ये बात 1965 के भारत - पाक युद्ध के समय की है. जिसे मैंने अपने घर के बड़े बुजुर्गों के मुँह से कई बार सुना है | हमारे गाँव में वायुसेना स्टेशन है . सो युद्ध की आहट होते ही वहां सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी जाती है | उस समय क्योंकि संचार के साधन इतने नहीं थे ,सो लोग बाग़ रेडियो या अखबार के जरिये ही युद्ध की सारी खबरें पाते थे | सीमा पर लड़ाई चल रही थी | अफवाहें भी उडती रहती थी | लोग डर के साए में जीते थे कि कहीं दुश्मन एयरफोर्स स्टेशन और गाँव पर बम ना गिरा दे | लड़ाई के बीच एक सुबह पता चला कि अम्बाला के सेंट पॉल चर्च पर पाक सेना के एक हवाई जहाज से हमला हुआ है , जिसका पायलट पकड़ा भी गया है | सेना द्वारा की गई पूछताछ में पता चला कि वह पायलट हमारे गाँव के एक मुस्लिम परिवार का बेटा है . जो बँटवारे के समय 1947 में अपने परिवार के साथ पाकिस्तान चला गया था | उस समय उसकी उम्र मात्र 6-7 साल की थी |बाद में वह पढ़-लिख कर पाक वायुसेना में पायलट बन गया और उसने अपने मिशन के तहत भारत -पाक युद्ध में भाग लिया , जहाँ वह इस बमबारी के बाद पकड़ा गया |
ये भी पता चला कि वह अम्बाला जेल में बंद है | गाँव के कुछ लोग जो उनके परिवार के परिचित थे , उससे मिलने अम्बाला गये और बड़ी मुश्किल से उससे मिलने में सफल हुए
ऐसा इसलिए हुआ होगा शायद , बँटवारे को ज्यादा दिन नहीं हुये थे और लोगों में बिछड़े लोगों के प्रति आत्मीयता की उष्मा शेष थी। | गाँव के लोगों को देखकर वह पाक वायु सैनिक बहुत खुश हुआ और उसने जो बताया उसे सुनकर सभी हैरान रह गये ! उसने बताया कि पहले हमारे गाँव का एयरफोर्स स्टेशन उसके निशाने पर था. पर उसे अपनी जन्मभूमि याद थी , सो उसने उसकी बजाय ऐसी जगह को निशाना बनाया जो यहाँ से बहुत दूर थी | क्योंकि अम्बाला हमारे गाँव से लगभग 25 किलोमीटर दूर है . सो हमारे गाँव को ज़रा भी नुकसान नहीं हुआ | मिलने गये लोगों से मिलकर बड़ी भावुकता से अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए उसने . उनके जरिये अपने बचपन के साथियों और परिचितों के साथ , अपनी जन्मभूमि को भी सलाम भेजा | | उसके बाद उसका कुछ पता नहीं चला | कुछ लोग कहते हैं कि उसे कुछ समय बाद छोड़ दिया गया था तो कुछ लोग कहते हैं वह काफी दिन जेल में बंद रहा |उस लड़ाई के बरसों बाद भी हमारे गाँव में .अपनी जन्मभूमि के उस अनन्य प्रेमी . गाँव के बेटे को बड़ी श्रद्धा से याद किया जाता है जिसने युद्ध की विभीषिका के बीच भी अपनी जन्मभूमि की गरिमा को खंडित होने नहीं दिया और उसके प्रति अपना स्नेह कम होने नहीं दिया | बल्कि अपनी साँसों की कीमत पर उसका मान बढ़ाया |
अंत में इस प्रार्थना के साथ कि मानवता को युद्ध की विभीषिका से कभी गुजरना ना पड़े --
दिवंगत शायर साहिर की एक अमर नज़्म--
टैंक आगे बढ़ें या पीछे हटें,
कोख धरती की बांझ होती है.
फ़तह का जश्न हो या हार का सोग,
जिंदगी मय्यतों पर रोती है.
इसलिए ऐ शरीफ़ इंसानों,
जंग टलती रहे तो बेहतर है.
आप और हम सभी के आंगन में,
शमा जलती रहे तो बेहतर है.
स्वरचित
प्रिय रेणु,
जवाब देंहटाएंदुश्मन की सेना में होते हुए भी उस पायलट ने अपनी जन्मभूमि के कर्ज को याद रखा। उस समय उसका कर्तव्य जो था उसका उसने पालन भी किया तो अपनी जन्मभूमि को बचाते हुए। शायद इसी को धर्मसंकट कहते हैं। काश!इस धरती पर कभी जंग ना हो!
