजमुखी   के  फूल  का मुंह प्रातः काल सूरज की और होता है तो शाम को पश्चिम की  ओर हो जाता है | इस तरह से ये फूल  अपने  नामको सार्थक करता है | छुई- मुई नामक पौधे की   पत्तियां हाथ से   छूते  ही  सिमट  जाती हैं | चन्द्र पुष्प  नाम  का फूल केवल रात में ही खिलता है और दिन में  बंद हो जाता है |गुलाब की पन्द्रह  सौ से ज्यादा प्रजातियाँ   उगाई जाती हैं और ये पुष्प शायद विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय फूलों  में से एक है जिसे प्रेम प्रतीक माना गया है  | गुलाब के नाम पर गुलाब दिवस यानी रोज़  डे  भी मनाया जाता है |    ट्यूलिप  नामक फूल को भी प्रेम , विश्वास और अमरता के फूल के रूप में जाना जाता है | इसके बारे में एक रोचक जानकारी भी है कि  1960 के दशक  में  ये सोने से भी ज्यादा कीमती  माने जाने लगे थे | इसके अलावा ये भी जानना  चाहिए कि एक चम्मच शहद बनाने के लिए एक मधुमक्खी लगभग दो हजार फूलों से  पराग और रस  लेती है |
फूलों के बारे में एक  और रोचक तथ्य  सामने आया है  कि रंगीन फूलों से ज्यादा सुगंध सफेद फूलों में होती है |
कोमलतम भावों  के प्रतीक --
फूलों से कोमल दुनिया में क्या ? इसी लिए इन्हें कोमलतम भावों का प्रतीक  माना गया है | इन्हें  प्रेम की तरह ही  पावन  और ह्रदय  के सबसे समीप मना गया |गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर लिखते हैं '' फूल की पंखुरियों को तोड़ कर  तुम उसका   सौन्दर्य  ग्रहण नहीं कर सकते |''अर्थात फूल की सार्थकता उसके खिलने में है  नाकि उसे तोड़कर संग्रहित कर लिए जाने में | बुद्ध  भी  प्रेम को फूल की संज्ञा  देकर  कहते हैं जिस तरह से  फूल खिलता है तभी सुगंध देता है  इसी तरह से प्रेम भी   जब तक उन्मुक्त रहता है   तब तक  फलता -फूलता है | उसे  समेटने में वह मुरझा जाता है |मूर्धन्य   कवि जयशंकर प्रसाद लिखते हैं '' फूल प्रकृति  की उदारता का दान है  | इन्हें सूंघने से ह्रदय पवित्र होता है , मेधा शक्ति बढती है और मस्तिष्क  प्रफुल्लित होता है |''सच है सुगंध का  विराट वैभव समेटे  पुष्प मानव मन की हर मौन  कोमलतम अभिव्यक्ति का मुखर  रूप हैं |  

 उत्तम औषधि भी हैं फूल -- फूल केवल सुंगध  ही नहीं देते  बल्कि ये औषधीय गुणों से भरपूर भी होते हैं | इनमें मौजूद पोषक तत्व कई मानसिक और दैहिक रोगों को दूर करने में सक्षम होते हैं | आयुर्वेद में तो सूरजमुखी से लेकर नीम . गुलाब ,पारिजात , सदाबहार , गेंदा , चमेली , गुडहल . इत्यादि  को प्रमुखता से  उपयोगी  माना गया  | फूलों के बारे में स्वीकार किया गया है कि इनमें शरीर के लिए फ़ाईबर, कैल्शियम , विटामिन ,  प्रोटीन इत्यादि भरपूर मात्र में होते हैं  , जो शरीर को कोई भी  हानि पहुंचाए बिना    बीमारियों  से दूर रखने में सहायक सिद्ध होते हैं | इत्र के रूप में  फूलों के रस के प्रयोग की   परम्परा  बहुत पुरानी है तो आधुनिक युग में अरोमा थैरेपी    के रूप में फूलों का प्रयोग  बहुत  चलन में है | ये  थेरेपी  तन मन  को नयी ऊर्जा से भरने में बहुत कारगर सिद्ध हुई है | मनोवैज्ञानिक  तो  बड़े विश्वास से   ये कहते हैं कि प्रकृति के समीप रहने से बढ़कर तन मन  की  बीमारियों का कोई  उपचार नहीं है | उसमें भी फूलों के नजदीक रहना और उन्हें सहलाना  बहुत ही चमत्कारी  सिद्ध हो सकता है  कह सकते हैं  फूलों में   शुभ स्वास्थ्य  का निवास है 


