रसोई से आती विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजनों की मनभावन गंध और माँ की स्नेह भरी आवाज ने घर से बाहर जाते नीरज के कदमों को सहसा रोक लिया |'' आज तुम्हारे दादा जी 'पहला' श्राद्ध है बेटा ! इसलिए उन्हें समर्पित जो विशेष पूजा होगी वो तुम्हारे ही हाथों से होगी | तुम जानते हो तुम्हारे हाथों हुई पूजा से उनकी आत्मा को कितनी शांति मिलेगी !'
वैसे तो श्राद्ध पखवाड़े में शायद ही कोई दिन जाता होगा जिस दिन परिवार के किसी ना किसी दिवंगत सदस्य का श्राद्ध ना होता हो , पर उनमें से किसी को भी नीरज ने नहीं देखा था |खीर, पूरी, हलवा और ना जाने क्या -क्या दिवंगत आत्माओं के निमित्त बनाए जाते | इसी तरह आज दादा जी के श्राद्ध के लिए वही ख़ास चीजें बन रहीं थी जो उन्हें विशेष तौर पर पसंद थी | बनते पकवानों की खुशबू दूर-दूर तक फ़ैल रही थी |नीरज को पता था सभी चीजें थोड़ी देर में बनकर तैयार हो जाएँगी | तब पंडित जी आकर पूजा करवाएँगे |
अभी सब कार्यों में थोड़ी-सी देर थी, इसलिए वह घर से कुछ कदम दूर बैठक में जाकर बैठ गया | बैठक के प्रांगण में बरसों पुराना नीम का पेड़ खड़ा था | अब की बार भादों में जमकर बारिश हुई थी अतः नीम पर हरियाली की एक अलग ही छटा छाई थी| हरे- हरे पत्तों से लदी उसकी टहनियाँ हवा में धीरे-धीरे लहरा रही थीं |
नीम को निहारते दादा जी की याद आई तो नीरज का मन अनायास भर आया |और वह नीम के नीचे पड़ी खाट पर बैठ कर यादों में डूब गया ------ -------- --------- -------- ----------!
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जब से नीरज ने होश सम्भाला था ,तबसे दादा जी को अपनी हर ख़ुशी और परेशानी में अपने साथ खड़े पाया था |दादा जी उसके लिए सिर्फ उसके दादा जी भर नहीं थे . उसके मार्गदर्शक और दोस्त भी थे |उसकी कोई भी समस्या हो वे उसे चुटकियों में हल कर देते थे |अपने निर्मल स्नेह के साथ मेहनत , लगन और धैर्य का जो पाठ दादा जी ने उसे पढ़ाया था , उसने उसके जीवन को बहुत सरल बना दिया था | पढाई के अतिरिक्त समय में वे उसे अपने साथ रखते और अपने जीवन के अनुभवों और मधुर यादों को उसके उसके साथ साझा करते |तब उसे लगता वह भी उनके साथ बीते समय में पहुँच गया है | पौराणिक और ऐतहासिक ज्ञानवर्धन करने में उनका कोई सानी ना था |उन्होंने लोक जीवन के अनदेखे और अनगिन पहलुओं से उसका परिचय करवाया था |दादा जी उसे प्रति सुबह जल्दी नींद से जगाते और खेतों की सैर पर ले जाते | वे प्रत्येक मौसम की फसल और प्रकृति के बारे में उसे ढेरों बातें बताते जिन्हें सुनकर वह रोमांचित हो जाता और प्रत्येक सुबह की बेसब्री से प्रतीक्षा करता |दादा जी में उसने सदैव एक अनोखी ऊर्जा को पाया था| वे उसे कर्मठता , सादगी और जनसेवा की भावना से भरे एक अनोखे इंसान लगते जो सदैव हर जरूरतमंद की मदद को तैयार मिलते |सभी पर्वों को मनाने के लिए वे सदैव उत्साहित रहते और ऐसे अवसरों पर वे सभी बच्चों के साथ स्वयं भी बच्चे बन जाते |उसे वह दिन याद आया जब उसने दादा जी को पहली बार कौओं को जिमाते देखा था |दादा जी थाली में रखी खीर भरी पूरियों के छोटे-छोटे टुकड़े कर उन्हें छत पर डालते हुए , आँगन में खड़े हो कर जोर-जोर से चिल्लाते ,' आओ देवता आओ ----- आओ देवता आओ --'तभी वह देख्ता दर्जन भर कौओं का झुण्ड ना जाने किस दिशा से आता और खीर सनी पूड़ियों के टुकड़े खा कर किस दिशा में उड़ जाता !नन्हा नीरज बड़ी हैरानी से दादाजी को तकता रह जाता !वह सोचने लगता --- कितनी अजीब बात है !-- जब हर रोज यही कौए घर की छत पर बैठकर काँव-काँव करते हैं तो माँ,दादी और चाची सब उन्हें कितनी उपेक्षा से उड़ा दिया करती हैं !उनकी कर्कश काँव-काँव सुनकर उन्हें डर सताता है कि कहीं वक्त-बेवक्त कोई अनचाहा मेहमान ना आ जाए | ---- और आज इन विशेष दिनों में कौए को देवता बताया जा रहा है !वह मन ही मन हँसा और दादा जी से पूछने लगा ---' दादा जी ! क्या कौए देवता होते हैं ?
