सुरेन्द्रनगर गुजरात से प्रकाशित होने वाली प्रसिद्ध हिन्दी पत्रिका
कविता जीवन का ऐसा राग है जिसकी सम्पूर्ण परिभाषा साहित्य के पुरोधा अपने भरसक प्रयास के बावजूद तय नहीं कर पाए | पर एक सत्य है, जो सर्वमत से स्वीकार्य है -- चाहे सृष्टि में शब्द नहीं थे , लेखनी नहीं थी , कविता प्रत्येक युग में अपनी विलक्षणता के साथ उपस्थित रही है | कविता बहती रही है भीतर ही भीतर किसी अतःसलिला-सी , निशब्द और निस्पंद!पर जब इसे शब्द मिले ये निर्झर-सी अविराम बह चली --- कभी गीत बनकर , कभी छंद बनकर और कभी स्वछन्द हो हुलसती , किलकती रही | आखिर कविता कब जन्मती है ?जब भीतर की संवेदनाएँ स्वयंम से संवाद करती हैं, तो ये संवाद एक कविता का मूर्त रूप धारण कर आता है | जीवन की विसंगतियों , विद्रूपताओं के साथ अन्य मानवीय भावनाओं को मुखर करती कविता मानवता को पोषित और पल्लवित करती हुई समय की सबसे बड़ी साक्षी बनकर खड़ी रहती है |यह कविता ही है जो अदम्य साहस से जीवन की सच्चाई को समस्त विश्व के सामने रखने का ज़ोखिम उठाती है | हिंदी ब्लॉगर और कवि विश्वमोहन जी का नवीन काव्य-संग्रह भी कवि मन की सूक्ष्म संवेदनाओं का महत्वपूर्ण दस्तावेज है -------जहाँ कवि-- कासे कहूँ? प्रश्न से दोचार और बेज़ार है | खुद से प्रश्नों का प्रतिउत्तर हैं--- कासे कहूँ की इकावन रचनाएँ ---- जिनकी विषय-वस्तु पाठक को देश , समाज और प्रेम के विभिन्न आयामों से रूबरू कराती है | कवि के पास गाँव-गली की यादें भी हैं,तो पीड़ित मानवता के लिए गहरी करुणा भी | अनैतिक और आराजक तत्वों के लिए क्षोभ के साथ उन्हें लानत भेजने का दुस्साहस भी | काव्य-संग्रह की शुरुआत होती है प्रेम कविताओं से जिनमें में आरम्भ में ही 'अर्पण 'नाम से प्रेमासिक्त ह्रदय का एक विशेष आह्वान है जिसमें व्याप्त माधुर्य अनायास मन को बाँध लेता है --
संग-संग रंग मेरे मन का,/तनिक -सा तुम भी भर लो ना//
भले ' भले' हो तुम तनहा में,/यादों में निमिष ठहर लो ना//
इसके बाद काव्य-संग्रह की प्रथम कविता प्रणयोन्मत ह्रदय के उदगार के रूप में पाठकों को प्रेम के अछूते रूप से अवगत कराती है , जिसमें प्रेयसी के प्रति प्रगाढ़ आत्मीयता से परिपूर्ण एक गहन सांत्वना है और विरह- विगलित मन - प्रान्तर को सहलाने की प्रबल आंकाक्षा भी | प्रणयी-पुरुष, मानो शिव बनकर प्रेयसी की समस्त वेदना का गरल गटकने को आतुर है | जिसे अत्यन्त मोहक शब्दों बाँधा है कवि ने --
दुःख की कजरी बदरी करती , /मन अम्बर को काला . /क्रूर काल ने मन में तेरे , /गरल पीर का डाला . /
ढलका सजनी, ले प्याला , /वो तिक्त हलाहल हाला//
मुख शुद्धि करूँ-/तप्त तरल गटक गला नहलाऊँ / पीकर सारा दर्द तुम्हारा / नीलकंठ बन जाऊँ///
एक पुरुष होते हुए भी कवि ने नारी के एक आम उपालम्भ' तुम क्या जानो - पुरुष जो ठहरे -' को लेकर एक कालजयी रचना की सृष्टि की है --
मीत मिले न मन के मानिक/ सपने आँसूं में बह जाते हैं। /
जीवन के वीरानेपन में,/महल ख्वाब के ढ़ह जाते हैं।/
टीस-टीस कर दिल तपता है/भाव बने घाव ,मन में गहरे।//
तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!/////
तो वहीँ प्रेम की ये अदा भी कहाँ आम है ?----------------
प्रणय विजय में तुम्हारी//प्रीत का पय पान कर//प्रेम तरल अधर रस से/अमर जल को छानकर//