पग- पग पर उपयोगी --  इसके अलावा जीवन में हर कदम पर फूल  उपयोगी हैं |  गंध ,रंग  के अलावा हर अवसर पर इनका महत्व  है  |मंदिर  में देवताओं की पूजा अर्चना हो या  शादी  ब्याह  में  दूल्हे के सेहरे की सजावट और पंडाल  का सौंदर्यीकरण  सभी जगह फूलों   की जरूरत पडती ही | यहाँ तक कि जन्म के उत्सव  से लेकर अर्थी तक  की जीवन यात्रा में   फूलों  का साथ बना रहता है | पौराणिक काल से ही ,   बालों  की वेणी हो या  अन्य पुष्प  आभूषण    - फूलों को नारियों ने  बड़े ही   चाव   से अपने  तन  पर सजाया है | आजकल भी    शादी  ब्याह में    लडकियों द्वारा विभिन्न अवसरों पर  फूलों के गहने  पहनने का चलन बढ़ता जा रहा है | इसके अलावा --किसी को  दोस्ती का आमन्त्रण देना हो  ,  इज़हारेमुहब्बत करना हो   ,  किसी को शुक्रिया कहना हो या फिर  किसी से क्षमा याचना करनी हो फूल  से बेहतर कोई  उपहार  नहीं | सामाजिक व्यवहार को  बढ़ाने में   फूलों का   अहम् योगदान हो सकता है | जड़ सोच को बदलने में इनकी भूमिका  महत्वपूर्ण होती  है | खास मौकों पर खास लोगों को फूलों का   तोहफा  देकर हम अपनी  अनकही भावनाएं उन तक  पंहुचा  कर उनके और निकट    आ सकते हैं |   फूलों से किसे प्यार नहीं और कौन इनका तलबगार नहीं !


समभाव के प्रतीक हैं फूल -- फूलों  के जीवन से प्रेरक कुछ भी नहीं | ज्यादातर फूल अल्पजीवी   होते  हैं  पर  अल्प से जीवन में ही   वे समभाव से महकते  ,  मानवता के लिए एक अनुपम संदेश छोड़ जाते हैं | खुद निष्काम रह ,  दूसरों के लिए    अपना सर्वस्व  लुटाना कोई फूलों से सीखे |  हर मौसम की    क्रूर मार  झेलते     ,  इन्सान की स्वार्थी प्रवृति को दरकिनार करते हुए और  कीड़े मकोड़ों के साथ तितली ,भंवरे इत्यादि का   अनचाहा  जबरदस्ती  प्रेम सहन करते हुए   हमेशा खिलखिलाने का मधुर स्वभाव   फूलों  के  अलावा किसी   और का नहीं हो सकता |  वे किसी  सम्राट के महल में उसी  भाव  से खिलते हैं जिस भाव से किसी पर्ण -कुटीर में |कंटीली झाड़ी   की सेज पर भी इन्हें मुस्कुराने से कोई नहीं रोक सकता | | किसी अमीर-गरीब,  ऊंच- नीच  का भेद इनके लिए नहीं है  |इनकी सुगंध  सबके लिए बराबर  है 

 फूल  गेंदवा ना  मारो -  | बात फूलों  की हो और सिने जगत इससे अछूता रहे ,  ऐसा कभी नहीं हो सकता | आम जीवन की तरह फिल्मों में  भी फूलों को विशेष महत्व मिला है |  रजत पट पर दर्शकों को लुभाने के लिए नायक नायिका के प्रेम दृश्य  को   स्वाभाविकता देने के लिए  फूलों से भरी वादियों  में फिल्माया गया तो नायिका   के सौन्दर्य का बखान करने के लिए फूलों से उसकी तुलना गयी |कितने ही  अमर गीत फूलों की महिमा पर रचे गये और  सिनेमा जगत में  छा गये | जिन्हें आम जन ने       सुनाऔर वे हमेशा के लिए उसके मन की अभिव्यक्ति का प्रतीक बन कर  रह गये | ये फूलों की सुगंध की तरह ही     जीवन में महकते है  और      मन को अप्रितम आनन्द से भर जाते हैं |  प्रेम पुजारी में नीरज लिखते हैं -- ;;  फूलों के रंग से दिल की  कलम से तुझको  से लिखी रोज  पाती '' तो  सरस्वती चन्द्र में इन्दीवर  ने-- '' फूल तुम्हे भेजा है ख़त में ''  लिखकर ---  प्रेमियों के ख़त में फूल  भेजने  के  ढके लिपटे रहस्य को आम  कर दिया  |   दूज  के चाँद का  '' फूल गेंदवा ना  मारो लगत करेजवा में चोट  ;  में विरह की अनकही कसक   सिमट  अमर हो गयी है | जितनी फ़िल्में उतने  गीत और उतने ही भावनाओं के रंग | कोई कहाँ तक कहे और कहाँ तक   ना कहे |  
 साहित्य के चहेते  रहे   हैं फूल -- साहित्य में  फूलों पर अनगिन गीत लिखे गये कवितायेँ  रची गयी तो ललित निबन्धों  की भी कमी ना रही | यूँ तो आदिकाल से 
 आधुनिक काल तक  फूल साहित्य  में अक्षुण रहे पर छायावादी , प्रकृतिवादी , प्रेम वादी    और रहस्यवादी कवियों ने तो फूलों की महिमा पर   खूब और अद्भुत लिखा  |फूलों पर कुछ  मनमोहक ,अमर पंक्तियाँ---