"फ़तह का जश्न हो या हार का सोग,
जिंदगी मय्यतों पर रोती है."
बहुत मार्मिक संस्मरण, मन को छूता हुआ।
इस पर रोहितास भाई की वह रचना भी याद आ गई जिसमें उन्होंने सैनिक के मन की बात का मर्मस्पर्शी शब्दों में वर्णन किया है।
प्रिय मीना , आपके ही प्रोत्साहन पर मैं ये संस्मरण लिख पायी आपको पसंद आया मेरा प्रयास सफल मान रही हूँ | | अनुज रोहिताश कलम के धनी हैं | एक सैनिक के मन की वेदना को बहुत खूबसूरती से लिखा है उन्होंने \ उनकी रचना साहित्य की थाती है | सस्नेह आभार आपकी भावपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए |
हटाएंविचारणीय संस्मरण रेणु दी, एक तरफ़ जन्मभूमि से जुड़े अनेक निर्दोष लोगों रक्षा का मानवीय धर्म और दूसरी तरफ़ वह ध्वज जिसके प्रति विश्वासघात न करने का संकल्प ले उसने वायुसेना में प्रवेश किया। इस वीर सैनिक ने ऐसे धर्मसंकट में अपने विवेक के अनुसार जो भी किया ,वह अत्यंत सराहनीय है। इसे पढ़कर मुझे महाभारत युद्ध के युधिष्ठिर और अश्वत्थामा हाथी वाला प्रसंग याद आ गया। ऐसी स्थिति प्रत्येक मानव के जीवनकाल में आती है। तभी उसके विवेक की परख होती है।
जवाब देंहटाएंजी शशि भाई , जरुर उस सैनिक की मनस्थिति डावांडोल रही होगी उस समय | इस प्रकार के निर्णय असं नहीं होते होगें एक सैनिक के लिए | आपकी सार्थक विवेचना ने लेख की कथावस्तु को विस्तार दिया है जिसके लिए सस्नेह आभार |
हटाएंबहुत ही भावपूर्ण संस्मरण लिखा है आपने रेणु जी सत्य कहा अपनी जन्मभूमि से लगाव हो ही जाता है सच में उस वीर पायलट के लिए कितना बड़ा धर्मसंकट रहा होगा उस वक्त।और जब उसके गाँव के लोग उससे बड़ी आत्मीयता से मिले होंगे तो वह कैसे आत्मग्लानि से मर रहा होगा एक तरफ उसका कर्तव्य और दूसरी तरफ उसके स्वजन....।
जवाब देंहटाएंआपका संस्मरण मन को झकझोरने वाला है।
फ़तह का जश्न हो या हार का सोग,
हटाएंजिंदगी मय्यतों पर रोती है. भाव विह्वल करने वाला अद्भुत संस्मरण। जननी जन्मभूमि:च स्वर्गात अपि गरीयसी।
जी सुधा जी , जरुर उसकी मनस्थिति का अंदाजा लगाना बहुत आसान नहीं | जन्मभूमि के लिए उनकी आत्मीयता हमेशा के लिए एक उदाहरण बनकर रह गयी | सस्नेह आभार आपकी भावपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए |
हटाएंआदरणीय विश्वमोहन जी , आपका ब्लॉग पर आना मेरा छोटा सा प्रयास सार्थक कर गया | कोटि आभार आपकी भावपूर्ण शब्दों के लिए | सादर -
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(१२-०४-२०२०) को शब्द-सृजन-१६'सैनिक' (चर्चा अंक-३६६९) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
हार्दिक आभार प्रिय अनीता |
हटाएंसच्ची सेच ओर अच्छी कामना के साथ लिखा गया सुन्दर संस्मरण।
जवाब देंहटाएंआदरणीय सर , आपको संस्मरण पसंद आया . संतोष हुआ | आपकी प्रतिक्रिया किसी उपहार से कम नहीं | कोटि आभार | सादर --
हटाएंमैंने, कतिपय कारणों से, अपना फेसबुक एकांउट डिलीट कर दिया है। अतः अब मेरी रचनाओं की सूचना, सिर्फ मेरे ब्लॉग
जवाब देंहटाएंpurushottamjeevankalash.blogspot.com
या मेरे WhatsApp/ Contact No.9507846018 के STATUS पर ही मिलेगी।
आप मेरे ब्लॉग पर आएं, मुझे खुशी होगी। स्वागत है आपका ।
कोई बात नहीं पुरुषोत्तम जी | मैं अक्सर आपके ब्लॉग पर आती हूँ और आती रहूंगी | सादर आभार |
हटाएंहृदयस्पर्शी घटना सखी ,जन्मभूमि के प्रति सच्ची श्रद्धा थी उस सैनिक के मन में तभी तो कहते हैं "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी "उसने तो धर्म और फ़र्ज़ दोनों निभाया। युद्ध हो या ऐसी महामारी जो आज हैं, इसी में ऐसी कई हृदयस्पर्शी घटनाएं भी उजागर होती हैं जो ये सिद्ध कर जाती हैं कि -"जीत मनुज धर्म की ही होती हैं "
जवाब देंहटाएंप्रिय कामिनी , सच में सखी जन्मभूमि के प्रति उस सैनिक के प्रेम का इससे बढ़कर प्रमाण क्या होगा कि उसके अस्तित्व को बचाने के लिए अपनी जान तक जोखिम में डाल दी |सस्नेह आभार इस भावपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए|
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार ओंकार जी |
हटाएंहृदय स्पर्शी ।
जवाब देंहटाएंसलाम !