हाँ रे !' दादा जी उसे प्यार से समझाते |'' इन दिनों में हमारे पूर्वज इसी रूप में उनके प्रति हमारी श्रद्धा देखने आते हैं |
उसका बाल मन यहीं संतुष्ट ना होता | वह फिर प्रश्न करता -' श्राद्ध क्या होता है दादा जी ? ''
श्रद्धा से अपने पूर्वजों का स्मरण और उनके निमित्त किया गया कर्म ही श्राद्ध है |'
'पर श्राद्ध क्यों दादा जी ? '' उसकी जिज्ञासा शांत होने का नाम नहीं ले रही थी |
प्रश्न के बदले दादा जी ने उसी से एक प्रश्न किया --'क्या मेरे दुनिया में से जाने के बाद तुम मुझे याद ना करोगे ? नन्हा नीरज दादा जी के इस प्रश्न को सुनकर बड़ी गहरी सोच में डूब जाता , तो दादा जी कहते -'करोगे ना ?इसी तरह मेरे दादा-दादी , परदादा-परदादी वगैरह ने भी चाहा होगा कि मैं उन्हें कभी ना भूलूँ !इस तरह मैं भी अपने पूर्वजों को श्राद्ध- पखवाड़े में बड़ी श्रद्धा से याद करते हुए यथाशक्ति उनके निमित्त श्रद्धा -कर्म करता हूँ |
वह हैरानी से कहता , 'सच दादा जी!'
और दादा जी हाँ कहते हुए श्राद्ध की समस्त प्रक्रिया में उसे अपने साथ बिठाते |उनकी देखादेखी वह सभी कार्यों में बड़ी प्रसन्नता और उत्साह से उनका हाथ बँटाता|पर उसने कभी सोचा ना था कि उसके दादा जी उससे कभी दूर भी जा सकते हैं |मात्र कुछ दिनों के बुखार ने उन्हें नीरज से हमेशा के लिए दूर कर दिया था |जीवन में किसी महत्वपूर्ण स्थान का अचानक रिक्त हो जाना क्या होता है ये नीरज ने तब जाना जब दादा जी नहीं रहे | बैठक का हरेक कोना उससे दादा जी याद दिलाता |हर विषय की किताबों से भरी लकड़ी की अलमारी,कुर्सी, दादा जी का चश्मा ,पैन और घड़ी नीरज को विकल कर देते |आज उदासी से भरा वह उनकी वही चीजें निहार रहा था | उसे एक बात सबसे ज्यादा दुःख दे रही थी कि दादा जी ने उसकी मैट्रिक की परीक्षा के लिए साहित्य और सामाजिक अध्ययन की जो तैयारी उसे करवाई थी, उसका सुखद परिणाम वे अपने जीते जी देख ना पाए |नीरज मैट्रिक की परीक्षा में मैरिट लिस्ट में स्त्थान पाकर भी उत्साहित ना हुआ | वह यही बात सोचता रहा कि दादा जी होते तो खुश होकर उसे ढेरों आशीर्वाद और शाबासियाँ देकर गले से लगा लेते, तो बधाईयाँ देने वालों को खूब मिठाइयाँ खिलाते |नीरज का मन मानों बुझ - सा गया था हालाँकि घर भर के लोग उसकी इस आशातीत सफलता पर बहुत खुश थे, पर नीरज को इस बात का पछ्तावा होता कि दादा जी ने अप्रत्याशित रूप से उसका साथ छोड़ दिया है | वे उसके साथ होते तो भविष्य के लिए उसका खूब मार्गदर्शन करते क्योंकि वे स्वयं सरकारी स्कूल से सेवानिवृत अध्यापक थे | बच्चों के बीच उन्होंने सालों बिताए थे और बालमनोविज्ञान से भली- भाँति वाक़िफ थे |सभी बच्चों के मन की बात वे बिना बताये समझ जाते थे |
बचपन में नीरज दादा जी को खूब सताता | रंगीन फोटो बार-बार देखने की जिद में वह किताबों की अलमारी खोलकर सब किताबें इधर-उधर बिखेर देता | उनका चश्मा लेकर भाग जाता तो कभी उनकी पीठ पर चढ़कर हठ करता कि वह उसे घर तक तत्काल छोड़कर आयें |दादा जी उसकी बालसुलभ शरारतों पर उसे डाँटते ना फटकारते | हाँ , उसे हँसकर ये अवश्य कहते ,''कि तुम्हारी शरारतों का बदला मैं तुमसे इसी घर में दुबारा जन्म लेकर लूंगा और तुम्हें खूब सताऊँगा|'