 पतझड़ था सूखे से झाड  खड़े थे क्यारी में -

किसलय दल कुसुम बिछाकर आये तुम इस क्यारी में !!
  [ जयशंकर प्रसाद ]
 धूप में ये अनुष्टुप सा  कौन खड़ा है ?
 यह वनस्पति पुरुष 
क्या केवल फूल ही है ?
[ नरेश मेहता ] 

गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले

  [ फैज़ अहमद फैज़ ]
फूल हंसो - गंध हंसो , प्यार हंसों तुम 
 हंसिया की धार - बार बार हंसों तुम !
[ कैलाश  गौतम ] 
 फूल पौधों की सुगन्धित प्रार्थना है
 अथवा 
धरती को कहीं से भी छुओ 
एक ऋचा की प्रतीति होती है !!
[श्री नरेश मेहता ] 

अजब मौसम है, मेरे हर कद़म पे फूल रखता है
मुहब्बत में मुहब्बत का फरिश्ता साथ चलता है

  [  बशीर बद्र ]
 दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे
ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है।

 [  कवि  नीरज ]
इसके अलावा महादेवी वर्मा की --''मुरझाया फूल '' ,माखन लाल चतुर्वेदी जी की ''  पुष्प  की अभिलाषा ''  और आमिर खुसरो की -- ''सकल बन फूल रही सरसों ''जैसी  रचनाएँ और  आदरनीय  हजारीप्रसाद द्विवेदी.  जी का ''अशोक के फूल' पर निबन्ध जैसी कृतियाँ  साहित्य जगत की अनमोल थाती हैं | 
इस तरह फूलों के बिना जीवन की कल्पना करना  बहुत ही निरर्थक है | सांस्कृतिक , सामाजिक  जिअवं में इनका योगदान अतुलनीय है साथ में ये अपनी उपस्थिति से  मन को एक अप्रितम आह्लाद  से भर  एक विराट सुकून की अनुभूति कराते हैं |
और अब अंत  में मेरे ब्लॉग से फूलों को समर्पित एक रचना बसंत गान  मेरी भी --
हंसो फूलो -- खिलो फूलो -
डाल-डाल पर झूलो फूलो !
उतरा फागुन मास धरा पर -
हर रंग रंग झूमो फूलो !!
गलियों में सुगंध फैलाओ,
भवरों पर मकरंद लुटाओ ;
भेजो  आमन्त्रण तितली को -
''कि बूंद - बूंद रस पी लो'' फूलो ! !
हंसों   के नीम -आम बौराएँ -
खिलो  के कोकिल तान  चढ़ाए ,
 महको - महके रात  संग तुम्हारे -
 घुल पवन में अम्बर  छूलो -फूलो !!
 बासंती अनुराग जगाओ -
 सोये प्रीत के राग जगाओं ;
हंसो !हँसे नैना गोरी के -
 साजन  संग इन्हें पिरो लो फूलो  !!
धरा परिधान सजाये बहुरंगी,
  नभ  इन्द्रधनुष सा हो    सतरंगी ; 
तुमसे सब रंग  सजे सृष्टि के -
ये इक बात ना भूलो ! फूलो !!
 हँसो  !हँसे आँगन की क्यारी ,
खिलो  !खिले  भोर मतवाली ;
 महको !  समय  बहुत कम तेरा -
कुछ पल में  जीवन  जी लो फूलो !!!!!!!

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पाठकों के लिए  विशेष -मेरा हार्दिक आग्रह जरुर सुने --------  मख़दूम मोइनुद्दीनकी  फूलों सी महकती  सदाबहार  गज़ल जो मन को  बहुत सुकून देती है ------------- 
 फिर छिड़ी रात बात फूलों की ,
रात है या बारात फूलों की !!
फूल के  हार - फूल के गजरे, 
 शाम  फूलों  की ,रात फूलों की !!
आपका साथ -साथ फूलों का ,
आपकी बात बात फूलों की !!
फूल खिलते रहेंगे  दुनिया में ,
रोज़ निकलेगी बात फूलों की !!
नजरें मिलती हैं  जाममिलते है 
मिल रही है हयात फूलों की ,
ये महकती हुई गज़ल मकदूम 
जैसे सेहरा में  रात फूलों की !!
फिर छिड़ी रात बात फूलों की ,
रात है या बारात फूलों की !!!!!!!!!!    
    https://youtu.be/gg6669Dq92Q?list=RDgg6669Dq92Q&t=7
स्वलिखित -- रेणु
चित्र -- गूगल से साभार |

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