घोल हिय के पीव अपना/पान करता थारकर//तू हार जाती जीतकर/मैं जीत जाता हारकर!//
तो वहीँ रचना 'एकोअहंद्वितीयोनास्ति!' दो आत्माओं के एकाकार होने की प्रबल कामना को संजोती है तो सृष्टि के उद्धारक युगल के अस्तित्व की अभिन्नता ' नर - नारी ' में दिखाई पड़ती है ||
प्रकृति और पुरुष की सम्पूर्णता को दर्शाती हैं प्रेम -आधारित दूसरी रचनाएँ , जिनमें प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों को बड़ी ही सुघढ़ता से अभिव्यक्त किया गया है | रचना 'कासे कहूँ हिया की बात '-- गाँव की गोरी के अंतर्मन की अनकही पीड़ा को बड़ी ही मार्मिकता के साथ व्यक्त करती है , जहाँ विरही नायिका की निष्फल होती प्रतीक्षा और मन की अनाप - शनाप शंकाओं को बड़ी ही खूबसूरती से शब्दों में पिरोया गया है --
पसीजे नहीं, पिया परदेसिया,/ना चिठिया, कोउ बात।
जोहत बाट, बैरन भई निंदिया,/रैन लगाये घात। //कासे कहूँ हिया की बात !
तो 'जुल्मी फागुन पिया ना आयो'---- नारी मन की अव्यक्त व्यथा -कथा और अंतस का अनकहा प्रलाप है । जहाँ पीड़ा के साथ बतरसिया निर्मोही साजन के प्रति अखंड प्रेम और विश्वास का उद्घोष। भी किया गया है |----
बरसाने मुरझाई राधा /कान्हा, गोपी-कुटिल फंसायो//
मोर पिया निरदोस हयो जी// फगुआ मन भरमायो//जुलमी फागुन! पिया न आयो!
ढ़लते सूरज के साथ सजी सिन्दूरी संध्या के प्राकृतिक सौन्दर्य को उकेरता मोहक शब्द- चित्र 'दो पथिककिनारे ' कवि के भीतर के अनन्य प्रकृति- प्रेम का परिचय देता है जहाँ प्रेम को पुरुष और प्रकृति के साँझे उद्यम की संज्ञा दी गयी है -
पुरुष-प्रकृति प्रीत परायण,/प्रवृत्त नर, निवृत्त नारायण।//मिलन-चिरंतन का मन, मंगल-गीत उचारे,
राही राह निहारे /दो पथिक किनारे !
अपनी दैहिक विसंगतियों को दरकिनार कर , सुघड़ आर्थिक प्रबंधन के साथ बच्चों की तरक्की की निस्वार्थ आकांक्षा संजोये संघर्षशील आम पिता का 'बाबूजी' नामक रचना में मार्मिक चित्रण किया गया है जिन्होंने कम साधनों में भी ,अपनी संतान को सफलता के शिखर तक पहुँचाने के लिए , तन और मन से अपना अतुलनीय योगदान दिया है |---
कफ, ताला, बलगम, जेब, अँगोछा/पेटी, ,जनेऊ, चाभी, मोतियाबिन्द
मिरजई, बिरहे की तान- सब संजोते //बाबूजी आँखों में, रोशन अरमान/बच्चों के बनने का सपना!//
तो वहीँ बेटी की विदाई पर आकुल -व्याकुल पिता के ह्रदय की वेदना मन को भीतर तक छू जाती है --
बेटी विदा, विरह वेला में /मूक पिता ! क्या बोले?//लोचन लोर , हिया हर्षित/आशीष की गठरी खोले.
अंजन-रंजित,कलपे कपोल/कंगना,बिन्दी और गहना,//रोये सुबके सखी सलेहर /बहे बिरह में बहना.//
पुस्तक में प्रेम और परिवार के साथ साथ समाज की विसंगतियाँ भी कवि की सूक्ष्म दृष्टि से छुप नहीं पायी है राष्ट्र और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार से व्यथित कविमन चिरनिद्रा में लीन बापू को भी उलाहना देने से नहीं चूकता -- |-----
उठ न बापू! जमुना तट पर,क्या करता रखवाली ?/तरणि तनुजा काल कालिंदी,बन गयी काली नाली।
राजघाट पर राज शयन! ये अदा न बिलकुल भाती।//तेरे मज़ार से राज पाठ,की मीठी बदबू आती।
तो दुष्कर्मी नर को नपुंसक कहने में कवि को कोई गुरेज नहीं --
हबस सभा ये हस्तिनापुर में //निरवस्त्र फिर हुई नारी है//
अन्धा राजा, नर नपुंसक//निरलज ढीठ रीत जारी है !