''लेकिन कैसे दादा जी ? वह उत्सुकतावश पूछ बैठता |
वे तब थोड़ा गंभीर होकर कहते ,' मैं हमेशा तुम्हारे पास थोड़े ना रह पाऊँगा | एक ना एक दिन मुझे भगवान् जी के पास जाना ही पडेगा |उसके बाद मैं किसी और रूप में तुम्हारे पास आ जाऊँगा !'' वे उसका सर सहलाते हुए कहते |
'नहीं दादा जी ''-- नीरज सब शरारते भूलकर उनसे लिपट जाता और कहता --' मैं आपको भगवान् जी के पास कभी ना जाने दूँगा| आप हमेशा रहेंगे मेरे साथ |'
नीरज तब लगभग रो पड़ता तो दादा जी उसे गले से लगा कर खूब समझाते हुए नीम का पेड़ दिखाते और कहते --'देखो! ये नीम का पेड़ है ना !बारिश में जब इसकी निबौरियाँ झरती हैं तो ढेरों नन्हें पेड़ उगते हैं |ये पेड़ अपने ना होने के बाद भी इन नन्हें पेड़ों में हमेशा जीवित रहता है |वैसे ही इंसान भी संसार के जाने के बाद भी अपने बच्चों और नाती- पोतों में हमेशा रहता है |नीरज की आँखें नम हो आईं|
तभी उसकी तन्द्रा भंग हुई | उसने देखा मँझले चाचा जी उसे बुला रहे थे |पूजा की तैयारी पूरी हो चुकी थी थी |पंडित जी भी पधार चुके थे | पहली बार नीरज ने अपने पूरे परिवार को बड़े ध्यान से देखा तो अपने पिताजी आज उसे दादा जी की तरह नज़र आ रहे थे -- उन्हीं की तरह बिलकुल गंभीर और दायित्व से भरे हुए !मँझले चाचा की मूँछें दादा जी तरह ही नुकीली थी , तो छोटे चाचा मोटी-मोटी आँखों और हँसते हुए चेहरे के साथ दूसरे दादा जी ही लग रहे थे | जड़वत-सा खड़ा वह सोच रहा था कि अब तक वह ये सब क्यों जान ना पाया था |सचमुच , नीम के नन्हे पौधों की तरह दादा जी घर के हर सदस्य में नज़र आ रहे थे |
इसी बीच पंडित जी ने पूजा की और खीर व पूरियों से भरी थाली कौओं को जिमाने के लिए नीरज के हाथ में दे दी |नीरज ने पूरियों के छोटे- छोटे टुकड़े किये और आँगन में खड़े होकर कौओं के लिए छत पर डाल दिया | साथ में जोर-जोर से आवाज़ लगाई ,' आओ देवता आओ !आओ देवता आओ !' कौओं के झुण्ड छत पर उतरने लगे थे |नीरज को अपने भीतर दादा जी मुस्कुराते हुए नज़र आ रहे थे | अनायास आँखों से गर्म आँसूं छलक कर उसके गालों पर लुढ़कने लगे थे |
रूप से उसका छोड़ दिया है |
जवाब देंहटाएंयहाँ "साथ " शब्द छुट गया है ।
आज तुम्हारे दादा जी पहला श्राद्ध है बेटा/ दादाजी " का " पहला ।।
कहानी मर्मस्पर्शी है । बच्चों में दादा दादी के संस्कारों का प्रभाव गहरे तक पैठ जाता है ।
दादा पोते के रिश्ते का ताना बाना सुंदर बन पड़ा है । श्राद्ध पक्ष के महत्त्व को दर्शाती सुंदर कहानी ।।
जी प्रिय दीदी,आपने मनोयोग से कहानी पढ़ी और उस पर सार्थक प्रतिक्रिया दी उसके लिए ढेरों स्नेहिल आभार।आपने जो त्रुटियाँ बताई उनके लिए नत हूँ।मैने सभी ठीक कर ली हैं। आपको कथा पसंद आई अच्छा लगा 🙏🙏
हटाएंवाह रेणुबाला, दादा-पोते के आपसी प्यार की भावुक करने वाली गाथा.