सस्नेह आभार प्रिय कुसुम बहन | आपने संस्मरण पढ़ा मेरा सौभाग्य है \
हटाएंरेणु दी, इंसान दुनिया में कहीं भी जाए लेकिन उसे उसकी जन्मभूमि जरूर याद रहती हैं। ये तो भारत का वीर सपूत था। लेकिन कई बार देखने मे आया हैं कि बड़े से बड़े अपराधी के मन में भी अपराध करते वक्त कहीं न कहीं अपनी जन्मभूमि की रक्षा का ख्याल आता हैं। बहुत सुंदर संस्मरण।
जवाब देंहटाएंप्रिय ज्योति जी , आप ना सिर्फ रचनाकार हैं बल्कि एक उत्तम पाठिका भी हैं |आपने रचना के मर्म को पहचाना है जिसके लिए हार्दिक आभार |
हटाएंआपके इस लेख को पढ़कर मेरी माँ की बात याद आ गई ,वो भी इसी तरह की बातें बताया करती रही ,बहुत ही बढ़िया ,मातृ भूमि से लगाव रहता ही है, साहिर जी की रचना भी बहुत सुंदर है।
जवाब देंहटाएंबहुत -बहुत शुक्रिया ज्योति जी |मैंने भी ये बातें मेरे घर के बड़े बुजुर्गों के मुंह से ही सुनी है | ये मेरे जन्म से कई साल पहले की बात है | ब्लॉग तक आने के लिए आपकी आभारी हूँ
हटाएंसंस्मरण प्रेरक है रेणु जी और भावोद्वेलक भी । और जो साहिर साहब की नज़्म आपने अंत में उद्धृत की है, उसे तो सभी तो अपने मन में अवशोषित कर लेना चाहिए । युद्धोन्माद में डूबे लोगों को भूलना नहीं चाहिए कि जंग तो चंद रोज़ होती है, ज़िन्दगी बरसों तलक रोती है ।
जवाब देंहटाएंबहुत -बहुत आभार जितेंद्र जी। मनोयोग से लेख पढ़कर प्रतिक्रिया देनें के लिए सादर शुक्रिया 🙏🙏🙏🙏
हटाएंसच, मैं तो इसे कहानी मानती
जवाब देंहटाएंगर कल तीसरे पहलू मे नहीं पढ़ी होती
और भी कुछ शेयर करने लायक हुआ को ज़रूर शेयर करूँगी
सादर
प्रिय दीदी , आपका हार्दिक आभार जो आपने यहाँ आकर इस संस्मरण को पढ़ा | ये मेरा सौभाग्य है |सादर
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन के साप्ताहिक अवलोकन में" आज शनिवार 21 अगस्त 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय बड़े भैया और प्रतिष्ठित मुखरित मौन
हटाएंभावपूर्ण संस्मरण । एक तरफ जन्मभूमि तो दूसरी ओर देश के प्रति कर्तव्य ।
जवाब देंहटाएंभावुक कर गया ।
युद्ध तक तो फिर भी ठीक लेकिन जो स्त्रियों और बच्चियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है जैसा आज कल अफगानिस्तान में हो रहा है व्व सहनीय नहीं होता ।
प्रिय दीदी , आपने लेख को मनोयोग से पढ़ा और इसके मर्म को पहचाना, यह मेरे लिए गर्व की बात है | और अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर सभी व्यथित हैं |निसंदेह संवेदनशील इंसानों के लिए असहनीय है ये मौत का तांडव ||हार्दिक आभार आपकी स्नेहिल प्रतिक्रया के लिए |
हटाएं