सम-सामयिक घटनाओं पर पैनी दृष्टि के साथ कलम का तीखा वार सोचने पर मजबूर करता है | नोटबंदी प्रकरण पर लिखी 'नोटबंदी ,' पुलिस और कानूनविदों की मिलीभगत पर करारा व्यंग ' खाकी - कलुआ भाई भाई ' बच्चों की मौत पर राजनीति की रोटियाँ सकती सियासत पर 'कुटिल कौन कैसी फ़ितरत,' शीना हत्याकांड पर 'रिश्तों की बदबू ', डेंगू की विपदा के बीच ईश्वरतुल्य माने जाने वाले चिकित्सकों के व्यावसायिक रवैये पर -''प्लेटलेट्स की पतवार फँसी 'डेंगी'में।', कथित बुद्धिजीवियों का छद्म प्रपंच और व्यर्थ में ही खुद को मानवतावादी दिखाने की चाह ,'पुरस्कार वापसी,' भूकम्प की विभीषिका के बाद अमर आशा पर -'आशा का बीज 'आदि के साथ फुटपाथ ,'गरीबन के चूल्हा' , पानी - पानी/ बैक वाटर/ मंदी , , कालजयी कवि , सजीव अहंकार इत्यादि के साथ देश की गौरव -- सेना की महिमा को बढ़ाती रचना ; कदमताल लाजवाब है |
पाथर -कंकड़ वन्दे दिवाकर सिरजे संसार , ज्ञाता ज्ञान और ज्ञेय और अघाए परमात्मा इत्यादि कवितायें कवि की आस्था और आध्यात्मिक अभिरुचि का सृजन है |
इन सबके साथ लोकरंग को प्रखर कवि ने अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दिया है |लोक भाषा की गरिमा को अक्षुण रखती भाव-प्रवण रचनाएं कहीं ना कहीं स्मृतियों में बसे विस्मृत आँगन की याद दिलाती हैं | भोर -भोरैया में नारी मन की दारुण दशा का मार्मिक चित्र --
भोर भोरैया, रोये रे चिरैया /बीत गयी रैना, आये न सैंया// तो 'मोर अँगनैया' में
बावरी बयार बाँचे//आगी लागी बगिया.
जोहे जोहे बाट जे //बिलम गयी अँखिया .// अत्यंत मनभावन हैं |
संक्षेप में, यदि कहें हर रंग ,हर विषय की रचना के रूप में कवि की असीम प्रतिभा दिखाई पड़ती है तो कोई अतिश्योक्ति ना होगी | आज मानो, जब कविता में अलंकारों के प्रयोग के चलन का लोप-सा ही होता जा रहा है इन रचनाओं में रूपक , मानवीकरण इत्यादि अंलकारों के साथ अनुप्रास अंलकार की टूटती साँसों में जीवन भरता उनका प्रयास यत्र-तत्र कई रचनाओं में मनमोहक शैली में दिखाई पड़ता है | पुस्तक की सभी रचनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करते कई विद्वान साहित्य -साधकों के विचार -- पाठकों को सरस , सहज और बेबाक समीक्षा से अवगत कराते हुए सृजन के महत्वपूर्ण बिन्दुओं से परिचय भी कराते हैं | | पुस्तक का आवरण चित्र अत्यंत मनमोहक और आकर्षक है जो पुस्तक की विषय-वस्तु के साथ पूरा न्याय करता है | परिचय में कुछ टंकण अशुद्धियाँ , संस्कृतनिष्ठ शब्दावली और देशज शब्द जरुर पाठकों के लिए दुरूह साबित हो सकते हैं पर भाव-प्रवाह में ऐसी आशंका निर्मूल साबित होने की पूरी संभावना है |निश्चित ही ये पुस्तक पठनीय और संग्रहणीय है |एक अभियन्ता की साहित्यिक अभिरुचि का शानदार प्रतीक है ये काव्य संग्रह |
अंत में , विश्वमोहन जी को पुस्तक के प्रकाशन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं| पुस्तक काव्य -रसिकों के बीच लोकप्रिय हो और साहित्य जगत की के रूप में इसका उच्च मूल्यांकन हो , यही कामना करती हूँ |
पुस्तक : कासे कहूँ ,मूल्य: 150
लेखक : © विश्वमोहन
प्रकाशक : विश्वगाथा, सुरेन्द्रनगर , गुजरात /-
पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध है |