जवाब देंहटाएंमैं पुरखों के श्राद्ध करने के ख़िलाफ़ नहीं हूँ लेकिन ढोंगी पंडितों को उनके नाम पर दान करने के और कौओं को पकवान खिलाने के सख्त ख़िलाफ़ हूँ.
अगर दादा जी श्राद्ध के दिनों में कौओं को भोजन कराते थे तो उनका पोता भी आँख मूँद कर उसी परंपरा का निर्वहन करे, यह मुझे उचित नहीं लगता.
आदरणीय गोपेश जी , सर्वप्रथम एक सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका सादर आभार |आपका कहना बहुत उचित है कि श्राद्ध कर्म के रूप में कहीं ना कहीं पूर्वजों के प्रति श्रद्धा के नाम पर पाखंड और आडम्बर को बढ़ावा मिलता है | और इसका अर्थ ये भी बिलकुल नहीं है कि जिन धर्मों में दिवंगत परिजनों के प्रति श्रद्धा के लिए कोई औपचारिक प्रावधान नहीं वे अपने पूर्वजों के प्रति कोई आस्था नहीं रखते | पर हमारे ऋषियों ने शायद इस कर्म को एक स्मृति-पर्व के रूप में अपने पुरखों को कृतज्ञतापूर्वक नमन की परम्परा के रूप में स्थापित किया होगा जिसका अनुचित लाभ ढोंगी लोगों ने लेना शुरु कर दिया। | पर आज ऐसे बहुत लोग हैं जो अपने बिछुड़े परिजनों की याद में, लोक कल्याण के लिए ढेरों काम करके उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं |इसके साथ ये भी हो सकता है पंडितों को भोजन की परम्परा उस समय शुरू कोई गयी हो जब उनकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय रही हो या फिर उन्हें जब समाज ने पूज्य बनाया तो उनमें किसी अन्य कर्म को करने में अपनी प्रतिष्ठा कम होने की भावना का संचार हो गया हो और अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए उन्होंने श्राद्ध कर्म को एक कुरीति बना दिया हो | एक बात स्पष्ट करना चाहूँगी कि इस कहानी में मैंने केवल एक पोते का अपने दादा जी के प्रति स्नेह दर्शाने का प्रयास किया है ना कि श्राद्ध पूजा के महिमामंडन का। प्राय संयुक्त परिवारों में [ आजकल हालाँकि ये शायद कहीं ही दिखाई पड़ता है ] बच्चों को संस्कार देने में दादा - दादी या नाना नानी का बहुत बड़ा योगदान रहता है | स्वयं मेरी परवरिश मेरी दादी ने की है || बालमन उनकी मौत के सत्य को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता| यहाँ नीरज को अपने पिता और चाचा इत्यादि की दैहिक गठन में दादा जी के दर्शन होते हैं ,तो वहीँ एक संस्कार रूप में वह उन्हें अपने भीतर पाता है | इसका अर्थ ये बिलकुल नहीं है कि उसने ताउम्र इस परम्परा के अनुशरण का संकल्प ले लिया होगा | निश्चित रूप से शिक्षा और समय के साथ हर चीज खुद ही बदलती चली जाती है | रही बात कौओं को खीर-पूरी खिलाने की तो कदाचित इस श्रद्धा के बीजारोपण के पीछे भी कौओं के अस्तित्व को बचाने का ही प्रयास हो |प्रिय कामिनी सिन्हा के एक लेख पर प्रतिक्रिया स्वरूप बहन कुसुम कोठारी जी ने बहुत महत्वपूर्ण तथ्य उजागर किया था कि पीपल और बरगद के पेड़ों का अस्तित्व कौओं के कारण ही है | शायद इसी वजह से धर्म के साथ जोड़कर उन्हें बचाने की ही कल्पना की गयी हो | वैसे समय के साथ कौए विलुप्त होने के कगार पर हैं | अब शायद कोई खीर-पूडी उन्हें ना बचा पाये।आपकी बेबाक समीक्षा की मैं प्रशंसक हूँ।इस बेबाकी से ही विमर्श के विस्तार का मार्ग प्रशस्त होता है।एक सार्थक प्रतिक्रिया के एक बार फिर से हार्दिक आभार और प्रणाम 🙏🙏
हटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत है आपका आदरनीय सुशील जी 🙏🙏
हटाएंआपकी लिखी रचना सोमवार 26 सितम्बर ,2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
हार्दिक अभिनदनम प्रिय दीदी 🙏🙏
हटाएंबहुत ही हृदयस्पर्शी मार्मिक कहानी । दादा की स्मृति में पोते के उद्गार बहुत ही भावपूर्ण ।
जवाब देंहटाएंप्रिय दी,
जवाब देंहटाएंअत्यंत भावपूर्ण एवं संदेशप्रद कहानी लिखी हैं।
अपने बुजुर्गों का आभार व्यक्त करने के लिए, उनकी स्नेहिल स्मृतियों को ससम्मान भावी पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए श्राद्धपक्ष एक सशक्त माध्यम है।
अंधपरंपराओं का विरोध तो हम भी करते है।
वह आडंबर और ढ़ोंग जिससे भावी पीढ़ी के संस्कारों में मूढ़ता का विलय हो तो उसका समर्थन हम न करें इसका दायित्व हमपर है। कहानी में ऐसा कोई ढ़ोंगी समर्थन मुझे नहीं दिखा बल्कि अपने बड़ों के प्रति प्रेम ,पारिवारिक व्यवस्था का सुंदर विश्लेषण मन छू गया।
कौए, जो अत्यंत महत्वपूर्ण हैं पर्यावरण पारिस्थितिकीय संतुलन की दृष्टि से। जिन्हें पितरों के नाम पर कुछ खिला देने से किसी का भी कोई नुकसान नहीं है बल्कि पक्षियों और मनुष्यों के बीच स्नेह संबंध ही स्थापित होगा।
सस्नेह प्रणाम दी।
सादर।
बहुत सुन्दर कहानी प्रिय रेणु जी ! कहानी पढ़ते समय नीम के पेड़ तले मैं भी नीरज के साथ खड़ी हो गई । लाजवाब और बेहतरीन सृजन ।
जवाब देंहटाएंरेणु दी, दादा पोते के माध्यम से श्राद्ध, परंपरा, बुजुर्गों के प्रति आदर एवं प्रेमभाव सभी कुछ बहुत ही सुंदरता से व्यक्त किया है आपने।
जवाब देंहटाएंदादा के संस्कारों और परम्पराओं को पोता के द्वारा आगे ले जाने की सीख देती सुन्दर कथा सखी, साथ ही संयुक्त परिवार का एक मनोरम दृश्य जो शायद ही अब कहीं देखने को मिलता है।ं औरजहां तक श्राद्ध कर्म की बात है तो इसमें दो राय नहीं कि पुरखों द्वारा संचालित प्रत्येक प्रथा के पिछे बहुत से वैज्ञानिक कारण थे। विकृत तो उसे हमने किया है। बहुत दिनों बाद मीमांसा पर आकर बेहद खुशी हुई। ढेर सारा स्नेह तुम्हें
जवाब देंहटाएंइस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ प्रिय कामिनी।जब तक हम किसी अपने के विछोह की पीड़ा में आकन्ठ डूबे होते हैं तर्को की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता बस श्रद्धा प्रमुख होती है।जब श्रद्धा का आवरण उतरता है तब तर्क से सब दिखावा और झूठ दिखता है।जहाँ श्रद्धा वहीं श्राद्ध है सखी।
हटाएंश्राद्ध का संदर्भ लेकर अनगिनत संस्कारों और पारिवारिक मूल्यों को संवर्धित करती बहुत ही उत्कृष्ट कहानी।
जवाब देंहटाएंहमारी परंपराएं समय समय पे समाज को जाने कितने नैतिक मूल्यों को सहेजने का कार्य करती हैं, इनको गहराई से समझने के बाद पता चलता है, आज के समय की प्रासंगिक कहानी के लिए हार्दिक बधाई आपको।
सही कहा आपने प्रिय जिज्ञासा!परंपराएं तब ज्यादा निभती थी जब लोग ज्यादा शिक्षित और तार्किक नहीं थे।आस्थाओं के तर्क नहीं होते।श्रद्धा एक सात्विक अंतरभाव है।यदि हम मानें तो श्राद्ध एक श्रद्धा कर्म है ना मानें तो अंध विश्वास मात्र।हार्दिक आभार आपका भावपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए।
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ्
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार है आपका 🙏
हटाएंभावपूर्ण अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार प्रिय मनोज जी।
हटाएंरिश्तों में स्नेह दर्शाती सुन्दर कहानी
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार और अभिनंदन आदरणीया गिरिजा जी।आपका मेरे ब्लॉग पर आना मेरा सौभाग्य है 🙏
हटाएंदादा-पोते के स्नेह को दर्शाती आपकी यह कहानी आंखें नम कर गयी। चूँकि मैं श्राद्ध कर्म में विश्वास(और सारा खेल विश्वास का ही है) रखता हूँ लिहाजा कहानी और भी अच्छी लगी। यह कहानी आपकी प्रतिभा की रेंज को भी बता रही है। आप मूलत: एक साहित्यकार हैं। शब्दों से खेलने में आप माहिर हैं जो हर एक उम्दा लेखक को आना चाहिए। पाठक के मानस को आप बहुत अच्छे से समझती हैं। ऐसी और भी कहानियों की प्रतीक्षा रहेगी।आप को बहुत-बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंप्रिय वीरेंद्र जी,इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आपका।आपके विचारों से सन्तोष हुआ।असल में श्राद्धकर्म की कल्पना पूर्वजों के प्रति हमारी श्रद्धा को दर्शाने हेतु की गयी होगी।निश्चित रूप से हमारे पूर्वज थे तो हम हैं।उनके प्रति कृतज्ञता हमारी संस्कृति का मूल तत्व है।भले श्राद्ध के साथ पोंगा पण्डितों ने अपने स्वार्थ सिद्धि के कई रास्ते ढूँढ कर इसे विकृत करने की कोशिश की पर शिक्षित और सुलझे हुये लोग मानवता हित में कार्य कर अपने पूर्वजों के निमित्त एक श्रेष्ठ कर्म करते हैं जो समय की माँग भी है।
हटाएंबहुत खूबसूरत कहानी, भाव विभोर कर गई
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार प्रिय भारती जी।
हटाएंसुन्दर कहानी। दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ l
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका प्रिय मनोज जी।आपको भी शुभकामनाएं और बधाई।
हटाएंआदरणीया मैम , अत्यंत सुंदर और भावपूर्ण रचना , जब पहली बार पढ़ी थी , तब मेरी आँखें भर आईं, सहसा नन्नन का भी स्मरण हो आया । आज दूसरी बार पढ़ी , मन को छूती , स्नेह और श्रद्धा से भरी हुई रचना मन को भावुक भी करती है पर हृदय में कहीं न कहीं एक चमक भी बिखेरती है । दादा और पोते का स्नेहिल सम्बद्ध और नीरज का अपने दादाजी के साथ समय बिताना और दादा जी का उसे संस्कारित करना और जीवन के बहुत से रहस्यों को सरलता से समझाना दिल को छु जाता है । हमारे दादा-दादी/ नाना -नानी हमारे सब से पहले और अच्छे गुरु होते हैं और मित्र भी । उनका स्नेह हमें सदा ही प्रेरित और दृढ़ करता है और शरीर छोड़ने के बाद भी वह सदा हमारे आस-पास होते हैं । अपने घर के बुजुर्गों के प्रति आदर और श्रद्धा भाव रखने का बहुत सुंदर संदेश । इस सुंदर रचना के लिए आपको बहुत -बहुत आभार एवं सादर प्रणाम ।
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जवाब देंहटाएं"सचमुच , नीम के नन्हे पौधों की तरह दादा जी घर के हर सदस्य में नज़र आ रहे थे |" मन के पोर-पोर को भीगा गयी पंक्तियाँ!!!
आपकी उपस्थिति और प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिएहार्दिक आभार और प्रणाम 🙏
हटाएंश्राद्ध का महत्व कितनी सरलता से समझा दिया है इस कहानी में आपने, दिल को छूने वाली रचना!
जवाब देंहटाएंस्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार और प्रणाम प्रिय अनीता जी 🙏
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